पथ के साथी

Saturday, October 27, 2018

855


सार / ललित छन्द 
1- ज्योत्स्ना प्रदीप 
1
चंदा -सी काया हर घर मेंबाट चाँद की जोहे 
निशिकर  आया नभ में देखो ,नयनों को वो सोहे 
चाँद विभा का खुद प्रेमी हैंप्रेम न उसका दूजा l
युग बदला हो चाहे कितनानिशिकर सबने  पूजा !
2
छलनी लेकर हाथों में प्रिय ,तुमको नैन निहारे l
झरे ओज चंदा से प्यारातेरी आँखों वारे l
छलनी से पूजा है तुमकोछन- छन छने अँधेरे l
छलना ना जीवन में सजनासुख -दुख  तेरे -मेरे !
3
दीप -दीप से जग रौशन हैमन में पर अँधियारा
कोना-कोना मन का चमके , हो ऐसा उजियारा I
अँधियारी रातों को  मिलकर, भोर बना लो प्यारी
 नेह बना लो दिनकर -सा तुमहर मन हो सुखकारी
4
 कोमल मन तितली -सा  है राहें बड़ी कँटीली
जिस पर नेह लुटाया मन सेआँखें उस पल गीली
छल -बल से ना चलता जीवनजीत तो मन की होती
टहनी पर कितने काँटे होंकलियाँ पर ना रोतीं !
-0-
2-अनिता ललित
 1.
तुमसे ही जीवन में मेरे, पल-पल के उजियारे 
तुमसे ही माथे का सूरज, सजे माँग में तारे 
तुम्हीं आस, विश्वास तुम्हीं हो , तुमसे सपने सारे 
दुनिया सारी एक तरफ़ है, तुम प्राणों  से प्यारे ।। 
2.
चाँद गगन में आज खिला है, केसरिया- सा न्यारा
मेरे मन-आँगन में जैसे, साँवरिया है प्यारा
नयनों में है छवि रुपहली , तन-मन मैंने हारा
अर्पित मेरा जीवन प्रियवर , जनम-जनम है वारा
-0-
3-पूर्वा शर्मा
1
शरण तुम्हारी  आऊँ गुरुवर, आशीष सदा पाऊँ ।
राह दिखाते तुम ही पग-पग, और कहाँ मैं जाऊँ ।
 बिखरा देते ज्ञान की ज्योति, फिर उजियारा पाऊँ ।
 गुरु -शरण से सफल है  जीवन, गुरु महिमा ही गाऊँ ।।
2
मैं ना जानूँ कैसे भाँपे, यह मन ख़ुशबू तेरी ।
तेरे आने से पहले ही, महकीं बातें तेरी ।
तेरे क़दमों की आहट से, थमती धड़कन मेरी ।
 प्रेम-गीत   की धुन पर देखो, चलतीं साँसें मेरी ।।
-0-

Sunday, October 21, 2018

854


1-सीढ़ी
डॉ.सुषमा गुप्ता

सीख तो सकते थे हम भी
ज़माने का चलन 
पर ये हम से हो न‌ सका ।
अब लोग ज़मीं नहीं
इंसानों को बिछाते हैं
पैर जमाने के लिए 
और सीढ़ियों की कोई अहमियत नहीं 
बस चंद लोग चाहिए ,
गिराके खुद को ऊँचा उठाने के लिए ।

-0-
2-दरिया थे हम 
मंजूषा मन

दरिया थे हम
मीठे इतने
कि प्यास बुझाते,
निर्मल इतने कि
पाप धो जाते।

अनवरत बहे
कभी न थके
निर्बाध गति से
भागते रहे,
सागर की चाह में
मिलन की आस में
न सोचा कभी
परिणाम क्या होगा।

अपनी धुन में
दुर्गम राहें
सब बाधाएं
सहते रहे हँस के
और अंत में 
अपना अस्तित्व मिटा
जा ही मिले 
सागर के गले।

पर हाय!!!
स्वयं को मिटाया
क्या पाया?
ये क्या हाथ आया?
कि
खारा निकला सागर,
खाली रह गई
मन की गागर।
-0-

Tuesday, October 16, 2018

853-एक दीपक तुम जलाना


रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

काल की गहरी निशा है
दर्द भीगी हर दिशा है।
साथ तुम मेरा निभाना
नहीं पथ में छोड़ जाना।
छोड़ दे जब साथ दुनिया
कंठ  से मुझको लगाना
एक दीपक तुम जलाना।।

गहन है मन का अँधेरा
दूर मीलों है सवेरा।
कारवाँ  लूटा किसी ने
नफ़रतों ने प्यार घेरा ।
यहाँ अंधों के  नगर  में   
क्या इन्हें दर्पण दिखाना।
एक दीपक तुम जलाना।।

एक अकेली स्फुलिंग थी
दावानल बन वह फैली।
थी ऋचा -सी पूत धारा
ईर्ष्या-तपी,  हुई मैली।
कालरात्रि का  है पहरा
ज्योति बनकर पथ दिखाना।
एक दीपक तुम जलाना।।  
-०-

Saturday, October 13, 2018

852


कृष्णा वर्मा
1
कैसे कह दूँ कि
थक चुका हूँ ज़िंदगी से
न जाने
किस-किस का हौसला हूँ मैं।
2
चित्र :अक्षय अमेरिया 
तुम्हारे मुख मंडल पर
देख कर खुशी की तरंगें
पकड़ने लगती है रफ़्तार
मेरी जीवन कश्ती।
4
सीख भरे शब्द -बीजों से
उगाती है माँ
नन्हे हृदयों में
संस्कारों की खेती।
5
प्रेम को मिला था सुकून
जिस दिन बाँध ली थीं उसने
अपने पल्लू के छोर से
मेरे घर की चाबियाँ।
6
उम्मीद के पंछी को
लग जाएँगे हौसलों के पंख
जो मुस्कुराता रहा तुम्हारा स्पंदन
मेरी साँसों के सफ़र में।
7
उम्र भले जितनी चाहे बढ़ा दे
बस रखना ध्यान
बालक- सा रहे मन और
होने न पाए बूढ़ी कभी
मेरी मासूमियत की मुस्कान।
8
कलम की नोक
तपे शब्द लिखकर
पिघला देती है
पीड़ा का मौन।
9
मेघ निनादित
बरखा लहराई
यादों की कश्तियाँ
नैनों में तैर आईं।
10
मेघों की लाडली
बरसना सँभलके
सबके लिए तेरा आना
नहीं होता सुहाना
बहुतों की छत को तो
देना पड़ जाता है इम्तहान।
11
 दिनों-दिन उन्नति की
बढ़ती जाती रफ़्तार
दिखाए अजूबे
विकास की नैया में
बैठ लोग डूबे।
-0-

Thursday, October 11, 2018

851-मन -जीवन


1-मन -जीवन
भावना सक्सैना

देह और मन का संघर्ष है बरसों से
कि दोनों ही अकसर साथ नहीं होते
देह जीती है अपने वर और शाप
कभी समतल धरती पर तो कभी
उबड़-खाबड़ घने गहरे जंगल में
और मन बुनता है घोंसला आकाश में
वह जीता है अकसर कल में
सपनों में, पुरानी डायरियों के पन्नों में
और कभी बैठ जाता है
दहकते ज्वालामुखी के मुहाने पर
फूँकता है उसमें शीतलता
कभी शांत हो जाती है ज्वाला
तो कभी राख हो जाता है मन।
जहाँ देह होती है
अकसर मन नहीं होता
यह जानते  हुए कि
कहीं होकर भी न होना
समय को खो देना है
मन बैठा रहता है
ऊँचे वृक्ष की फुनगी पर
वृक्ष के फलों से सरोकार नहीं
वह देखता है दूर तलक
सपने सुनहरे नए कल के।
देह जब अर्जित कर रही होती है
रेखांकन : रमेश गौतम 
अपने अनुभव और ज़ख्म सुख के
मन गुनगुनाता है
गीत किसी और क्षण के
किंतु शापित है मन
युगो-युगों से फिर-फिर
वही दोहराता आया है
उम्र भर देह से  रहकर जुदा
देह के बाद न रह पाया है
लाता है नियति एक ही
चलती नहीं किसी की जिस पर
मन जो रहता नहीं देह का होकर
खत्म हो जाता है देह संग जलकर।
फिर भी मन असीम अनंत
नन्ही चिड़िया- सा सँभालो इसे
कि जब टूटता है मन
देह में प्राण रहें ,न रहें
रह जाता नहीं उसमें जीवन।
-०-
2 -दोहे-
रेनू कुमारी
1
उसके आनन की चमक,जैसे खिलती धूप।
काली अलकों की घटा,सदा निखारे  रूप।।
2
फूलों से सजती शिखा,नैनन कजरा धार।
चंचल है वह रूपसी,करती दिल पर वार।।
3
मलयज -सी खुशबू  भरे ,सुन्दरता के गीत।
सहनशीलता प्रेम हैं, उसके सच्चे मीत।।
4
हाथों में कंगन सजा,पायल की झनकार।
करती हैं शृंगार जब,उर में  उमड़े  प्यार।।
5
वसुधा का शृंगार है, हरियाली चहुँ ओर।
मोर पपीहा मस्त हैं, पंछी  करते शोर।।
-०-

Tuesday, October 9, 2018

850


1-क्षणिकाएँ
सत्या शर्मा 'कीर्ति '

1-ओस

तुम हो मेरे
अनन्त आकाश
और मैं धरा की
कोमल दूब- सी
बरसे तेरा प्यार
मुझपे यूँ
जैसे ओस बूँद हो
वसंत ऋतु- सी
2
ये मोती सी  ओस
चन्द क्षणों में
पूरा  करके जीवन
समा जाती
धरती की गोद में
देने किसी पौधे को
नया जीवन
3
हरी  घास पर सोई
वो नन्ही-सी ओस
सूरज से
शरमाके
छिप जाती
धरती की  गोद में
और करती है
इंतजार पुनः
रात के आने का
4.
हवाओं के संग
झूमती
दूब की  नोक  पर
बैठी वो नन्ही-सी ओस
पानी की एक
बूँद नहीं
वो तो
आकाश की आँख से गिरा
आँसू है
जो धरती  की  याद में हर
रात रोता है।
5..
चाँद ने भेजे थे
चाँदनी के हाथों
जो अनगिनत
सितारे वो
मासूम से
ओस में ढल
धरती की
प्यास बुझा गए ।
-०-
2-दोहे
डॉ. सुरंगमा यादव
1
सावन- भादों बन गए,  मेरे  प्यासे  नैन।
मन पापी प्यासा फिरे, तुम बिन है बेचैन।।
2
आज जाने शाम क्यों, लगती और उदास।
पल- छिन भी बीतें नहीं, साजन नाहीं पास।।
3
नारी अबला है नहीं, ज्ञान बुद्धि की खान।
रत्न बने तुलसी यहाँ, पा रत्ना से ज्ञान।।
4
आज मनुज  को देखकर, विधना भी हैरान।
पल-पल बदले रूप ये, मुश्किल है पहचान।।
5
पल में  आँखें फेर  लीं,   अपने थे जो खास।
जब तक सुख की छाँव थी, रहे तभी तक पास।।
6
जीर्ण पुरातन त्याग दो, मधु  ऋतु आयी द्वार।
नव पल्लव, नव सुमन से, प्रकृति  करे शृंगार
7
द्वेष घृणा का हो गया, आदी सकल समाज।
दया,  प्रेम बंदी खड़े, हाथ जोड़ कर आज।।
8
शब्दों  पर बंदिश लगी, सच पर कसी लगाम।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता,  देता हमें निजाम ।।