पथ के साथी

Thursday, May 24, 2018

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1-कृष्णा वर्मा

आओ फिर मुसकाएँ

बहुत हो गई रूठा-रूठी
आओ चलो मुसकाएँ
चलो कहीं नदिया के तीरे
पांव भिगो बतियाएँ
हाथों से लहरों को ठेलें
काग़जी नाव तिराएँ
पानी के दर्पण में झाँक के
चेहरे पढ़ें पढ़ाएँ।
ज़िंदगी की दौड़ में
जो पीछे छूटे ख़्वाब
ढूँढ के लाए उन्हें फिर
हाथ में ले हाथ
अनकही बातें पड़ीं जो
मन के कोने में
बांट के आपस में
चलो मन को सरसाएँ।
छल रही है उम्र पल-पल
रोक लें कैसे इसे
क्यों ना अब हम संग
चलने के बढ़ाएँ सिलसिले
ज़िंदगी की धूप में
जो चाहते कुम्हलाई थीं
क्यों ना सींच प्यार से
फिर से तरुणाई भरें।
पूर्णिमा की रात है
चंद्रिका पुरज़ोर है
शबनमी कतरों में भीग
मन को मन से जोड़ लें
चलो भरें ख़लाओं को और
मन की छीजन को मिटाएँ
चांदनी के घूँट पीके
ज़िंदगी को जगमगाएँ।
-0-
2-स्वप्न उनके ही फलें

काल के संग जो चले
आज उसको ही फले
रोशनी न हो सकेगी
वर्तिका जो न जले।

जो निगल लेते हैं संकट
धैर्य को धारण किए
लड़खड़ाएँ  लाख लेकिन
वो कभी गिरते नहीं।

बूँद माथे पर टपकती है
उसी के स्वेद की
जिसने पहरों की मशक़्क़त
चिलचिलाती धूप में।

पार करना आ गया
कठिन राहों को जिसे
मंज़िलें बाहें पसारे
मुंतज़िर उसको मिलें।

शूल चुभने की ख़लिश को
जो नहीं करते बयाँ
चरण उनके चूमता है
एक दिन झुककर जहाँ।

-0-
2 -पूनम सैनी
1-समर-

जब-जब होता है आगाज़
उस स्वप्न, नहीं,
दु:स्वप्न  का।
सिहर उठता है,
मेरा हर रोम।
काँप जाती है,
साँसों की रफ़्तार भी।
कैद -सी हो जाती है जुबाँ
सिले होठों के पीछे।
क्रूर आँखों से लड़ती ये
हैरान परेशान नज़रें।
उसके बढ़ते कदमों की आहट से,
खामोश होती धड़कन,
महसूस होती है अब भी।
बस चीखता है दर्द दिल में,
लिए उलाहने अनेक।
प्राणहीन-सी कर देने वाली,
वो काली परछाई,
फिर वो एक बर्बर मुस्कान,
जैसे कर जाती है जड़,
मेरी स्तब्धता को।
फिर होती है शुरूआत,
एक नए युद्ध की।
चिर, सर्वव्यापी समर,
खुद-से-खुद तक।
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