पथ के साथी

Wednesday, September 22, 2021

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 1-डॉ. सुरंगमा यादव
ख़्वाब अब कोई मचलता क्यों नहीं
मुश्किलों का हल निकलता क्यों नहीं
कोशिशों की रोशनी तो है मगर
ये अँधेरा फिर भी ढलता क्यों नहीं
मन की गलियों में बिखेरे खुशबुएँ
फूल ऐसा कोई खिलता क्यों नहीं
ठोंकता है जो अमीरी को सलाम
मुफ़लिसी पर वो पिघलता क्यों नहीं
बात बन जाए तो वाह-वाह हर  तरफ
सर कोई लेता विफलता क्यों नहीं
उम्र ढलती जा रही है हर घड़ी
ख्वाहिशों का जोर ढलता क्यों नहीं।
-0-
2-तुम्हारे जाने के बाद
अंजू खरबंदा
 
प्यार क्या होता है
तुम्हारे जाने के बाद जाना !
जब तक तुम थीं
मैंने तुम्हें कहाँ पहचाना!
सुबह से शाम तक
रसोई और संयुक्त परिवार की
जिम्मेदारियों के बीच
उलझी तुम !
बच्चों की परवरिश
सास -ससुर की सेवा- टहल
आए- गए की आवभगत
दिन भर की भाग दौड़
और रात होते- होते
टूटी- बिखरी -सी तुम !
किसी शादी ब्याह के अवसर पर ही
तुम्हें अवसर मिलता सजने संवरने का
उस दिन
कितना खिला होता रूप तुम्हारा!
तुम्हारी ओर तकती मेरी नरों को देख
तुम मुस्कुराकर मेरी ओर देखती
और मैं अचकचाकर नर घुमा लेता!
काश!
कह दिया होता तुम्हें निःसंकोच -
आज तुम परी- सी लग रही हो
खिल रहा है ये रंग तुम पर!
तुम्हारा गजरा महक- महककर
मुझे खींचता अपनी ओर
और मैं पति होने का दंभ भरता
तुम्हें देखकर भी अनदेखा कर देता
तुम्हारे गालों पर ढुलके आँसू भी
कोई मायने न रखते मेरे लि!
अब
तुम्हारे जाने के बाद
बन्द सन्दूक में क़ै
तुम्हारी रेशमी साड़ी
खोल कर देखता हूँ अक्सर
दिखता है तुम्हारा अक्स इसमें !
तुम्हारी कुछ बिन्दियाँ भी
सँभाल रखी हैं
और मुरझाए गजरों के कुछ फूल भी!
तुम्हारे जाने के बाद जाना
प्यार... क्या होता है!
तुम्हारे जाने के बाद जाना
कि मैं तुमसे कितना प्यार करता था
तुम्हारे जाने के बाद जाना
कि जीते जी तुम्हारी कद्र न करके
मैं अपने लिये काँटे बो रहा हूँ
तुम्हारे जाने के बाद जाना
कि तुम्हारे बिना जीना
कितना मुश्किल है मेरे लि!
-0-
3-बीज कौन-सा रोपा था?
रश्मि विभा त्रिपाठी
 
प्रीति ही न अँखुआई
रिश्ते होते गए
बोनसाई
न खुश्बू गुलाब-सी
न पीपल—सी
जड़ जमाई
आओ!
फिर से
मन-माटी में
प्रिय हम नेह बोएँ
मिल कर इसे सँजोएँ
बचाएँ स्वार्थ की धूप से
यह प्यारा पौधा
अपना रंग-रूप न खोए
खुद में समोए
वट-वृक्ष—सा आकार
सदाबहार
सुख-साफल्य सार
हरसिंगार
होंगे
शुचि भाव से बाँधे
वे मान-मनौती-धागे
हर अनिष्ट को टाल,
जो हमें रहेंगे सर्वदा साधे!
-0-
4- निधि भार्गव मानवी
नूँ  तितली  बनूँ बदली हवा सँग उड़ती जाऊँ  मैं
जलाकर  दीप  राहों  में  शमा  सी  जगमगाऊँ  मैं
हराएँगी  भला  कैसे  मों  की  आँधियाँ   मुझको
भरा  है  हौसलों  में  दम  कभी  न  डगमगाऊँ   मैं
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