डॉ ०सुधेश
मैं
सड़क के बीच का पौधा
किस
ने लगाया
किस
अभागे समय,
आने
वालों जाने वालों को
बस
देखता हूँ
जगत
भी आवागमन का सिलसिला
कारों तिपहिया वाहनों ट्रकों
से
निकलते ज़़हर में साँस लेते
मेरे पत्ते काले पड़ गए हैं
खिली दो चार कलियों ने
फूल
बनने से किया इंकार
फिर कहाँ फूलों की हँसी
कहाँ मादक गन्ध
मेरी सुरभि का कोष
लूटा सभ्यता की दौड़ ने
जैसे दिन दहाड़े लुट गया
सड़क का आदमी
सड़क के बीचों बीच ।
मैं अगर खिलता
फैले कार्बन को सोख
ऑक्सीजन लुटाता
पर्यावरण सौन्दर्य में
कुछ वृद्धि करता
पर मैं अभागा
सड़क के बीचोंबीच
केवल मूक दर्शक
बन गया हूँ
जैसे सड़क का आदमी ।
-0-