पथ के साथी

Monday, March 8, 2021

1058- नारी

 1-गिरीश पंकज

मुक्तक

1


मुझे दासी न समझो तोतले तुम बोल मत समझो।

मैं हूँ धरती मुझे कमजोर या बेमोल मत समझो।

जहाँ होती है नित पूजा हमारी, देवता रमते।

मैं हूँ औरत मुझे तुम देह का भूगोल मत समझो।

2

मैं हूँ औरत जो सृष्टि को बनाने में सहायक है।

इसे मैं नित सँवारूँ इसलिए दिखती ये लायक है।

मुझे मैली न करना मैं किसी मंदिर की मूरत हूँ,

जिसे वरदान दे दूँ एक दिन बनता वो नायक है।

3

अगर मैं ना रहूँ तो सृष्टि का शृंगार कैसे हो।

हृदय धड़के न लोगों का कहो फिर प्यार कैसे हो।

मुझे जो मारते नादान हैं, बुद्धि नहीं उनमें।

भला औरत बिना संसार का विस्तार कैसे हो।

4

जो हर औरत में अपनी माँ-बहिन का ध्यान रक्खेगा।

वही इंसान स्त्री का सदा सम्मान रक्खेगा।

जो हैं गुंडे-मवाली मातृ-शक्ति खाक समझेंगे,

मगर है नेक इंसाँ तो हमेशा ज्ञान रक्खेगा।

5

वो है सुंदर , बड़ी कोमल,  लगे देवी उतर आई।

बिना उसके कभी क्या ज़िन्दगी में बात बन पाई।

उसे कुचलो, न मसलो, है कली खुशबू लुटाएगी,

अगर हो साथ नारी ज़िन्दगी तब नित्य सुखदाई।

-0-


2-जानकी बिष्ट वाही

1-बारिश और बचपन

 

बचपन में जब बजता घण्टा छुट्टी का

बाहर हो रही होती  बारिश झमाझम 

सखियों- संग उसे  लगता  नहीं कि 

गल जाएँगे कागज़ की मानिंद

मिट्टी की सौंधी खुशबू 

सीधे तर कर देती मन

बस्ते को फ्रॉक के अंदर कर

छाते को बंद कर

छप-छप करते गड्ढों में भरे पानी में

न जाने  कौन- सी सरगम पर नाचता मन

टक्कर देते मोती से दाँत कौंधती चपला को

खिल-खिल करती निगौड़ी हँसी से

चिहुँक जाते ओट  में खड़े लोग

अचकचाते ,देखते ,सोचते जब तक

लड़कियाँ निकल जाती सामने से

पहुँचती जब घर 

बस्ता सँभालती ,निचोड़ती फ्रॉक

खोलती छाता ईमानदारी से

पूछती माँअरे ! भीगी कैसे

ज़माने भर की मासूमियत  ओढ़

बोलती -मालूम नहीं मुझे

पूछ लो  खुद बारिश से 

माँ दिखाती आँखें

पर मुस्कुराते उनके होंठ

छाता बंद कर बोलती-

चल, बदमाश कहीं की,

जल्दी से बदल लें कपड़े 

नहीं तो लग जागी सर्दी

अब वर्षों हो गए बारिश में भीगे

यादों के बक्से को दिखा देती है

अक्सर चमकीली,रूपहली धूप

बारिश अब भी होती है,

बिजली अब भी चमकती है

गड्ढों में पानी अब भी भरता है

ओट में लोग अब भी होते हैं खड़े

बस मन ही नहीं मचलता

लगता है बचपन ले गया  अपने संग

वो खुशी मासूमियत- भरी

-0-

2-दुःख की एक नदी

 

दुःख की एक नदी

जो जन्म से

मृत्यु तक जाती है।

और भरी रहती है

आँसुओं के सैलाब से

फिर भी ज़िंदगी की

मजबूत डोर पकड़े 

तूफानों से झंझावतों से

टकराती चोट खाती 

थपेड़ों से लड़ती

जिन्दा रहती है

जिन्दा रखती है, परम्पराओं को

और जिन्दा रखती है, उन रिश्ते -नातों को

जो उसके जन्म के कम 

ब्याह के ज्यादा हैं।

दिए की कँकँपाती लौ की तरह

जलती दूसरों के लिए ताउम्र  है।

औरत , तुम दुनिया की नरों में  बहुत हो  कमजोर

पर अपनी नजरों में  बहुत मज़बूत।

तभी तो तुम जी पाती हो

इस एक जनम में 

कई जनमों के स्वप्न

तुम्हारा निर्णय

सदियों को विस्मित कर देता है

जो  राम और दुष्यंत समझ न पा

या  यशोधरा के प्रश्नों द्वारा बुद्ध  को कर देता है निरुत्तर

यह स्वाभिमान 

ईश ने भरा था तुमको रचते हुए

यही संकल्प,तुम्हारी नाज़ुक देह को

फौलाद- सा बना देता है

जीवन -मरण की पगडंडी पर

-0- नोडा-201301,उत्तर प्रदेश (jankiwahie@gmail.com>)

-0-

3- प्रियंका गुप्ता

1-लड़कियाँ

 


लड़कियाँ

जो कविताएँ लिखती हैं

डायरी में छिपाकर;

अपनी आत्मा के एक टुकड़े को

सूरज की रोशनी से बचाकर

रखती हैं...

लड़कियाँ

जो कविताएँ लिखती हैं

बन्द रखती हैं खुद को

एक खोल में

डरती हैं वो

क्योंकि जानती हैं

कविता लिखना पाप है

इस दुनिया की निग़ाह में

इसलिए अक्सर

अंदर ही अंदर मर जाती हैं वो

चुपचाप

और कोई जान भी नहीं पाता

उन लड़कियों को

जो सबसे छुपाकर

लिखती हैं कविताएँ...।

-0-

2-मुखौटा

 

औरतें-

कभी नहीं मरती

वो बस रूप बदलती हैं

नानियों और दादियों ने भी

माँ और बुआ को दे दिया

अपना रूप 

और अब धीरे-धीरे

माँ चढ़ाने लगी हैं

अपने चेहरे का 

एक नायाब मुखौटा 

मेरे चेहरे पर;

पर मैं

रूप बदलना नहीं चाहती

इनकार करती हूँ मैं

किसी भी मुखौटे से

क्योंकि

मुखौटों में

दम घुटता है मेरा

और मैं

बस ज़िंदा रहना चाहती हूँ...।

-0-

3-शायद

 

औरतें

हँसती नहीं हैं

न ही जश्न मनाती है

एक और औरत के

जन्मने पर;

वे तो बस

मातमी सूरत लिये आती हैं

और

तसल्ली देकर चली जाती हैं;

एक औरत के जन्म पर

अपराधिनी होती है

दूसरी औरत

उसके चारों ओर

या तो अदालती कुनबा होता है

या फिर 

कुछ रुदालियाँ;

एक औरत

दूसरी औरत के जन्मने पर

अफ़सोस करती है

किसी भी मर्द से ज़्यादा

जैसे डरती हो

कि

जिस मुट्ठीभर आसमान का सपना

उसकी आँखों में पला

और फिर मरा था

वो कहीं इस नई औरत के 

हिस्से न आ जाए

अफ़सोस उस औरत के जन्मने पर नहीं

अपना आसमान छिनने के भय से है 

शायद...।

-0-

4-ज्योत्स्ना प्रदीप

 क्षणिकाएँ


1-निशान

 

तुमने उसे

नहीं छुआ

वो ये तो बताती है

मगर  तेरी निगाहों  के

बेरहम नश्तरों के,

मन पर लगे निशान,

वो आज भी

लोगों को दिखाती है।

 

2-अनुभूति

 

उसकी कोख में

उग रही,

उजली किरण की

अनुभूति 

काश!

भावी पिता को भी

 छूती।

 

3-बेबसी 

 

अपनी

नन्ही गुड़िया को,

आया को सौंपते हुए

माँ की बेबसी थी

 सीली -सीली 

मुन्नी की आस

गीली।

4- लड़कियाँ

 

तुम आकाश को

छू  रही हो 

लोग हैरान!

आकाश भी  बड़े

अदब से लिख लेता है..

अपने नीले,

अन्तहीन पृष्ठ पर

ऐसी लड़कियों के नाम!

5-हदें 

 

उस लड़की को 

आँकना  मत

मर्यादित है 

सहनशील भी 

पर...

बाढ़ आने पर तो

हदें पार करती

है 

एक छोटी सी 

शान्त  झील  भी।

-0-

5-अर्चना राय

स्त्री


आशा का दामन थाम कर मैं ,

हर रो थोड़ा -थोड़ा जी लेती हूँ

 छाई उदासियों में भी... 

हल्का-सा मुस्कुरा लेती हूँ 

टूटे सपनों को समेटकर

 फिर आशाओं की माला गूँथ लेती हूँ

  निराशाओं के भँवर में भी... 

 हौसले को फिर पतवार बनाती हूँ ।

जीवन- नैया को बीच मझधार  से

पार किनारे की ओर चलाती हूँ

 अँधेरा तो बहुत गहन होता है।

 पर उजाले के लिए... 

 एक दीया ही काफी होता है ।

वैसे ही... 

जीवन में रोशनी के लिए भी

 एक आशा का उजाला ही काफी होता है।

हाँ, मैं स्त्री हूँ... सोचकर ही

सहस्र सूर्यों- सा तेज

अपने भीतर समाहित पाती हूँ

-0-


 

 

 

 

 

 


1057-नारी

 1-डॉ.कविता भट्ट

1-स्त्री समुद्र है

 

 हाँ स्त्री समुद्र है- उद्वेलित और प्रशान्त


मन के भाव ज्वार-भाटा के समान

विचलित और दुःखी करते हैं उसे भी

हो जाती है जीवमात्र कुछ क्षणों के लिए।

किन्तु; पुनः स्मरण करती है; कि

वह है- प्रसूता, जननी और पालनहार

पुरुष- अपने अस्तित्व के लिए भी

निर्भर है सूक्ष्म जीव सा- इसी समुद्र पर

दोहराता रहता है- भूलें-अपराध-असंवेदनाएँ

प्रायश्चित नहीं करता, किन्तु फिर भी

विश्राम चाहता है- स्त्री के वक्षस्थल में

विशाल हृदया स्त्री क्षमादान देती है

समेट लेती है- सब गुण-अवगुण

समुद्र के समान- प्रशान्त होकर

और चाहती है कि ज्वार-भाटा में

सूक्ष्म जीव का अस्तित्व बना रहे।

-0-

2- यक्षप्रश्न!

 

तू पंचतत्त्व जैसी;

तू पृथ्वी तत्त्व- तुझमें गुरुत्व है।

सघनता भी- तू है प्रचंड ज्वाला,

अग्नितत्त्व- सी; अविरल-प्रबल।

प्रवाह तेरा-

धर लेती आकार, हर प्रकार;

क्योंकि तू जल तत्त्व।

प्राण भरती; तन-मन-जीवन,

तू प्राण- वायु तत्त्व भी है तू।

तेरा विस्तार- आकाश-सा है नारी,

आँचल-बाँधे; अनगिनत सूर्य,

चन्द्रमा-तारे-आकाशगंगाएँ भी;

किन्तु फिर भी; तेरे सम्मान पर

क्यों कोटि प्रश्नचिह्न?

है यही- यक्षप्रश्न।

-0-

2-डॉ मंजुश्री गुप्ता


1-वसुधा या द्रौपदी ?

 

मैं -

पृथ्वी, भू, वसुधा

जो करती तेरा पालन पोषण?

नहीं,

तूने तो बना दिया मुझे द्रौपदी!

दु; शासन और दुर्योधन की तरह

पेण्टिंग-   मंजुश्री गुप्ता

करते मेरी मर्यादा का क्षरण

मेरे वस्त्रों -

वृक्षों, खेतों, जंगलों को

काट-

निरंतर करते

मेरा चीर हरण!

यह भी नहीं सोचते

जीव जंतु क्या खायेंगे

कहाँ लेंगे शरण?

अपनी अनंत प्यास को बुझाने

मेरे नयन नीर का

निरंतर करते दोहन शोषण

विकास के नाम पर

कोई कसर नहीं छोड़ी तूने

नष्ट किया पर्यावरण!

रे मनुज!

अपनी क्रूर हरकतों  से

बढ़ा  दिया है ताप तूने

मेरे मस्तिष्क का

अब जल तू स्वयं ही

झेल वैश्विक ऊष्मीकरण!

आशा नहीं अब मुझे

कि मुझे बचाने आयेगा

कोई कृष्ण!

स्वयं किया है मैंने

प्रतिशोध का वरण!

खोल ली है केश राशि

तू देख मेरा विकराल रूप

हाँ महाभारत!

अकाल, बाढ़, प्रलय

ज्वालामुखी विस्फोट

सुनामी, भूस्खलन, दावानल ,

महामारियाँ !

अब कोई रोक नहीं सकता तुझे

तेरे पापों का दंड भोगने से

चेत जा रे  स्वार्थी मनुज!

तेरा अब होगा मरण!

-0-

2-स्त्रियाँ...

त्याग ही नहीं
इच्छा और आकांक्षा भी
मुस्कान ही नहीं
आँसू और ईर्ष्या भी
तन ही नहीं
मन और भावना भी
भोग्या ही नहीं
जननी और भगिनी भी
कामना ही नहीं
प्रेम और ममता भी
रति ही नहीं
दुर्गा और सरस्वती भी
स्त्रियाँ...
देवी या डायन नहीं
मनुष्य हैं
सिर्फ मनुष्य!

-0-

 

3-पूनम सैनी

1.

जब बंद थे सब मकानों में


तब बंद था दरवाज़ा
,

उनके बचाव का।

इस तरह कुछ और 

अधिक तड़पी महिलाएँ

लॉकडाउन के उन दिनों।

2.

कातिल निगाहों वाली

खुद कत्ल हो जाती है

झांझर बन जाती जंजीरें

आलते के निशाँ

खूनी छाप हो जाते है

सच कहते है लोग

किस्मत और वक्त बदलते

देर न लगती।

-0-

4-नन्दा पाण्डेय

 

1-अब वह चुप रहने लगी है

 

मौन की प्रत्यंचा पर


साध हृदय के कोलाहल को

अब वह चुप रहने लगी है

और लोग उसकी चुप्पी का

विद्वत्ता से अर्थ लगाने लगे हैं

 

किसी को नहीं पता 

कि आज उसका मन

सन्निपात की अवस्था में पहुँचकर

अंतिम साँसें ले रहा है

घर के सारे छोटे-बड़े काम फुर्ती,लगन और

सहजता से निबटाती है

किसी को अहसास तक नहीं होने देती

कि अंदर उसके क्या चल रहा है

ऐसा नहीं कि वो कुछ साबित करना या

दिखाना चाहती है बस अपनी

कमजोर स्थिति जाहिर नहीं करना चाहती

 

किसी औरत को गणित का ज्ञान हो

 या वह वीणा बजाए पर इससे

उसकी स्थिति में रत्तीभर फर्क नहीं पड़ने वाला

इस बात को आज वो अच्छी तरह समझ चुकी है

 

कुछ अनुभूतियाँ जो 

हर रोज दिन ढलने के बाद

उसकी स्मृतियों के संसार में आती है और

उसे भूतकाल के तहखाने में ले जाने को

उन्मत्त रहती है फिर जाते-जाते

बहुत से सुलगते सवाल छोड़ जाती है

और वो इस उम्मीद में जीने लगती है कि

शायद कोई उत्तर मिल  जाए

 

उत्तर में उसकी आत्मा की 

अस्फुट गोपनीय भाषा

खदबदाकर खौल उठे चावल की तरह

ऊँची-ऊँची लपटों में धधककर 

भीतर ही भीतर टूटती दरकती जा रही थी

 

उसका बस चलता तो 

अपनों के लिए सूरज पर भी छा जाती

जो आज खुद भटक रही है

मन की पगडंडियों पर

अतीत की छाया के लिए

जिंदगी को अपने शर्तों और 

अपने तरीकों से जीने वाली आज

अपने ही द्वंद्वों के बीच उलझकर घुटने लगी है

आज दूर-दूर तक कोई सृजनहार नहीं जो

दिल में चुभती फाँस निकाल सके

 

आज बहुत सोच समझकर 

अपने ही हाथों अपनी आत्मा पर

 ताला जड़कर

अपनी सारी बेचारगी को ठूँस-ठूँस कर 

उफनती धूप और गर्म लू से 

बचाकर रख लिया है उसने

 

रिश्तों का समीकरण अवैध हो सकता है

पर क्या वो भी अवैध था

जो उसने काँपते अधरों को उसके अधरों पर

रखकर एक अकम्प विश्वास दिया था

अपने सखा होने का , हमेशा करीब होने का

बर्फ -सी जमी वेदना

समय के संस्पर्श से पिघलकर फूट पड़ी

आज उसे अहसास हुआ कि

वो उजाले में कम और अँधेरे में ज्यादा है

 

मौन की प्रत्यंचा पर

साध हृदय के कोलाहल को

रिक्त हाथों में भरकर

वेदना के उस अपरिचित अहसास को

न अंगीकार कर सकी

न मुक्त कर सकी.......!

ईमेल- nandapandey002@gmail.com

-0-

5-रमेश कुमार सोनी

1-खाना बनाने वाली बाई 

 

खाना बनाने वाली बाई 


खाने की सुगंध अपनी देह में लपेटे
 

ले जाती है घर 

आवारा हवाओं से बचाते हुए 

बच्चे पूछते हैं - 

माँ आज क्या बनाया है ?

माँ कहती है - शाही पनीर .......

बच्चे चुपचाप उसके  स्वाद  के साथ 

खाना खाकर सो जाते हैं

बच्चे जानते हैं - 

माँ है, तो उम्मीद है 

माँ है, तो सपने जिंदा हैं .....

बच्चे खुश हैं कि उनके 

गंध , अहसास , स्वाद और ....दृष्टि जिंदा है 

एक दिन माँ नहीं लौटी 

गंध चोरी के आरोप में जेल में बंद है !!

भूखे बच्चे ताक रहे हैं ......।।

-0-

2-उग रही औरतें...

सिर पर भारी टोकरा
टोकरे में है - भाजी , तरकारी
झुण्ड में चली आती हैं
सब्जीवालियाँ

भोर , इन्हीं के साथ जागता है मोहल्ले में ;
हर ड्योढ़ी पर
मोल - भाव हो रहा है
उनके दुःख और पसीने का ।

लौकी दस और भाजी बीस रुपये में
वर्षों से खरीद रहे हैं लोग ,
सत्ता बदली , युग बदला,
लोग भी बदल गए
लेकिन उनका है

वही पहनावा और वही हँसी - बोली ;
घर के सभी सदस्यों को चिह्नती हैं वे
हालचाल पूछते हुए
दस रुपये में मुस्कान देकर लौट जाती हैं ।

शादी - ब्याह के न्यौते में आती हैं
आलू , प्याज , साबुन , चावल और
पैसों की भेंट की टोकरी लिए ,

कहीं छोटे बच्चे को देखा तो
ममता उमड़ आती है
सब्जी की  टोकरी छोड़
दुलारने बैठ जाती हैं ;

मेरे मोहल्ले का स्वाद
इन्ही की भाजी में जिंदा है आज भी
औरतों का आत्मनिर्भर होना अच्छा लगता है
रसोई तक उनकी गंध पसर जाती है

ये बारिश में नहीं आती हैं
उग रही होती हैं
अपनी खेतों और बाड़ियों में
सबके लिए थोड़ी -थोड़ी  सी

अँखुआ रहे हैं -
आकाश , हवा , पानी
इनकी भूमि सी कोख में
सबके लिए थोड़ी - थोड़ी  सी .... ।
3-गृहस्थी की पाठशाला

 

घाट , जगत और कछार
सुन रहे हैं -
औरतों की कहानी ,
नहा रही हैं औरतें
धो रही हैं उनके दाग ।

कोई सिसक रही है
कोई हँसते हुए गपिया रही है
इन्ही के जरिए पूरा गाँव
जानता है लोगों की करतूतों को -

किसे कौन घूरता है ?
किसकी नज़र गंदी है और
किसके घर में सब
ठीक नहीं चल रहा है ।

औरतें हर घर का भेद जानती हैं
सिर्फ एक ही प्रश्न के जरिए -
‘’का साग खाए या? ‘

मायके से ससुराल तक के
र का किस्सा
यहाँ नहा - धोके पवित्र हो जाता है ।
औरतें पूरी दुनिया को यहीं से

पढ़ती - समझती हैं
हर खतरे को भाँपते हुए
हँसिया लेकर दौड़ लगा लेती हैं ,
खाना परोसते हुए
अपने मर्द से कह देती हैं -

कइसे , आजकल तोर आदत बने नइए ?
हलक में अटक जाता है -
बासी और मिरचा ।
मर्द की सारी हेकड़ी

उतारना जानती हैं ये औरतें ;
घाटों पर सिखाती है इन्हें ये सब ,
कुछ उम्रदराज औरतें
घाट पाठशाला है -

औरतों के औरत होने का ,
घर - गृहस्थी में   ;
जिसे बाथरूम का अजगर निगल गया है ...
घाट को इन दिनों
सन्नाटा चुभ रहा है औरतों का

किसी सरकारी स्कूल के बन्द होने
जैसा बुरा हसास है यह ;
इन दिनों घाट याद कर रहे हैं -
चूड़ी , पायल की खनक के साथ
एड़ी माँजती औरतों के किस्से सुनने .... ।
-0-