1-दूर जाते हुए
डा कविता
भट्ट
जिसके सीने को मैंने कई बार अपने आँसुओं
से भिगोया था
खोज रही थी आने वाले हर चेहरे में उसका निश्छल चेहरा
भोली आँखें- जिनकी नमी वो ज़माने से छिपाता ही रहा
बस इसलिए कि कहीं मेरी आँखें फिर से बरसने
न लगें
दोनों का दर्द एक-सा है, कहीं दुनिया समझने न
लगे
झूठे-बनावटी सम्बन्धों के महलों की नींव न हिल जाए
तथाकथित सभ्यता-नैतिकता कहीं धूल में न मिल जाए
रिश्तों के महल बस बाहर से ही सुन्दर होते हैं दिखने में
उम्र गुज़री बेशकीमती सम्बन्धों-रिवाजों के
सामान रखने में
इन सामान की झाड़-पोंछ
में रखी नहीं कभी तनिक भी कमी
।
खो देते हैं अपनी बात ,कहने का हुनर,
आँखों की नमी
बन जाते हैं मात्र मशीन सम्बन्धों के
लिए नोट छापने वाली
एक ही छत तले रहते रोबोट; आकृति- मानव -सी दिखने वाली
नम आँखों वाला वो शख़्स क्या फिर से मन की खाई भरेगा
मेरे कंधे पर अपनी हथेली से हमदर्दी के हस्ताक्षर
करेगा
मुझे गले लगाकर; क्या सच्ची बात कहने का हुनर दोहराएगा
जो सभ्यता में नहीं; क्या वह उस सम्बन्ध की धूल हटाएगा
जो मिलकर नम होती हैं ,बरस सकेंगी वो
आँखें क्या दूर जाते हुए ?
या समेटे रखेंगी ज्वार-भाटा सभ्यता-नैतिकता का घुटते-घुटाते हुए ?
-0-(हे०न०ब०
गढ़वाल विश्वविद्यालय,श्रीनगर गढ़वाल उत्तराखंड)
-0-
2-तुम और मैं
मंजूषा मन
किसी
सोते -से फूट पड़े
और
बहने लगे
विचारों
में,
लहरों में,
तुम्हारी
झर -झर की आवाज़
बस
यही सुनाई देती है
तुमने
ऊँची- ऊँची चट्टानें काट
अपने
लिए राह बना ली...
तुम
अपने पानी से धोने लगे
पैरो
की खुरदुराहट,
बिवाइयों
पर ठंडा लेप बनकर
देने
लगे राहत,
तुम्हारी
शीतलता बुझाने लगी जलन
तवे
से तपते आँगन की...
तुम
अपने दोनों हाथों में पानी भर
सुध
-बुध खो चुके
थके-हारे
चेहरे पर छिड़कते हो
एक
सिहरन के बाद
हौले
से खुलतीं है आँखें
तुम
मुस्करा देते हो
वो
भी मुस्कुरा देती है....
वो
तपती धरती है
तुम
बादल फाड़कर बहे जल
या
मैं हूँ धरती
और
तुम बस तुम हो.....
-0-
3-यह
जीवन -
पुष्पा मेहरा
यह जीवन है मनहर उपवन, मधुर गंध का झोंका है।
भाँति-भाँति के फूल यहाँ हैँ, मलय पवन मनभावन है।।
एक ही वीणा है, पर
इसके सुर सभी निराले हैं।
ढल जाते जब ये रागों में, गीत मधुर बन जाते हैं ।।
मिल कर रहते, मिल
कर बजते, मिलकर चोटें सहते हैं ।
चोटों से कभी न ये घबराते, तान सुमधुर लेते हैं ।।
इस जीवन का संगीत मनोहर, हमसे रूठ न जाए।
जीवन की बजती वीणा के तार बिखर ना जाएँ ।।
वीणा के तारों पर नित, हम तान मिलाप की लेते रहें ।
सत भावों की स्वर लहरी में,डूब-डूब मन हर्षाएँ ।।
इन्द्रधनुष -सी जीवन-छवि है, बूँदों का मात्र छलावा है ।
धूप मोह है, सत्य
है छाया, ये जग मात्र भुलावा है ||
रंगों का ये कैनवस न्यारा, सुख-दुख ने चित्र उकेरा है ।।
ऊँची-नीची राहें हैँ,पर
सबका एक ठिकाना है ।।
पानी के बुलबुले-सा जीवन , जाने
कब मिट जाना है |
टकराती इन लहरों में ही, सबको पार उतरना है ||
मिल कर रह लें,मिल
कर जी लें,मिल कर ही चोटें सह लें |
चोटों से कभी न घबराएँ, हौंसलों को पस्त न होने दें ||
-0-
पुष्पा मेहरा,बी-201,सूरजमल विहार,दिल्ली-110082
फ़ोन: 011-22166598