पथ के साथी

Thursday, July 23, 2015

होता जो समय





1- कृष्णा वर्मा
  होता जो समय रेज़गारी सा
डालती रहती गुल्लक में
बचे छुट्टे पैसों की तरह
कर लेती ख़र्च
अपनी खुशियों के लिए
मिटा लेती तृषा
अपनों को मिलने की
भिगो आती पलकें
दुलार की फुहारों से
सँवार आती माँ-बाप के
दस अधूरे काम
बँटा देती अम्मा का हाथ
घर की साफ-सफाई में
सँजो देती अनचाहा सामान
बदल आती
माँ की उदासी खुशियों में
हल्का कर आती
उसकी छाती को सालता दुख
जुड़ा देती पिता की ऐनक
की टूटी कमानी
गँठवा लाती उनकी
जूतियों के तले
कुछ और समय चलने को
सिमटवा आती उनके
अधूरे हिसाब-किताब
बटोर लाती उनके
हौसले और अनुभवों की
अनमोल पूँजी
ले जाती छोटी बहन को
बाज़ार घूमाने
दिला लाती उसकी मन पसंद
चूड़ियाँ रिबन लहँगा-चोली
खिला लाती कुल्फी चाट-पकौड़ी
झुला लाती घुमनिया झूले पे
लडिया कर अम्मा से
फिर दोहरा आती अपना बचपन
भर लाती माँ के चौके की
सुगंध नथूनों में
जी आती सुख के कुछ क्षण
माँ की स्नेह- छाया में
पुतवा आती खुशियाँ
मन की दीवारों पर
खिल उठता
मेरी वीरानियों में भी
मोहक वसंत
बचा पाती जो थोड़ा सा समय
सरपट भागती जिन्दगी से।
      -0-

2-गुंजन अग्रवाल
झाँका है दूर नभ से  प्रेमी का रूप बन के
निकला है आज चन्दा फिर देखो  ये बन ठनके 
भूलो गमों के नगमे जी भरके मुस्कुराओ
कर लो इबादतें तुम अरमाँ भी  पूरे मन के