पथ के साथी

Monday, March 19, 2018

808-शुभ जन्मदिवस !!


 सुनीता काम्बोज 
जन्म-दिवस ये आपका , जैसे हो त्योहार 
माँगू खुशियाँ आपकीरब से बारम्बार ।।
दिल है गंगा नीर -सापावन मन के भाव 
बन जाते  पतवार होखेते सबकी नाव ।।
उड़ने को अम्बर दियाभरी परों में जान ।
ऐसा लगता हो गया, हर रस्ता आसान ।।
आप सभी की राह सेचुनते आए शूल ।         
गुरुवर अर्पित आपकोये भावों के फूल ।।
आप सभी की राह सेचुनते आए शूल ।
सदा बुराई से लड़ेझुकना नहीं कबूल .........

हिमांशु जी के प्रति -
ज्योत्स्ना प्रदीप

पूर्ण चंद्र  सा जिसका हृदय
पवित्र नयनों  में स्नेह -संचय
हिम के जैसा शीतल -शीतल
विरल प्रीत का ले गंगाजल
सुकर्मों का रामेश्वरम-सेतु
नमित हो मन ऐसे गुरु हेतु ..................

आदरणीय  भैया जी को जन्म-दिवस के अवसर पर सब प्रकार से सुखी , स्वस्थ , यशस्वी , दीर्घायु जीवन की हार्दिक शुभकामनाएँ !!

  -सुनीता काम्बोज , ज्योत्स्ना प्रदीप एवं सभी बहनें




                             




807



कविताएँ
प्रियंका गुप्ता

कविता- 1

प्रियंका गुप्ता
शोर था वहाँ
बेइंतिहा शोर
और मेरे अंदर थी
खामोशी
किसी सुनसान रास्ते सी
या फिर अभी अभी जला के गए
एक शव की चिटकती चिता वाले
मरघट सी खामोशी
सुनसान रास्ते पर तो फिर भी
कभी कभी गुज़र सकती है
कोई गाड़ी
भन्न से दनदनाती हुई
खुद अंदर से डरी हुई
पर निडर बन  निकल पड़ने को आतुर;
पर मरघट का क्या?
वहाँ तो  अपनी मर्ज़ी से 
कोई नहीं आता न
उसी तरह
जैसे अब
मेरे भीतर
यादों ने भी आना छोड़ दिया है ।
--
 कविता- 2

फ़र्क पड़ता है...
क्या फ़र्क पड़ता है
कि मैंने
तुम्हें कितना प्यार किया;

क्या फ़र्क पड़ता है
कि तुम्हारी एक आवाज़ पर
मैं कितनी दूर से भागती आई;

क्या फ़र्क पड़ता है
कि तुम्हारी एक मुस्कुराहट पर
मैंने अपने कितने दर्द वारे;

क्या फ़र्क पड़ता है
कि तुम में रब को नहीं
मैंने खुद को देखा;

सच तो ये है 
कि अब किसी बात से
कोई फ़र्क नहीं पड़ता;
क्योंकि
तुमको तो जाना ही था
यूँ ही हाथ छुड़ाकर,
ग़लत कहा,
हाथ छोड़कर
पर सुनो,
जाने से पहले
अपने वजूद से झाड़ पोंछ देना मुझे
फिर ग़लत-
अपने वजूद से झाड़ पोंछ दूँगी तुम्हें;
क्योंकि
तुम्हें पड़े न पड़े
मुझे बहुत फ़र्क पड़ता है
तुम्हारा कुछ भी रहा मुझमें
तो खुल के साँस कैसे आएगी मुझे
आज़ादी की...।
-0-
कविता-3

सुनो,
एक बार फिर तुम्हारे पास
कुछ रख के भूल गई हूँ
यादों की कुछ कतरनें,
थोड़ी -सी धूप
और
गुच्छा भर बादल;
मिले तो बताना
सीलन से कतरनें गली तो नहीं न?
और धूप 
अब भी उसी लिफ़ाफे में रखी होगी
जिस पर तुम्हारा पता लिख आई थी मैं
बादल का गुच्छा
बड़ा आवारा- सा था,
जाने फिर से
बरस न गया हो कहीं
बड़ी भुलक्कड़ हो गई हूँ मैं भी
देखो न,
तुमसे हाथ छुड़ाकर भी
जाने कहाँ खोई हुई हूँ 
शायद एक बार फिर
तुम्हारे पास
खुद को भूल आई हूँ मैं...।
-0-
कविता-4

कल रात
एक नज़्म टूटी थी कहीं
और जा गिरी ओस पर
सबने सोचा
बारिश हुई रात भर
और भीगी हैं पत्तियाँ;
नर्म घास की चादर पर
सिलवटें थी बहुत
जैसे 
दर्द से कराहते हुए
किसी ने बदली हों करवटें
हाँ,
एक नज़्म जो टूटी थी
बिखरी थी वहीं
देखना तो,
उसे बुहार कर
कहीं फेंक न दे कोई
बस टूटी भर है वो
पर ज़िंदा है अभी...।