पथ के साथी

Saturday, February 1, 2020

952-उसको दूँ मैं फूल

उसको  दूँ मैं फूल

गिरीश पंकज

जो भी मुझको शूल चुभोए,
उसको दूँ मैं फूल ।
बना रहे यह ऊपरवाले,
हरदम मेरा उसूल।

स्वाभिमान की सूखी रोटी,
है मुझको मुझको स्वीकार।
नकली वैभव अर्जित करने,
खोजूँ ना  दरबार ।
जीवन भर गुमनाम रहूँ पर,
बिके नहीं तो किरदार ।
दो पल जीऊँ खुद का सर्जित,
हो ऐसा हर बार।
राजमहल की चौखट पर थू!
तन पर लेपूँ  धूल ।
बना रहे यह ऊपरवाले,
हरदम मेरा उसूल।।

माना कि पग-पग पर यारो,
है साजिश का दौर।
बिना फरेबी धंधे के अब,
मिले कहीं ना ठौर।
प्रतिभा कम, पर घात अधिक है ,
हाँ, अब तो चहुँ ओर ।
जो है जितना नकली उतना,
बन जाता सिरमौर ।
लेकिन मेरी राह अलग हो,
हिले न मन की चूल।
जो भी मुझको शूल चुभोए,
उसको दूँ मैं फूल।

मेरा मन हो निर्मल जैसे,
बच्चे की मुस्कान ।
एक रहे मेरी नज़रों में,
अल्ला औ भगवान।
सच बोलूँ तो खाऊँ गाली,
पर न डिगे ईमान।
जीवन भर करते जाऊँ मैं,
पीड़ित-जन-कल्यान।
मुझे लगानी है अमराई,
बोएँ सभी बबूल।
बना रहे यह ऊपरवाले,
हरदम मेरा उसूल।
जो भी मुझको शूल चुभोए,
उसको दूँ मैं फूल।।

उनके जैसा नहीं बनूँ मैं,
करूँ मैं इस पर गौर।
बाँटूँ सबको खुशियाँ सारी,
दे दूँ अपने कौर।
नेक राह पर चलता जाऊँ,
हिले न मन की चूल।।
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