पथ के साथी

Tuesday, May 5, 2020

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1-तीन कविताएँ

रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

1-लिखूँगा गीत मैं इसके 05-08-1980( आकाशवाणी गौहाटी से प्रसारण-18-8-1980)


1
लिखूँगा गीत मैं इसके
खुद तलवार बनकरके।
बगावत की हज़ारों आँधियाँ,रोकेंगी राहों को।
सीने में, ठोंककर कीलें,दबाएँ मेरी चाहों को
जब तक लहू की एक बूँद,शेष है शिराओं में
मोड़ सकता है तब तक कौन बज्र-सी भुजाओं को
काट दोगे चरण भी तो
मैं ललकार बनकरके  ।
कौन है जो माता को टुकड़ों में बाँटेगा
कौन -सा कुपूत माँ के हाथ काटेगा
गंगा-ब्रह्मपुत्र की जो पहने हुए माला
कौन इसके प्रेम की गहराई पाटेगा!
सिर को काट दोगे तो
रुधिर की धार बनकरके।
भारतभूमि का हर कण, हमें है जान से प्यारा
हरेक धर्म बहाता यहाँ पर , प्रेम की धारा
हिमालय से सागर तक,पूरब से पश्चिम तक
एक हृदय, एक आवाज़, सभी का एक है नारा
झोंक दोगे ज्वाला में
तो अंगार बनकरके।
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2- पूजा करके देखी है(08-08-1980आकाशवाणी गौहाटी से प्रसारण-18-8-1980)

फूलों के सौरभ से पूजा करके देखी है
सिरों की भेंट देकरके,सत्कार होना चाहिए ।
भारत माँ की चन्दन-धूल साँसों में समा जाए
इसकी राह में अपनी हस्ती तक मिटा जाएँ ।
उठाने की करे कोशिश इस पर जो नज़र तिरछी
बिजलियों की तड़प बनकर, कहर उस पर ढा जाएँ ।
झरने की कल-कल के सारे राग बासी  हैं
लपलपाती लहरों से अब प्यार होना चाहिए ।
हिन्दू क्या, मुस्लिम क्या, हैं सब एक माला के मोती
भाव होते अनेकों तो, माला टूट गई होती
कहा कश्मीर मस्तक  से पूर्वोत्तर की बाहु ने
मन और कर्म की एकता ही प्यार है बोती ।
          विभीषण और जयचन्द तो हमेशा जन्म लेते हैं
          हमें शिवा, प्रताप बनने को तैयार होना चहिए।
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3-इस अब लेखनी से
(08-08-1980(आकाशवाणी गौहाटी से प्रसारण-18-8-1980)
  
कंचन -सी कामिनी के झिलमिलाते रूप पर लाखों
लिखकर गीत रातों में तारों को सुनाए हैं,
फूलों के रस में बोरकरके , साथ भौंरों के
चाँदनी के साथ सब वन-पर्वत हँसाए हैं ।
इस अब लेखनी से सिन्धु की अग्नि जगाने दो
कोटि-कोटि कण्ठों को प्रयाण गीत गाने दो ।
गतिमय द्रुत चरणों को , शिखर तक पहुँच जाने दो
मिल फ़ौलादी बाहों को महासेतु बनाने दो
फिर देखें ये तूफ़ानी इरादे कौन मोड़ेगा !
‘भारत एक है’ के सूत्र को फिर कौन तोड़ेगा !
ऐसे हर इरादे को जलाकर राख कर देंगे,
टकराने वाली हर ताकत को ख़ाक़ कर देंगे।
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5-आईना
प्रीति अग्रवाल ( कैनेडा)


कई दिनों बाद
अपने आप को आज
आईने में देखा
कुछ अधिक देर तक
कुछ अधिक ग़ौर से!

रूबरू हुई-
एक सच्ची सी सूरत
और उस पर मुस्कुराती
कुछ हल्की सीं सलवट,
बालों में झाँकती
कुछ चाँदी की लड़ियाँ,
आँखों में संवेदना
शालीनता की नर्मी,
सारे मुखमंडल पर
एक मनोरम सी शान्ति!

फिर अनायास ही
खुद पर
बहुत प्यार आया,
आज, मुझे मैं
अपनी माँ_ सी लगी!!

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4-वक़्त के पास वक़्त
सविता अग्रवाल 'सवि' ( कैनेडा)

वक़्त के पास वक़्त
आज वक़्त के पास वक़्त है
मुझसे बातें करने का
मुझे मुझसे मेरी पहचान कराने का
घर में अक्सर मेरे पास बैठता है
उलझी रहती हूँ जब स्वयं में
मुझे मेरे पास रखे वक़्त से
मेरा परिचय कराता है
नए-नए शौक पैदा करवाता है
अधूरे जो शौक थे मेरे
उनसे फिर मिल जाने का
प्रयास कराता है
शर्त भी वह एक साथ में रखता है
घर की चारदीवारी में रह कर ही
मुझे सब कुछ कर लेने
और आसमाँ तक घूम आने का
सपना दिखा देता है
वक़्त के पास आज वक़्त है
मुझसे मेरी पहचान कराने का |
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