पथ के साथी

Wednesday, January 14, 2015

अपनी बात


पहला पाठ
रामेश्वर काम्बोज हिमांशु
सन् 1973 की बात है। मैं कलसिया ( सहारनपुर) के एक हाई स्कूल में शिक्षण कार्य के साथ अपनी एम० ए० की पढ़ाई भी कर रहा था ।जब भी कोई खाली कालांश होता , मैं अपने अध्ययन में जुट जाता । छोटा स्कूल , छोटी जगह । सबको सबके बारे में छोटी-मोटी जानकारी रहती । मेरे छात्र भी मेरी पढ़ाई के बारे में अवगत थे ।सभी छात्रों को कुछ  समझ में न आए ,तो कक्षा से बाहर भी पूछने की छूट थी । सबसे युवा शिक्षक होने के कारण  और हर समय छात्रों की समस्याओं का निवारण करने के कारण छात्रों को उल्लू गधा आदि विशेषण देने वाले अपने साथियों की आँखों  में खटकता था ।सीधा-सपाट बोलने की आदत भी इसका कारण थी। छात्रों में मेरी लोकप्रियता ने इस ईर्ष्या को और बढ़ावा दिया था । अपनी ईर्ष्या के कारण एक -दो साथी कुछ न कुछ खुराफ़ात करते रहते , जिसके कारण मैं आहत होता रहता था । इसी कारण स्कूल के खाली समय में मेरी पढ़ाई बाधित होने लगी । कई दिन तक ऐसा हुआ कि मैं पढ़ाई न करके चुपचाप बैठा रहता । मुझे नहीं पता था कि मेरे छात्रों की नज़र मेरी इस उदासीनता पर है । स्कूल की छुट्टी के समय कुछ छात्र-छात्राएँ मुझे नमस्कार करने के लिए आते और कुछ पाँव छूकर (मेरे मना करने पर भी) जाते ।कक्षा आठ की  अनिता माहेश्वरी भी उनमें से एक थी । वह मेरा बहुत सम्मान करती थी । एक दिन नमस्कार करने के बाद वह रुक गई । आसपास किसी को न देखकर बोली-गुरु जी, आपसे एक बात कहना चाहती हूँ । आप मेरी बात का बुरा नहीं मानेंगे।
कहिए , मैं बुरा नहीं मानूँगा।
मैं कई दिन से देख रही हूँ कि आप खाली पीरियड में चुपचाप बैठे रहते हैं ।अपनी एम० ए०की तैयारी नहीं करते हैं। मैं यह भी जानती हूँ कि हमारे कुछ शिक्षक आपके खिलाफ़ दुष्प्रचार करते रहते हैं। शायद इसीलिए आपका मन पढ़ाई में नहीं लगता।
हाँ , तुम्हारी यह बात सही है।
आपके इस तरह पढ़ाई छोड़ देने से किसका नुकसान है? सिर्फ़ आपका ! आप नर हो न निराश करो मन को कविता  हमको पढ़ाते रहे हैं और सबकी हिम्मत बढ़ाते रहे हैं ; लेकिन आप खुद क्या कर रहे हैं- कहकर उसने सिर झुका लिया ।
मेरा चेहरा तमतमा गया । किसी विद्यार्थी की इतनी हिम्मत ! मैंने अपने आवेश को सँभाला  और अनिता से कहा-आज के बाद तुम मुझे खाली समय में चुपचाप बैठा नहीं देखोगी।
उसने हाथ जोड़े –‘मेरी बात बुरी लगी हो तो माफ़ कर देंगे! कहकर वह चली गई ।
अप्रैल का महीना था । स्कूल की छुट्टी 12 बजे हो जाती थी। मैं उसके बाद घर न जाकर पढ़ाई में जुट जाता । नोट्स बनाने शुरू कर दिए । छह  बजे शाम के बाद घर  की तरफ़ चल देता । छह किलोमीटर का रास्ता कुछ न कुछ पढ़ते हुए पूरा करता । अब तक जो मेरे नम्बर आए थे वे कम थे । प्रथम श्रेणी लाने के लिए  इस सेमेस्टर में 70 प्रतिशत अंक लाने ज़रूरी थे।  कॉलिज में पढ़ने वाले मेरे साथियों का कहना था कि प्राइवेट में क्या नियमित छात्रों की भी हिन्दी में प्रथम श्रेणी नहीं मिलती । मैंने साथियों की इस अवधारणा को झटक दिया ।मेरे ऊपर भूत सवार था अपनी पूरी शक्ति से मेहनत करने का। मई में परीक्षाएँ हुईं । इस सत्र में जयशंकर प्रसाद  तथा प्राकृत-अपभ्रंश भाषाएँ मेरे विशिष्ट विषय थे । सत्तर प्रतिशत अंक आ गए और मुझे प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में प्रथम श्रेणी मिल गई। इस श्रेणी के कारण , बी ०एड० में प्राथमिकता में पहला नम्बर होने के कारण प्रवेश मिला ।केन्द्रीय विद्यालय में शिक्षक और प्राचार्य के रूप में इस उपलब्धि ने मेरा मार्ग सरल किया ।
अनिता माहेश्वरी के इस योगदान को मेरा रोमरोम  आज भी महसूस करता है । मैं उस गुरु के दिए इस पहले  पाठ को कभी नहीं भूला । जब भी कोई संकट आया , मेरी इस छात्रा का वह पाठ-नर हो न निराश करो मन को मुझे चट्टान जैसे मज़बूती दे गया । ऐसे गुरु को मेरा कोटिश: नमन !
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