1-गिरीश पंकज
मुक्तक
1
मुझे दासी न समझो तोतले तुम बोल मत समझो।
मैं हूँ धरती मुझे कमजोर या बेमोल मत समझो।
जहाँ होती है नित पूजा हमारी, देवता रमते।
मैं हूँ औरत मुझे तुम देह का भूगोल मत समझो।
2
मैं हूँ औरत जो सृष्टि को बनाने में सहायक है।
इसे मैं नित सँवारूँ इसलिए दिखती ये लायक है।
मुझे मैली न करना मैं किसी मंदिर की मूरत
हूँ,
जिसे वरदान दे दूँ एक दिन बनता वो नायक है।
3
अगर मैं ना रहूँ तो सृष्टि का शृंगार कैसे हो।
हृदय धड़के न लोगों का कहो फिर प्यार कैसे
हो।
मुझे जो मारते नादान हैं, बुद्धि नहीं उनमें।
भला औरत बिना संसार का विस्तार कैसे हो।
4
जो हर औरत में अपनी माँ-बहिन का ध्यान रक्खेगा।
वही इंसान स्त्री का सदा सम्मान रक्खेगा।
जो हैं गुंडे-मवाली मातृ-शक्ति खाक समझेंगे,
मगर है नेक इंसाँ तो हमेशा ज्ञान रक्खेगा।
5
वो है सुंदर , बड़ी कोमल, लगे
देवी उतर आई।
बिना उसके कभी क्या ज़िन्दगी में बात बन पाई।
उसे कुचलो, न मसलो, है कली खुशबू लुटाएगी,
अगर हो साथ नारी ज़िन्दगी तब नित्य सुखदाई।
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2-जानकी बिष्ट वाही
1-बारिश
और बचपन
बचपन में जब बजता घण्टा छुट्टी का
बाहर हो रही होती बारिश
झमाझम
सखियों- संग उसे लगता नहीं कि
गल जाएँगे कागज़ की मानिंद
मिट्टी की सौंधी खुशबू
सीधे तर कर देती मन
बस्ते को फ्रॉक के अंदर कर
छाते को बंद कर
छप-छप करते गड्ढों में भरे पानी में
न जाने कौन- सी सरगम पर नाचता मन
टक्कर देते मोती से दाँत कौंधती चपला को
खिल-खिल करती निगौड़ी हँसी से
चिहुँक जाते ओट में
खड़े लोग
अचकचाते ,देखते ,सोचते जब तक
लड़कियाँ निकल जाती सामने से
पहुँचती जब घर
बस्ता सँभालती ,निचोड़ती फ्रॉक
खोलती छाता ईमानदारी से
पूछती माँ, अरे ! भीगी कैसे
ज़माने भर की मासूमियत ओढ़
बोलती -मालूम नहीं मुझे
पूछ लो खुद बारिश से
माँ दिखाती आँखें
पर मुस्कुराते उनके होंठ
छाता बंद कर बोलती-
चल, बदमाश कहीं की,
जल्दी से बदल लें कपड़े
नहीं तो लग जाएगी सर्दी
अब वर्षों हो गए बारिश में भीगे
यादों के बक्से को दिखा देती है
अक्सर चमकीली,रूपहली धूप
बारिश अब भी होती है,
बिजली अब भी चमकती है
गड्ढों में पानी अब भी भरता है
ओट में लोग अब भी होते हैं खड़े
बस मन ही नहीं मचलता
लगता है बचपन ले गया अपने
संग
वो खुशी मासूमियत- भरी
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2-दुःख
की एक नदी
दुःख की एक नदी
जो जन्म से
मृत्यु तक जाती है।
और भरी रहती है
आँसुओं के सैलाब से
फिर भी ज़िंदगी की
मजबूत डोर पकड़े
तूफानों से ओ झंझावतों से
टकराती चोट खाती
थपेड़ों से लड़ती
जिन्दा रहती है
जिन्दा रखती है, परम्पराओं
को
और जिन्दा रखती है, उन रिश्ते
-नातों को
जो उसके जन्म के कम
ब्याह के ज्यादा हैं।
दिए की कँपकँपाती लौ की तरह
जलती दूसरों के लिए ताउम्र है।
औरत , तुम दुनिया की नज़रों में बहुत हो कमजोर
पर अपनी नजरों में बहुत
मज़बूत।
तभी तो तुम जी पाती हो
इस एक जनम में
कई जनमों के स्वप्न
तुम्हारा निर्णय
सदियों को विस्मित कर देता है
जो राम और दुष्यंत समझ न पाए
या यशोधरा के प्रश्नों द्वारा बुद्ध
को कर देता है निरुत्तर
यह स्वाभिमान
ईश ने भरा था तुमको रचते हुए
यही संकल्प,तुम्हारी
नाज़ुक देह को
फौलाद- सा बना देता है
जीवन -मरण की पगडंडी पर
-0- नोएडा-201301,उत्तर प्रदेश (jankiwahie@gmail.com>)
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3- प्रियंका
गुप्ता
1-लड़कियाँ
लड़कियाँ
जो कविताएँ लिखती हैं
डायरी में छिपाकर;
अपनी आत्मा के एक टुकड़े को
सूरज की रोशनी से बचाकर
रखती हैं...
लड़कियाँ
जो कविताएँ लिखती हैं
बन्द रखती हैं खुद को
एक खोल में
डरती हैं वो
क्योंकि जानती हैं
कविता लिखना पाप है
इस दुनिया की निग़ाह में
इसलिए अक्सर
अंदर ही अंदर मर जाती हैं वो
चुपचाप
और कोई जान भी नहीं पाता
उन लड़कियों को
जो सबसे छुपाकर
लिखती हैं कविताएँ...।
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2-मुखौटा
औरतें-
कभी नहीं मरती
वो बस रूप बदलती हैं
नानियों और दादियों ने भी
माँ और बुआ को दे दिया
अपना रूप
और अब धीरे-धीरे
माँ चढ़ाने लगी हैं
अपने चेहरे का
एक नायाब मुखौटा
मेरे चेहरे पर;
पर मैं
रूप बदलना नहीं चाहती
इनकार करती हूँ मैं
किसी भी मुखौटे से
क्योंकि
मुखौटों में
दम घुटता है मेरा
और मैं
बस ज़िंदा रहना चाहती हूँ...।
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3-शायद
औरतें
हँसती नहीं हैं
न ही जश्न मनाती है
एक और औरत के
जन्मने पर;
वे तो बस
मातमी सूरत लिये आती हैं
और
तसल्ली देकर चली जाती हैं;
एक औरत के जन्म पर
अपराधिनी होती है
दूसरी औरत
उसके चारों ओर
या तो अदालती कुनबा होता है
या फिर
कुछ रुदालियाँ;
एक औरत
दूसरी औरत के जन्मने पर
अफ़सोस करती है
किसी भी मर्द से ज़्यादा
जैसे डरती हो
कि
जिस मुट्ठीभर आसमान का सपना
उसकी आँखों में पला
और फिर मरा था
वो कहीं इस नई औरत के
हिस्से न आ जाए
अफ़सोस उस औरत के जन्मने पर नहीं
अपना आसमान छिनने के भय से है
शायद...।
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4-ज्योत्स्ना प्रदीप
क्षणिकाएँ
1-निशान
तुमने उसे
नहीं छुआ
वो ये तो बताती है
मगर तेरी निगाहों के
बेरहम नश्तरों के,
मन पर लगे निशान,
वो आज भी
लोगों को दिखाती है।
2-अनुभूति
उसकी कोख में
उग रही,
उजली किरण की
अनुभूति
काश!
भावी पिता को भी
छूती।
3-बेबसी
अपनी
नन्ही गुड़िया को,
आया को सौंपते हुए
माँ की बेबसी थी
सीली -सीली
मुन्नी की आस
गीली।
4- लड़कियाँ
तुम आकाश को
छू रही हो
लोग हैरान!
आकाश भी बड़े
अदब से लिख लेता है..
अपने नीले,
अन्तहीन पृष्ठ पर
ऐसी लड़कियों के नाम!
5-हदें
उस लड़की को
आँकना मत
मर्यादित है
सहनशील भी
पर...
बाढ़ आने पर तो
हदें पार करती
है
एक छोटी सी
शान्त झील भी।
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5-अर्चना राय
स्त्री
आशा का दामन थाम कर मैं ,
हर रोज़ थोड़ा
-थोड़ा जी लेती हूँ।
छाई
उदासियों में भी...
हल्का-सा मुस्कुरा
लेती हूँ।
टूटे सपनों को समेटकर
फिर
आशाओं की माला गूँथ लेती हूँ ।
निराशाओं के भँवर में भी...
हौसले
को फिर पतवार बनाती हूँ ।
जीवन- नैया को बीच
मझधार से
पार किनारे की ओर
चलाती हूँ।
अँधेरा तो बहुत गहन होता है।
पर
उजाले के लिए...
एक
दीया ही काफी होता है ।
वैसे ही...
जीवन में रोशनी के
लिए भी
एक
आशा का उजाला ही काफी होता है।
हाँ, मैं स्त्री हूँ... सोचकर ही
सहस्र सूर्यों-
सा तेज
अपने भीतर समाहित
पाती हूँ।
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