पथ के साथी

Monday, November 29, 2021

1161- दर्द का अनुवाद

 सुशीला शील राणा



रह-रह कर उठती है हूक

कहाँ रही कमी

कहाँ गए हम चूक

क्यों हैं दूर

दिल के टुकड़े दिल से

 

घण्टों उन्मन- सा बैठा

अकसर सोचता है मन

आँसू ही बोलते हैं

ज़बान तो बैठी है

दिन-महीने-साल से

चुप-चुप-सी

इस एक सवाल पर

बिल्कुल मौन

मूक

 

 

बेटों की दोस्ती

बनाएगी पुल

यही सोच

सरल-सा मन

हुआ प्रफुल्ल

किंतु मिले कुछ दाग़

कुछ बदगुमानियाँ

कुछ इल्ज़ामात

कुछ सजाएँ

उन ग़लतियों की

जो की ही नहीं

कहीं थीं ही नहीं

 

 

थीं तो बस बढ़ती उम्र की 

अकेलेपन की दुश्वारियाँ

नीम अँधेरों में

डरते-डराते सपनों की

डरावनी परछाइयाँ

 

मिला कोई अपना-सा

जागा सोया सपना- सा

चाहा था फ़क़त साथ

उठे बेग़ैरत सवालात

न जाने कहाँ से, क्यों

चले आए कुछ लांछन

ज़मीन-ज़ेवर-जायदाद

 

 

हमने चुना इक मोती

हमदर्द, जीवन-साथी

ख़ुशी-ख़ुशी सौंपी वारिसों को

उनकी ही थी जो विरासत

कार-कोठी-गहने

जो नहीं थे मेरे अपने

  

मेरे अंशी, मेरे वारिसो

हमारी दौलत ही नहीं

हम भी तुम्हारे हैं

सब कुछ सौंपकर तुम्हें

बस अपना बुढ़ापा सँवारा है

फिर क्यों ये परायापन

क्यों खींच दी हैं दूरियाँ

आँखों ही आँखों में

दिन-दिन घुटते आँसू

बेवज़ह की मज़बूरियाँ

 

तुम बिन

दिल का इक कोना

मन का आँगन सूना है

हमारी अधूरी ख़ुशियाँ

देखती हैं राह

कि कभी तो समझेगा 

हमारा ख़ून

हमारे दर्द

कभी तो महसूस करेगा

अवसाद की ओर 

धीमी मौत की ओर धकेलते

तन्हा दिन

डराती-सी लंबी अँधेरी रातें

  

सहेज लो अपने बुजुर्गों को

उसी तरह

जिस तरह

सहेज ली हैं तुमने

उनकी सब निशानियाँ

सब दौलतें

सब विरासतें ।

Saturday, November 27, 2021

1160

 अनिमा दास ( कटक, ओड़िशा)

सॉनेट

1-मैं एवं तुम

 

मैं यदि अदीप्त वर्तिका- सी तुम आलोकमय प्रेम प्रदीप


मैं तीर लाँघती ऊँची लहर यदि
, तुम निश्चल पर्वत अटल

मैं हूँ क्रंदनरत अधरों के अस्पष्ट शब्द का शून्य अंतरीप

हो तुम विस्तृत आकाशगंगा का प्रकाशमान दिव्य पटल

 

तुम हो अनुरक्त ज्योत्स्ना के स्निग्ध स्पर्श से झरते तुषार

सिक्त शैवाल  का भग्न मोह -सा अनासक्त प्राचीन  कवि

मैं शून्य विग्रह में अश्रुत  अंतर्नाद का  विक्षिप्त  आकार

हूँ मैं एकाकी हृदय में क्षुब्ध अरुणी की अर्ध अंकित छवि

 

मैं कालगर्भ में समाहित जीवंत अक्षरों की अपूर्ण कहानी

एक अभाषित कल्पना की हूँ असह्य करुण रिक्त कविता

तुम आद्य सृष्टि में अंतर्हित स्वर्गीय श्लोक के  चिर ध्यानी !

हो तुम जगत विदित नित्य भासित वह्निमय पूर्ण सविता

 

भ्रम मूर्ति को कर त्याग मैं आज, देवालय मुक्त हो जाऊँ

मैं ईश्वर नहीं हूँ, अहं का विश्व हूँ, मृतवत् मैं  भी सो जाऊँ ।

-0-

कविताएँ

1-स्वयंसिद्धा

 

मुझे उच्छृंखल न कहो...

तुम पुरुषत्व की नारीत्व के साथ 

तुलना भी न करो

 

जैसे तुम नहीं अनुभव करते

क्षत का क्षरण

वैसे मुझे भी नहीं होता अनुभूत

स्वेद सिक्त रण

 

तुम किसी भी रूप में

अहंकारी रहोगे; क्योंकि 

यह तुम्हारी है मौलिक प्रकृति 

किंतु मैं रहूँगी

स्वयंसिद्धा किसी भी स्थिति में

 

मैं नहीं होऊँगी निंदित

किन्हीं प्राकृतिक कारणों द्वारा

किंतु तुम्हारा पश्चाताप

शुष्क चक्षु विवर में

विवशता लिये

मेरा अवश्य करेगा

अन्वेषण...

यह मुझे आदिम युग से

है ज्ञात...

-0-

2-क्लांत मैं  

 

पृथ्वी की परिक्रमा करते हुए

श्रांत- क्लांत मयंक से 

यह प्रश्न न करो

कि आज इस सरोवर में 

क्यों उसका मुखमंडल 

दिखता मलिन 

क्यों अनेकों विचारों में है वह 

तल्लीन

 

कई वर्षों में एक बार 

सुगंधित पारिजात- सा 

जब हृदय- उपवन महक उठे 

तो यह प्रश्न न करो 

कि क्यों आज इस 

तपस्विनी देह पर है 

बासंती मधुरिमा 

क्यों विरही मन में खिल उठी 

पूर्णिमा

 

वारिदों में नित्य होते 

घनीभूत कई जल बिंदु

कई नद होते समर्पित 

उदधि की तरंगों में 

कई कलिकाएँ 

उत्सर्ग होतीं संसर्ग में

ये स्वयं ही आवेष्टित हैं 

अनंत प्रश्नों से

एवं उत्तरित हैं एकांत की शून्यता में।  

 

परंतु, नित्य दिवा-रश्मि में 

तपती स्वर्णिम बालुका को 

कर नहीं पाती यह प्रश्न 

कि क्यों दहनशील हैं 

तुम्हारी आकांक्षाएँ

क्यों करती प्रतीक्षा शीतलता की 

तुम्हारी विवक्षाएँ

-0-

animadas341@ gmail.com

-0-

Friday, November 26, 2021

1159-विलीन हो जाऊँ ऐसे

 रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' 

































विलीन हो जाऊँ ऐसे

बसे रहो सदा मेरी चेतना में
धरती में बीज की तरह
अम्बर में प्रणव की तरह
सिंधु में अग्नि की तरह
हृदय में सुधियों की तरह
कण्ठ में गीत की तरह
नेत्रों में  ज्योति की
परछाई में मीत की तरह
जन्म जन्मांतर तक
कि
जब भी मिलना हो तुमसे
आकाश-सी बाहें  फैलाकर मिलूँ
विलीन हो जाऊँ 
हर जन्म में
केवल तुम में
जैसा आत्मा मिल जाती है
परमात्मा में
(19 -11 -21)














Wednesday, November 24, 2021

1158-हरभगवान चावला की कविताएँ

21 नवम्बर- 2021

आज पत्रकार रामचंद्र छत्रपति का शहीदी दिवस है। मैंने अपनी एक कविता पुस्तक 'जहाँ कोई सरहद न हो' उन्हें समर्पित की है। आज इसी पुस्तक की पहली कविता 'मैं कवि हूँ' प्रस्तुत कर रहा हूँ। इस कविता की पृष्ठभूमि बताना ज़रूरी है। छत्रपति जी की शहादत 2002 में हुई। मेरे शहर के कवियों ने उन पर काफ़ी कविताएँ लिखीं। कुछ ऐसे भी थे, जो उनके हर शहादत दिवस पर आँसुओं में डूबी कविताएँ लिखते और उन्हें महान क्रांतिकारी बताते। शायद 2010 का साल था। हमें पता चला कि जिस धर्मगुरु पर छत्रपति की हत्या का आरोप है और मुकद्दमा चल रहा है (बाद में इसी केस में उसे सज़ा सुनाई गई), उसी के आश्रम में एक कवि सम्मेलन आयोजित किया जा रहा है और उसमें मेरे शहर के कई कवि शामिल हो रहे हैं। इनमें वे कवि भी शामिल थे, जो छत्रपति पर हर साल कविता लिखा करते थे। ये न केवल शामिल थे, बल्कि उनकी ओर से कवियों को आमन्त्रित भी कर रहे थे। ज़ाहिर है कि गुस्सा आता। आया। इन लोगों से सीधी मुठभेड़ हुई। स्वर्गीय पूरन मुद्गल जी हम लोगों का नेतृत्व कर रहे थे। इन कवियों के तर्क बड़े बचकाना थे। उनके अनुसार साहित्य को सब चीज़ों से निर्लिप्त होना चाहिए। क़िस्सा कोताह यह कि उनके लिए यह आयोजन गुनाह बेलज़्ज़त साबित हुआ, क्योंकि ठीक उसी दिन कोई और कांड हो गया और कवि सम्मेलन हुआ ही नहीं। जिस दिन मुझे इस संभावित आयोजन की जानकारी मिली थी, स्वाभाविक रूप से ग़ुस्सा आया था। उसी ग़ुस्से की उपज है यह कविता :

 

मैं कवि हूँ

 

मैं कवि हूँ

और जैसी कि कहावत है

मैं वहाँ भी पहुँच जाता हूं

जहाँ रवि नहीं पहुँचता

मैं पहुँच जाता हूँ उस गहन गुफ़ा में भी

जहाँ पहुँच सकने का सपना

धूप भी नहीं देखती

 

मैं कवि हूँ

मुझमें कुलबुलाती हैं मानवीय संवेदनाएँ

इन्सानियत के लिए लड़ते हुए

जब मारा जाता है कोई सच्चा इन्सान

तो मैं ज़ार-ज़ार रोता हूँ

लिखता हूँ उसके लिए शोक-गीत

अगले ही दिन हत्यारे के दरबार में

हत्यारे को ईश्वर बताकर

ऊँची आवाज़ में गाता हूं प्रशस्ति-गान

और तरसता हूँ कि हत्यारे के मुख से

मेरे लिए निकले आह! वाह!

 

मेरे भीतर

किनारे तोड़कर बहती है

संवेदना की नदी

हर समय इस्तेमाल के लिए

तत्पर है इस नदी का जल

फिर इस्तेमाल करने वाला

कोई हत्यारा भी हो तो क्या

 

मैं कवि हूँ

बढ़कर हूँ रवि से

रवि अँधेरे का सिर्फ़ हरण करता है

मैं तो अँधेरा उगलता भी हूँ

पर कभी-कभी उस अँधेरे में

अचानक दुस्वप्न सा कौंध जाता है सूरज

मुझे तब कुछ दिखाई नहीं देता

सिर्फ़ सुनाई देती है एक आवाज़-

'धिक्कार है कि तुम कवि हो।'

-0-

2-क्षणिकाएँ

हरभगवान चावला

1-चुप

 

चुप

निश्चल और निरंतर चुप

पथरा हुई चुप पर

तुम्हारा ख़याल

पानी की बूँद की मानिंद आता है

और टप से टपककर

पथरा चुप को

उदास कर जाता है।

2

तुम बिन

 

मैं चाक़ू से पहाड़ काटता रहा

अँजुरियों से समुद्र नापता रहा

हथेलियों से ठेलता रहा रेगिस्तान

कंधों पर ढोता रहा आसमान

यूँ बीते

ये दिन

तुम बिन।

-0-

Friday, November 19, 2021

1156

 1-हरभगवान चावला

 संताप

 

कभी घरों में

बहुत सारी खूँटियाँ रहती थीं

हम उन खूँटियों पर

कपड़ों के साथ टाँग देते थे

अपने संताप

दीवारों से खूँटियाँ ग़ायब हुईं

ख़ूबसूरत दिखने लगे दीवारों के चेहरे

संताप चुपचाप खूँटियों से उतरकर

हमारे तकियों के नीचे आ बसा।

-0-

2-राजा

1.

राजा बनने के बाद

मनुष्य, मनुष्य नहीं रहता

और न ही अपना बस चलते

किसी को मनुष्य बना रहने देता है।

2.

राजा नहीं चाहता

कि तुम्हारे हाथों में

सिवाय रेखाओं के कुछ भी हो।

3.

राजा किसी का सगा नहीं होता

कभी वह तुम्हें अपना मित्र कहे

तो डरो कि कुछ अघट न घटे।

4.

राजा के पास अदेखी तलवार होती है

वह चाहे तो इस तलवार से

तालाब का पानी भी चीर सकता है।

5

मैं हिरण

किसी दिन कोई बाघ

अपना आहार बना लेगा मुझे

जंगल के क़ानून ने

बाघों को

हिरणों की बोटी-बोटी नोच लेने का

अधिकार दिया है

पर किसी बाघ को

यह नसीहत देने का अधिकार

मैंने नहीं दिया है

कि मुझे कैसे कुलाँचें भरनी हैं

कि मुझे कौन सी घास चरनी है

कि मुझे किस पोखर का पानी पीना है

कि जब तक ज़िंदा हूँ, मुझे कैसे जीना है ।

-0-

3-देश अभी मरा नहीं

 

हज़ारों पेड़ थे 

वे थे,

सो हरियाली थी

छाया थी

बारिश थी

साफ़ हवा थी

और पक्षी थे अपने बच्चों के साथ

पेड़ों की एक ख़ुशहाल दुनिया थी

इस दुनिया में बहुत से लोग शामिल थे

बहुत से लोग इस दुनिया के बारे में कुछ नहीं जानते थे

उनके लिए सृष्टि की हर चीज़ उनके सुख के लिए ही थी 

पेड़ भी उनके लिए विलास और विकास की वस्तु थे

जिन्हें कभी भी मज़े के लिए क़ुरबान किया जा सकता था

बुलेट ट्रेन की शक्ल में राजधानी से

विलास की पीठ पर लदा विकास

बहुत तेज़ गति से दौड़ता हुआ आ रहा था

पेड़ों की क्या मज़ाल कि उसका रास्ता रोकें

पेड़ों को कटना ही था, सो कटने लगे

पेड़ जिनके लिए ज़िंदगी का पर्याय थे

वे लोग आए ज़िंदगी को बचाने

पेड़ कटते रहे, लोग पिटते रहे

अन्ततः दूर कर दी गईं

विकास के रास्ते की सारी बाधाएँ

कुछ युवा पेड़ों की लाशों पर 

सर पटकते हुए विलाप कर रहे हैं

कि जैसे कह रहे हों-

क्षमा कि हम रोक नहीं पाए

तुम्हारा क़त्ल, हम मर भी नहीं पाए तुम्हारे साथ

रोते हुए ये युवा ही तय करेंगे मरते हुए देश का भविष्य

अभी बस इतनी तसल्ली है कि देश अभी मरा नहीं ।

-0-

2-दिनेश चन्द्र पाण्डेय

 क्षणिकाएं

1.

फ्रंट से आया

बेटे का सामान

माँ नें हाथ फिरा

ऐसे दुलारा जैसे बेटा

खुद लौट आया हो.

2.

झुलसाती दोपहर

बनते भवन की छाया में

पल भर को

तसला परे रख

उसने सोचा...

कितना अच्छा होता

यदि संतुलित होते मौसम

गर्मियों में न अधिक गर्मी

सर्दियों में न अधिक सर्दी

बारिश भी नाप तोल कर आती.

3.

बह रही जीवन नदी से

भरी थी मैंने भी

 दो लोटे पानी से

  अपनी गागर

  रीती जा रही गागर

  बहती जा रही नदी.

4.

खिलने के पहले ही

तोड़ लिये गुच्छों में

सुर्ख पुष्प

धूप में सुखाया

फिर आग पर  

तब कहीं जाकर

 लौंग कली की

 फैली सुगंध

5.

वर्षा ख़त्म करने का

बादल भगाने का

सीधा सरल उपाय

वृक्ष काट दो

6.

पहाड़ पर घूमता बाघ

उसके हर दौरे के बाद

चरवाहे की भेड़

गिनती में कम हो जातीं

बढ़ता जाता बाघ के

मुँह पर लगा खून

7.

रात को गिरती बर्फ़

सो रहा सर्द पहाड़

एक घर से चीख उठी

कुछ बल्ब जले

स्त्री पुरुषों की भाग दौड़

सुगबुगाहट शुरू

फिर........

नवजात चीख़ से जागा पहाड़

8.

शाम को थका हुआ

 मैं घर आया.

 वो गोद में आकर

  जीभ से मेरी

 थकान उतारता गया.

9.

पहाड़ की नारी

गोरु-बाछ, चारा लकड़ी

कनस्तरों पानी, खाना

 फिर भी....

अधूरा पड़ा है काम

अस्ताचल की ओर

भागते रवि को तरेरती

आँखों आँखों में डांटती

10.

शाम के साथ

श्रमिक कंधे पर

कुठार सँभालते

घर को चले

पेड़ों ने भी खैर मनाई

सुबह होने तक

-0-