पथ के साथी

Tuesday, June 2, 2020

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रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'


1-तूफ़ान सड़क पर

नामी या बेनाम सड़क पर
होते सारे  काम सड़क पर
जब देश लूटता राजा
कोई करे
कहाँ शिकायत, 
 कुर्सी पर कुछ बैठे दाग़ी
एकजुट हो
करें हिमायत ;
बेहयाई नहीं टूटती ,
रोज़ उठें तूफ़ान सड़क पर ।

दूरदर्शनी बने  हुए
इस दौर के
भोण्डे तुक्कड़,
सरस्वती के सब बेटे
हैं  घूमते
बनकर फक्कड़ ;
अपमान का गरल पी रहा
ग़ालिब का  दीवान सड़क पर ।

खेत छिने , खलिहान लुटे
बिका घर भी
कंगाल हुए ,
रोटी, कपड़ा, मन का चैन
लूटें बाज़ ,
बदहाल हुए ;
फ़सलों पर बन रहे भवन
किसान लहूलुहान सड़क पर ।

मैली चादर रिश्तों की
धुलती नहीं
सूखा पानी,
दम घुटकर विश्वास मरा
कसम-सूली
चढ़ी जवानी;
उम्र बीतने पर दिया है
प्यार का इम्तिहान सड़क पर । (8फ़रवरी, 2011)
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2-बीच सड़क पर

जब-जब दानव
बीच सड़क पर
चलकर आएँगे।
किसी भले
मानुष के घर को
आग लगाएँगे।
अनगिन दाग़
लगे हैं इनके
काले दामन पर
लाख  देखना
चाहें फिर भी
देख न पाएँगे।
कभी जाति
कभी मज़हब के
झण्डे फ़हराकर
  गुण्डे कौर
छीन भूखों का
खुद खा जाएँगे।
नफ़रत बोकर
नफ़रत की ही
फ़सलें काटेंगे
खुली हाट में
नफ़रत का ही-
ढेर लगाएँगे।
तुझे कसम है
हार न जाना
लंका नगरी में
खो गया
विश्वास कहाँ से
खोजके लाएँगे।
इंसानों के
दुश्मन तो 
हर घर में बैठे हैं
उनसे टक्कर
 लेनेवाले-
भी मिल जाएँगे।
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3-इस शहर में

पत्थरों के
इस शहर में
मैं जब से आ गया हूँ ;
बहुत गहरी
चोट मन पर
और तन पर खा गया हूँ ।

अमराई को न
भूल पाया
न कोयल की ॠचाएँ ;
हृदय से
लिपटी हुई हैं
भोर की शीतल हवाएँ ।
बीता हुआ
हर एक पल
याद में मैं पा गया हूँ ।
शहर लिपटा
 है धुएँ में ,
भीड़ में
 सब हैं अकेले ;
स्वार्थ की है
धूप गहरी
कपट के हैं
क्रूर मेले ।
बैठकर
सुनसान घर में
दर्द मैं सहला गया हूँ 
-0-(04-06-96)
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