पथ के साथी

Thursday, April 22, 2021

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 आपके   शीघ्र स्वस्थ होने की कामना के साथ  -सहज साहित्य परिवार

परमजीत कौर रीत


कोविड पोजिटिव होकर अस्पताल में भर्ती हूँ ऐसे में एक बार फिर अपनी पसंदीदा किताबें पढ़ने का अवसर मिला है। समीक्षा लिखने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है
   बस अपनी वर्तमान स्थिति में बनजारा मन' पढ़ते समय जो विचार आ रहे हैं वो प्रस्तुत कर रही हूँ -

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बनजारा मन

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बनजारा मन समसामयिक जीवन का गहन दस्तावे है । अपनी वर्तमान स्थिति के अनुरूप मुझे इसमें अनेक सकारात्मक रचनाओं ने प्रेरित किया है जिंदगी की जंग और कठिन काल में हौसला बढ़ाया है ; इसके लिए बनजारा मन की तहेदिल से आभारी हूँ।

वैसे तो अनेक रचनाएँ अलग-अलग रूपों में महत्वपूर्ण हैं पर यहां मैं कुछ कविताएँ रेखांकित कर रही हूँ जो जिजीविषा में प्राण और निराशा में आशा का संचार कर रही है-

-तूफ़ानों से डर कैसा

चलना है बस चलना है। ( पेज19)

 

-छोटी सी

अंजुरी में हम

सारा आकाश भरें। ( पेज24)

 

-आएँ/

कितनी भी बाधाएँ/

हम मुस्काएँ । ( पेज 42)

 

-मुसीबत कभी जब हम पर पड़ी

 ज़िन्दगी सचमुच सरल हो गई।  ( पेज 59)

 

-जीवन के अँधेरों में/

बाधा बने घेरों में/

 सभी द्वारे दीपक/जलाए रखना।  ( पेज69)

 

-चुप रहती है फिर भी बहुत बोल जाती है/

बनी मन की अथाह गहराई है बूँद । ( पेज 78)

 

-हार नहीं मानती है चिड़िया ।( पेज 98)

और ऐसी ही अनेक रचनाएँ हैं जो   संघर्ष के इस काल में जीवन की जंग को जीतने की प्रेरणा दे रही हैं।

आदरणीय भाई साहब रामेश्वर काम्बोज जी का हार्दिक आभार है कि उनकी पुस्तक 'बनजारा मन' की रचनाओं ने मुझ जैसे साधारण पाठक में  आशा और प्रेरणा  जगाने का पुनीत कार्य किया है

-सादर-

---परमजीत कौर 'रीत'

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