पथ के साथी

Thursday, September 24, 2015

जिस घर पलती बेटियाँ



दोहे-शशि पाधा
1

आपस के व्यवहार में, जब झलके अपमान

शब्द-शब्द मन में चुभें, भाला-तीर समान।

2

जिसने माथे खींच दी, दुख की अनमिट रेख

क्यों न पहले लिखा वहीं, सहने का आलेख ।

3

दाता इस संसार में, देखी उलटी रीत

निर्धन से बचते फिरें, बनें धनी के मीत ।

4

जिस घर पलती बेटियाँ, बढ़ता सुख संसार

जननी जो बेटे जने, छूटा क्यों घर-द्वार?

5

सन्तानें जब खेलतीं, बँटवारे के दाँव

बूढ़ा बरगद सोचता, किसको बाँटूँ छाँव ।

6

किस्मत का है वो धनी, जिसे मिला घर -गाँव

बंजारे से हम रहे, टिके कहीं ना पाँव ।

7

देखी इस संसार में, बड़ी अनूठी बात

बिन धन ही राजा बने, लाठी जिनके हाथ ।

8

इक पागल की प्रीत से, टूटा पर्वत मान

संकल्पों से हारती, ड़ी-बड़ी चट्टान ।

8

जिस घर में बसते सदा, आदर प्रेम  सुगंध

पल-पल भोगें पीढ़ियाँ, सुख, समता निर्बंध।

-0-
कविता-कृष्णा वर्मा


वक्त का ये परिंदा ना लौटा कभी
मैं था पागल जो इसको बुलाता रहा
चार पैसे कमाने मैं आया यहाँ
शहर मेरा मुझे याद आता रहा
लौटता था मैं जब पाठशाला से घर
अपने हाथों से खाना खिलाती थी माँ
रात में अपनी ममता के आँचल तले
थपकियाँ देके मुझको सुलाती थी माँ

सबकी आँखों में आँसू छलक आए थे
जब रवाना हुआ था मैं परदेस को
कुछ ने माँगी दुआएं कि मैं खुश रहूँ
कुछ ने मंदिर में जाकर जलाए दिए
एक दिन मैं बनूँगा बड़ा आदमी
ये अहसास उन्हें गुदगुदाता रहा
सोचके दिल में इक टीस उठती रही
रात भर दर्द मुझको रुलाता रहा

माँ लिखती थी हर बार खत में मुझे
लौट आ मेरे बेटे तुझे है कसम
तू गया जब से परदेस बेचैन हूँ
नींद आती नहीं भूख लगती है कम
आस देहरी पे बैठी तके रास्ता
आएगा दूँगी ना जा मेरा वास्ता
कितना चाहा ना रोऊँ मगर क्या करूँ
खत मेरी माँ का मुझको रुलाता रहा

कितना चाहा कि लौटूँ तेरी छाँव में
लोभ पाँव जकड़ लगता था चीखने
तार तेरे गुज़रने का जिस पल मिला
पायदान उम्र का माँ लगा दीखने
उठते साया तेरा पल में मुफलिस हुआ
उम्र भर रंज मुझको सताता रहा
चार पैसे कमाने मैं आया यहाँ
शहर मेरा मुझे याद आता रहा ।
-0-