पथ के साथी

Friday, May 30, 2014

जलते प्रश्न



डॉ. कविता भट्ट
(दर्शनशास्त्र विभाग ,हेमवती नन्दन बहुगुणा गढवाल केन्द्रीय विश्वविद्यालय,    श्रीनगर गढवाल,उत्तराखण्ड )

1-एक भोर रिक्शेवाले की

एक भोर रिक्शेवाले की
पीड़ाओं के लिए जब ठहरी थी,
भोर के तारे के उगते ही,
पगली सी मटकती कहाँ चली थी ?
इसी भोर की आहट को सुनते ही,
खींचने को बोझ करवट धीरे से बदली थी।
रात, रिक्शा सड़क के कोने लगा,
धीरे सी चुभती कराह एक निकली थी।
शायद किसी ने भी न सुनी हो,
जो धनिकों के कोलाहल में मचली थी।
पाँच रुपया हाथ में ही रह गया,
लोकतन्त्र की थाली अपरिभाषित धुँधली थी।  
कोहरे की चादर में लेटा था,
जमती हुई सिसकारियाँ  कुछ निकली थी।
व्यवस्था की निर्लज्जता को ढकने को आतुर,
  वही कफन बन गई जो उसने ओढ़ ली थी।
-0-
2-जलते प्रश्न

क्रूर प्रतिशोध प्रकृति का था या,
भ्रष्ट मानव की धृष्टता का फल?
श्रद्धाविश्वास पर कुठाराघात या,
मानव मृगतृष्णाओं का दलदल?
जलते विचारों ने प्रश्नों का,
रूप कर लिया था धारण।
किन्तु उनकी बुद्धिशुद्धि क्या?
जो विराज रहे थे सिंहासन।
डोल रहे अब भी यानों से,
बर्फ़ में दबे  शव नोंचखाने को।
मानव ही दानव बन बैठा,
निज बंधुओं के अस्थिपंजर चबाने को।
कितनी भूखकितनी प्यास है,
जो कभी भी मिटती ही नहीं।
कितनी छलकपट की दीवारें,
जो आपदाओं से भी ढहती नहीं।
सब बहा ले गया पानी था,
जीवनआशाविश्वासइच्छा के स्वर्णमहल।
किन्तु एक भी पत्थर न हिला,
भ्रष्ट महल दृढ़ खड़ा अब भी प्रबल। 
पेट अपना और कागजों का भरने वाले,
कहते काम हमने सब कुछ कर डाले।
जिनके कुछ सपने पानी ने बहाए,
      उनकी बही आशाओं के कौन रखवाले।
उन्हीं के कुछ सपने बर्फ़ ने दबाए,
और कुछ सर्द हवाओं ने निषोप्राण कर डाले।
ऐसा नहीं कि सिंहासन वाले फिर नहीं आएँगे
आएँगे, बर्फ़ में दबे सपनों को कचोटने।
और सर्द हवाओं से बेघरों को लगे
रिसतेदुखते घावों पर नमक बुरकने।
-0-

Wednesday, May 28, 2014

वॉन पब्लिक लाइब्रेरी ! वार्षिक काव्य संगोष्ठी

वॉन पब्लिक लाइब्रेरी ! वार्षिक काव्य संगोष्ठी
         

रामेश्वर काम्बोज, श्याम त्रिपाठी , सरोज सोनी  

   25 मई, 2014, कनाडा के  वॉन शहर की वॉन पब्लिक लाइब्रेरी ! वार्षिक काव्य संगोष्ठी के अवसर पर काव्य-पाठ का आयोजन किया गया । कार्यक्रम की अध्यक्षता श्री श्याम त्रिपाठी ( संरक्षक और मुख्य सम्पादक हिन्दी चेतना) जी ने की और संचालन श्रीमती  सरोज सोनी ने किया । संयोजक थे  वॉन पब्लिक लाइब्रेरी के  श्री सुब्रह्मण्यम जी ।  इस अवसर पर  सुमन घई ( सम्पादक-साहित्यकुंज डॉट नेट), रामेश्वर काम्बोज ( कार्यक्रम के मुख्य अतिथि),अनिल पुरोहित,गोपाल बघेल, प्रो देवेन्द्र मिश्र,सुरेन्द्र पाठक,  श्रीमती प्रेम मलिक, सविता अग्रवालसवि , उषा बधवार , प्रमिला भार्गव आदि साहित्यकार उपस्थित थे ।
       

प्रथम पंक्ति-सविता अग्रवाल , गोपाल बघेल, प्रेम मलिक

  
कार्यक्रम का शुभारम्भ दीप प्रज्वलन के साथ  सरोज सोनी ,गोपाल बघेल,सविता अग्रवालसविउषा बधवार  की सरस्वती वन्दना से हुआ । इस अवसर पर सविता अग्रवाल  ने  हिन्द देश हमारा , पतझर में पत्तों की चादर / पलक झपक उड़ जाती है---काटते रहना काटने वालो / बार-बार मैं उगूँगा  सुनाई साथ ही झील के होंठ/ हवाओं का चुम्बन / थर्याया  जल  हाइकु से श्रोताओं को मुग्ध किया।
उषा बधवार ने बेटियों महत्त्व को रेखांकित करत हुए कहा-बेटियाँ होती बड़ी प्यारी

उषा बधवार-कविता पाठ

हैं/ ब्रह्मा ने बेटियाँ स्वर्ग से उतारी हैं
तथा तन्हाई के लिए तरु की छाया का बटोही/ मैं और मेरी तन्हाई  भावपूर्ण कविताएँ प्रस्तुत कीं।
सरोज सैनी ने -हँसी-रुदन का खेल रचा, रक्षा करोगे पीर हरोगे; प्रमिला भार्गव ने पीढ़ियाँ दर-पीढ़ियाँ कुर्बानियाँ देती रही तथा रेल का डिब्बा कविताएँ सुनाईं ।
जयश्री ने भक्ति गीत से सबको भाववोभोर कर दिया
श्रीमती प्रेम मलिक ने काव्यास्वाद परिवर्तित करते हुए अपनी सरस हास्य की कविताएँ सुनाकर सबकी उदासी दूर कर दी । हम तो बीवी तुमसे बस करते हैं गुज़ारा और बीवी हो गई पास मियाँ हो गए फ़ेलको बहुत सराहा गया । इनकी हास्य कविताएँ सी डी में भी उपलब्ध हैं।

सुमन घई-कविता  पाठ

सुमन घई जी का नाम किसी परिचय का मोहताज़ नहीं है । आपकी कविताएँ  मार्मिक एवं एकदम अछूते विषय पर केन्द्रित रहती हैं।खिड़की के टूटे शीशे से  झरती एक किरन का चित्र  गहरे तक छू गया और कहाँ है वो गर्मी का मौसम , कहाँ है बीता बचपन सबको अतीत की स्मृतियों से जुड़ी गहरी उदासी में डुबो गया ।
अनिल पुरोहित लम्बी कविताओं के सर्जन में निपुण तो हैं ही, साथ ही गहन भावबोध को बनाए रखने में भी सक्षम हैं।  सीता के वनवास पर छाए सन्नाटे की प्रश्नाकुल करती बोझिल चुप्पी को रूपायित करती  पंक्तियाँ-दब गई बच्चों की किलकारियाँ/ सभी लगते भयभीत हृदय को मथ गई । अन्य कविता-बींध छलनी कर दिया  हर तरफ़ से चलते शब्दों के बाण ने भी प्रभावित किया ।

सुरेन्द्र पाठक

सुरेन्द्र पाठक जी  की  पिछले दिनों बाइपास सर्ज़री हुई ।फिर भी उनकी जीवन्तता की दाद देनी पड़ेगी-अच्छा हुआ या बुरा हुआ / मेरे दिल का बाइपास हुआ हास्य कविता से  सबको गुदगुदाया।

गोपाल बघेल

प्रो देवेन्द्र मिश्र ने हैं नहीं सुरक्षित माँ बहनें / सब ओर दुश्शासन घूम रहे ने बहुत प्रभावित किया ।श्रीमती देवेन्द्र मिश्र ने नियाग्रा जल प्रपात की मनोभावना पर   मैं तो ठहरा एक मनमौजी अपनी धुन में झरता जाऊँ सुनाई ।रामेश्वर काम्बोज ने कुछ मुक्तक और नवगीत प्रस्तुत किए ।गोपाल बघेल की दो पुस्तकों मधुगीति और आनन्द गंगा का विमोचन भी आज ही हुआ । बघेल जी ने इन पुस्तकों से क्रमश: कल बादलों की ओट से / किसने तका किसने लिखा( पृष्ठ-83)  और आज कुछ आनन्द के क्षण/ मन डुबाते जा रहे(पृष्ठ-51)  कविताएँ सुनाईं।
आज के कार्यक्रम के अध्यक्ष श्री श्याम त्रिपाठी जी ने उमड़ रहा आशाओं का समन्दर /एक नया सूर्य उगेगा/ मिलेगा जन जन को प्रकाश/ भारत का होगा उन्नत ललाट ,महँगाई तू कब तक बढ़ेगी ? / जब तक यह दुनिया रहेगी  कविताओं के सहज वाचन से सबको मुग्ध कर दिया । 

काम्बोज और त्रिपाठी जी


प्रमिला भार्गव -कविता-पाठ

  
इस कार्यक्रम को सम्पन्न करने औरर हिन्दी की पुस्तके प्रदर्शित करने में श्री सुब्रह्मण्यम जी का योगदान प्रशंसनीय रहा । यह नहीं लगता था कि हम भारत से बहुत दूर हैं । हिन्दी के प्रति यहाँ का समर्पण भाव सराहनीय है ।
-0-


Wednesday, May 21, 2014

पाँच रंग

डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा 
1
लेखनी उद्बोध लिखना और फिर शृंगार भी ,
भक्ति , ममता ,हास भी  हो दर्द का संसार भी ।
तुम उठो ,उठ कर चलो ,जब भी समय की माँग पर ;
दोस्ती की जीत लिखना, दुश्मनी की हार भी ।।
2
दोस्ती ,दिल को कुदरत का ईनाम है ,.
एक इनायत ,खुशी से भरा जाम है ।
हम इसे दुश्मनी में बदलने ना दें :
ज़िंदगी में बड़ा ये भी इक काम है ।।
3
जीर्ण चदरिया मन की मीठे बोलों से सिल जानी है ,
दृढ़ संकल्पों से विघ्नों की ,कठिन शिला हिल जानी है ।
मरकर भी सुधियों में रह मन ,ऐसा काम अमर कर जा ;
मिट्टी की काया है इक दिन, मिट्टी में मिल जानी है ।।
4
नेकी मन से ना बिसराना ,सबसे बड़ी इबादत है ,
दीन,दुखी पर दया दिखाना, सबसे बड़ी इबादत है ।
जन्म दिया है जिसने हमको ,धन-धान्य से बड़ा किया ;
उनकी खातिर जान लुटाना, सबसे बड़ी इबादत है ।।
5
काम,क्रोध जब हृदय बसे तो खुशियों का संसार गया ,
कुटिल द्वेष का सर्प विषैला जीते जी बस मार गया ।
जान लिया है लोभ ,मोह की वैतरणी है यह जीवन ;
दया ,धर्म का लिये सहारा ,जो डूबा वो पार गया ।।

-0-

Friday, May 16, 2014

कुछ कविताएँ

 रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
1
कुछ मन पावन होते हैं।
कुछ मन भावन होते हैं
बात तुम्हारी जब होती
नैना सावन होते हैं ।
2
उम्र प्यार की कब होती
तन के भोगी  ना जाने हैं,
प्यार वह जो कभी न घटता
सच्चे दिल   ही पहचाने हैं।
3
परस तुम्हारा मिल जाए
जब दुनिया से चलना हो,
भोर –किरन का छू जाना
तुझे देख जब खिलना हो ।
4
जीवन में कुछ भी  मिल जाए
घाटा लगता है ,
बच्चों के बिन घर-आँगन

सन्नाटा लगता है  ।

Sunday, May 11, 2014

माँ


1-जब याद तुम्हारी
सुदर्शन रत्नाकर , फ़रीदाबाद

जब याद तुम्हारी आई माँ
तब आँखें भर- भर आई माँ
बचपन गया बुढ़ापा आया
मेरे संग-संग आई माँ
सम्बंधों के हसासों को
कभी  भूल ना पाई माँ
मेरी ख़ातिर तूने हरदम
बाबा से लड़ी लड़ाई माँ
कई बार तू भूखी सोई
पर रोटी मुझे खिलाई माँ
सर्दी में भी रही,ठिठुरती
ओढ़ाकर मुझे रज़ाई माँ
क्यों भूलूँ उपकार तुम्हारे
तू प्यार भरी कविताई माँ ।
-0-

2-माँ की  ममता का
      - पुष्पा मेहरा     

 माँ की  ममता का
आँचल पकड़ कर
 हम डगमग - डगमग चले
 माँ पगों की शक्ति बनी
 हमारी पग-पायलों की रुनझुन में
 डूबती उतराती माँ -
 सदा स्वयं को ही न्योछावर करती रही
 और हम बेख़बर रहे ।

 विशाल हृदया माँ ने
 कभी भी अपनी पीड़ा
 किसी से न बाँची
 निश-दिन पर-पीड़ा ही  हरती रही ।

 कर्म की नाव को
 श्रम की कीलों से जड़ कर
 धर्म की धारा में
 वो सदा ही तैरती रही ।
 स्व श्रम-सीकर
 कभी भी न पोंछ सकी
 नौनिहालों के श्रम-सीकर
 पोंछ कर  ही तृप्त होती रही ।

 अपनी ढुलकी आँखों में
 सुख सपने सजाए
 प्रतिदिन उजाले और अँधेरे में
 प्रकाश ही प्रकाश देखती रही ।

 वह कभी रिश्तों के लिये नहीं
 अपितु वह तो
 रिश्तों  में ही जीती रही
 और मिठास घोलती रही ।

 माँ का स्वरूप
 उसकी हृत्-कंदराओं में
 बसा रहता
 वह तो बिना प्रयास
 जब-तब  सहज ही उमड़ पड़ता ।

 प्रथमत: दुग्ध - धारा में,
 कहीं छलकते - झलकते
 स्नेहाश्रुओं में,
 कभी लोरी  के संगीत में,
 कभी धूल पोंछते हाथों
 कहीं ईंट-रोड़ी ढोती
 छाले पड़े हाथों से
 नव-शिशु को सहलाने में ।

 माँ मात्र एक शब्द नहीं
 एक अहसास है जो उसके
 उद् गारों में फूटता है
 हम नारियाँ
 यह तभी समझ पायी हैं
 जब मात्र नारी न हो कर
 हम माँ भी कहलाई हैं ।

 समय की पर्तों में
 धीरे-धीरे माँ का नश्वर तो
 खो जाता है
 किन्तु माँ कभी नहीं ।
-0-