पथ के साथी

Friday, June 13, 2025

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तन्हाई -  कृष्णा वर्मा 

 

तन्हाई से घिरा पूछता हूँ स्वयं से

क्यों हैं इतनी तन्हाई

जिसे आए दिन पीता हूँ 

प्रतिदिन जीता हूँ 

टूटन समेटकर  

सपनों की परेशानियाँ धोकर 

अपने हिस्से का रोकर 

उजले कपड़े पहनकर 

चेहरे पर मुस्कान ओढ़कर

वजूद के दाएँ-बाएँ देखकर 

पूछता हूँ आइने से

बता तो क्या आज कोई ऐसी नज़र पड़ेगी 

जो बन जाएगी मेरे अधूरेपन का तोड़

खिलाएगी जीवन में फूल

कोई ऐसी राह कोई जीने की उम्मीद

कोई लुहारिन जो काट देगी 

तन्हायों की साँकल

आईना बोला- शायद पक्का नहीं कह सकता 

पर कोशिश करके देख लो 

अपने सपनों और स्वप्नफल को 

आशाओं के बस्ते में रखकर 

चाहतों के जुगनू आँखों में सजाकर 

टाँगकर काँधे पर बस्ता 

लगाता हूँ घर की तन्हाइयों पर ताला 

बाहर निकलकर 

मेरी सुनसान दुनिया से अंजान 

मेरे मिलने वाले जानकारों से मिलता हूँ

अपनी सूनी आँखें चमकार 

अकेलेपन की पीड़ा दबाकर 

सन्नाटों को छुपाकर  

होठों पर मुस्कान सजाकर 

दोहराता हूँ प्रतिदिन यही क्रिया

लाख ना चाहूँ फिर भी हो जाता हूँ रोज़ 

इस दुनिया की भीड़ का एक हिस्सा।   

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