1-अहसास-
सिम्मी
भाटिया
किसको है
एहसास
कौन है वो
जिसको
दिखाऊँ
अपने जख्म
अंदर ही अंदर घुट
गमों
को छुपाऊँ
आने ना दूँ आँसू
हौले
से मुस्कुराऊँ
दम तोड़ रही
ख्वाहिशें
सांसे रुक ना जाएँ
हो कोई ऐसा
देख
जिसको
जी जाऊँ
स्पर्श मात्र से
ऐसे
खिल जाऊँ
मंत्र
मुग्ध हो जाऊँ
उसकी
मीठी बातों में
उलझी ऐसी
उसके ताने-बानो में
देख सके जो मेरा गम
कह सके जो है मेरे संग
कौन है वो
जिसको
दिखाऊँ
अपने जख्म
किसको है
एहसास।
-0-
2-जागो पलाश !
पुष्पा मेहरा
सोई धरती जागी जब
कुछ यूँ बोली –
बहुत सहा आघात शिशिर का
उठूँ, शबनम से मुख अपना धोकर
हिम से लड़ उसको विगलित कर
जीवन को रसमय कर दूँ।
आएँगे ऋतुराज,झाँकेंगीं किरण सखियाँ कोमल
अकेला नव विहान क्या –क्या कर लेगा !
मैं भी तो कुछ उसका साज शृंगार करूँ,
सोचा जब ऐसा उसने, जाग उठी चेतना उसमें
निश्चय अटल देख धरा का –
उगते सूरज ने उसके मन की बात सुनी
और धरती के रग –रग में ऊर्जा भर दी ,
हरसाई धरती- कम्पन,ठिठुरन, भय –लाज भुला
वह तो घूँघट – खोल हँसी
फैली हरियाली , रोमांचित हुई धरा
मंद –मदिर हवा गतिमान हुई ।
सूनेतरुवर में राग भरा ,
अमराई झूमी कोकिल कूका
ताल –तलैया , नदियाँ-झरने
मन की कहने- उमड़ चले ,
बीथिका सजी, हरित पाँवड़े बिछे
बौराए अलि, तितली-दल सारे
बसंतोत्सव मनाने निकल पड़े ।
फूलों ने मधु आसव ढाला
पी –पी आसव तितली – दल, भौंरे ख़ूब छके ,
फिर भौंरों को जाने क्या सूझा!
कमलों के कोमल आसन पा
वे रात बिताने वहाँ रुके ,
कमलों ने भी उनको मान दिया ।
धीरे से आ किरणें झाँकीं
कमलों के पट पर थाप पड़ी
फिर खोल अधर रक्तिम- कोमल
धीरे से कमल भी हरसाया ,
नद–धाराओं में अजब किलोल भरा
थिरक उठीं वे गोल –गोल, धीमे –धीमे ।
सोये पाखी भी जाग उठे
कलरव से गूँजा नीलम नभ
नाच उठे तितली –भौंरे, मानों
हो रहा हो रंगारंग कार्यक्रम ।
कोहरे का था न काम वहाँ ,
संत समाज का ही था मान वहाँ
रंगों का अद्भुत संगम था
पक्षियों का मधुर तराना था।
रोके न रुका मन– पाखी भी
उड़ चला देखकर खुला गगन
बागों में महुआ महक उठा
बौरों की कलगी से अमराई सजी
डालों पे कोकिल कूक उठा,
सेमल हँसकर यों बोला -
जागो पलाश! आये ऋतुराज ,
तुम भी आओ ! प्रिय कन्त आज
मिलकर देखेंगे वसंतोत्सव ,
यह दाह विरह का अनल सदृश
रह – रह पुकारता तुम्हें आज -
आओ प्रिय ! दोनों मिलकर गायेंगे बसंत राग।
Pushpa .mehra @gmail .com