क्षणिकाएँ- प्रो. विनीत मोहन औदिच्य
1
ईश्वरीय सत्ता के
समानांतर
खुली हुईं
धर्म के ठेकेदारों की दुकानें
बेचती हैं आस्था
2
सहलाती हैं पीठ
एक दूसरे के विरुद्ध करके
विष- वमन
विरोधाभासी
खुरदरी जिह्वाएँ
3
खा जाने को आतुर
घूरती कई जोड़ी आँखें
करती है सर्वत्र पीछा
असहज नारी देह का
4
बस्ते के बोझ तले
कराहते शैशव का
मौन प्रतिकार
अनसुना कर देती हैं
महत्वाकांक्षाएँ
5
बनकर मठाधीश
साहित्य का
निरंतर करते हैं
चीरहरण
अंधों में काने राजा
6
मानव के हाथों
होकर पूर्णतः अपमानित
मचा रही चहुँ ओर
हाहाकार
निर्वस्त्र रोदन करती प्रकृति
7
स्वार्थ की बलिवेदी
पर नित्य होते होम
जीवन मूल्यों को
टुकुर- टुकुर
ताकती हैं मौन
मानवीय संवेदनाएँ
8
निर्ममता से लील
रहीं है प्रतिदिन
दिशाहीन यौवन को
महत्त्वाकांक्षाओं की
प्रज्वलित भट्टियाँ
9
ओढ़ी हुई
शालीनता के मुखौटों से
मत होना तनिक भी भ्रमित
नहीं होता इनके
अंतस् से
मलिनता का निस्तार
10
विकलांग श्रद्धा
अंध भक्ति
व्यक्ति पूजा से ग्रस्त
चरण वंदना हेतु उद्यत
भीड़
रौंदती जा रही है
अनवरत
आत्मा जनतंत्र की
11
कृशकाय कंपित गात
भौतिक विलासिता में डूबी
संतति के समक्ष
विवश हो देखता
दम तोड़ते
अपने सपनों को
12
सहस्राधिक
बिच्छुओं के डंक- सा
दंश दे जाती हैं
परछाइयों- सी
गहराती अतीत की
स्मृतियाँ
13
नेहासक्ति का
पाकर खाद - पानी
फूटने लगे हैं
प्रेमांकुर
युगल हृदय की
अमराइयों में
14
नीले अंबर पर
लहराते कुंतलों -सी
उमड़ती मेघावरि
करे आँख- मिचौली
सजन भुवन भास्कर से
15
धर्म की तुला में संरक्षित
नित्य प्रति दिन
ऑक्टोपस- सा
चारों ओर विस्तार पाता
जनसंख्या का घनत्व
मुँह चिढ़ा रहा है
विकास को
16
थरथराते अधरों पर
चुंबनों से कोमल स्पर्श की
मादकता जगाती
प्रथम अनुभूति से
कामनातुर
अर्ध उन्मीलित
रतनारे नयन
बोल उठते प्रेम की
मौन भाषा
17
अव्यक्त से व्यक्त होकर
पुनः अव्यक्त होने की
प्रक्रिया में जीव
विस्मृत कर
नश्वर जग यथार्थ
उलझता
मायावी प्रलोभनों की
शृंखलाओं में
18
कभी छूता है शिखर
कभी टूटता है दर्प
कदाचित् फिर भी
आने लगा है आनंद
मनुष्य को
साँप सीढ़ी के
खेल में
19
प्राची से उगकर
प्रतीची के आंचल में
छुपता रवि
नित्य देता मानो
सरल संदेश
उत्थान से पतन का
-0-
प्रो. विनीत मोहन औदिच्य
कवि, सोनेटियर एवं ग़ज़लकार
सागर, मध्य प्रदेश