डॉ. सुरंगमा यादव
मंजिलों से परे
न
जाने किसकी प्रतीक्षा में
मुख
म्लान हो चला है
जिसे
कभी टकसाल में ढले
नए
सिक्के की तरह
निर्मल-
निष्कलुष कहा जाता था
स्वागत में लगे बंदनवार की तरह
मुरझाने लगा है मन
धीरे -धीरे
झड़ने लगी हैं पंखुड़ियाँ
किसी
अपने की, जो सचमुच अपना हो
प्रतीक्षा में राह तकते-तकते
वह
खुद राह बन गई है
एक
ऐसी राह,जो छायादार है
सुगम
है, सुरक्षित है
हर आने
वाला उससे होकर गुजरता है
अपनी
मंजिल तक पहुँचता है
‘सुगम
राह’ कहकर आगे बढ़ जाता है
और वह
राह, वहीं के वहीं
खड़ी
रह जाती है
मंज़िलों से परे ।
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