पथ के साथी

Saturday, July 18, 2015

वो कोठरी



 [ डॉ जेन्नी शबनम की कविताएँ अपनी अलग पहचान रखती हैं। ये लिखी हुई कविताएँ नहीं; बल्कि भावावेग में  सहजता से उमड़ी भाव सम्पदा है। पिछले 5-6 वर्षों  से  इनकी गम्भीर एवं भावपूर्ण कविताएँ  मुझे प्रभावित करती रही हैं , नए अन्दाज़ के कारण , विषय की नवीनता के कारण । प्रसिद्धि के शोरगुल से बहुत दूर। इनसे बिना पूछे मैं यह कविता आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ। इनको और अधिक पढ़ना हो तो इनके  यहाँ दिए गए ब्लॉग ' लम्हों का सफ़र'  पर ज़रूर जाएँ।


प्रस्तुति -रामेश्वर काम्बोज ]

डॉ जेन्नी शबनम

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वो कोठरी

मेरे नाम की

जहाँ रहती थी मैं

सिर्फ़ मैं

मेरे अपने पूरे संसार के साथ

इस संसार को छूने की छूट

या इस्तेमाल की इजाज़त

किसी को नही थी

यहाँ रहती थी मैं

सिर्फ़ मैं

ताखे पर क़रीने से रखा एक टेपरिकार्डर

अनगिनत पुस्तकें और सैकड़ों कैसेट

जिस पर अंकित मेरा नाम

ट्रिन-ट्रिन अलार्म वाली घड़ी

खादी के खोल वाली रज़ाई

सफ़ेद मच्छरदानी

सिरहाने पर टॉर्च

लालटेन और सलाई

जाने कब कौन मेरे काम आ जाए

लकड़ी का एक पलंग और टेबल

जो कभी मेरे पापा के साथ रहता था

ताखे में ज़ीरो पावर का लाल हरा बल्ब

जिसकी रोशनी में मेरे पापा

कैमरे का रील साफ़ कर

अपना शौक़ पूरा करते थे

अब वह लाल हरी बत्ती सारी रात

मेरी निगहबानी करती थी

दीवार वाली एक आलमारी

जिसमें कभी पापा की किताबें

आराम करती थी

बाद में मेरी चीज़ों को सुरक्षित रखती थी

लोहे का दो रैक

जो दीवारों पर टँगे-टँगे

पापा की किताबों को हटते

और मेरे सामानों को भरते हुए देखा था

लोहे का एक बक्सा

जो मेरी माँ के विवाह की निशानी है

मेरे अनमोल ख़ज़ाने से भरा

टेबल बन खड़ा था

वह छोटी-सी कोठरी धीरे-धीरे

पापा के नाम से मेरे नाम चढ़ गई

मैं पराई हुई मगर

वह कोठरी मेरे नाम से रह गई

अब भी वो कोठरी

मुझे सपनों मे बुलाती है

जहाँ मेरी जिन्दगी की निशानी है

जो मेरी थी कभी

पापा की कोठरी

अब नहीं मेरे नाम की

वो कोठरी !

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- जेन्नी शबनम (18. 7. 2015)