पथ के साथी

Monday, July 31, 2017

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पीपल प्रेमी की बाहों में

डॉ कविता भट्ट (हे न ब गढ़वाल विश्वविद्यालय,श्रीनगर गढ़वाल, उत्तराखंड)

साँसे कुछ रुक-रुककर चली जा रही थी
धड़कन बीमार कुछ-कुछ रुकी जा रही थी
डॉक्टर ने भेजा दवा का लम्बा चिट्ठा लिखकर
आँखें कृश देह रूपसी की मुँदी जा रही थीं।

जीवन से क्षुब्ध, तन से दु:खी  हो जा रही थी
व्यथित, पसीने से नहा, रोतीं-कुढ़ी जा रही थी
शीतल स्पर्श पाकर, वो रुकी कुछ ठिठककर
पीपल प्रेमी मुस्कुराता खड़ा, बाहें खुली जा रही थीं।

आँचल गिरा, उसकी बाहों में सिमटी जा रही थी
सरसराहट पत्तियों की कानों में घुली जा रही थी
प्रेमगीत धुन पर, दुलारा-सहलाया उसने जी भरकर
प्रिय की साँसे जीवन को साँसें दिए जा रही थीं।

जिसके चुम्बन से वो इतना लहरा रही थी
रूप का लोभ न था, इसके प्रेम पर इतरा रही थी
यौवन-मोह तजे योगी सा- लिंग-धर्म-जाति से ऊपर
प्रेम बाँटती असंख्य बाहें, जीवन-अमृत बरसा रही थीं।

जिसकी खोज में उम्र निकलती ही जा रही थी
स्त्री-पुरुष-शरीरों की परिधि से रहित रटे जा रही थी                                                   
काश! मानव में भी फूटें ऐसे ही उन्मुक्त प्रेम-निर्झर
कविता’ पीपल प्रेमी की बाहों में ये बुदबुदा रही थी


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2-गुंजन अग्रवाल
गीत
कैसे ये तीज मनाऊँ मैं।
कैसे तो रीझ दिखाऊँ मैं।

बिन साजन सूना सावन है।
सूना ये मन का आँगन है।
धूमिल आंखों का काजल है
घिरता यादों का बादल है
तुझको तो सनम बुलाऊँ मैं।
कैसे तो तीज मनाऊँ मैं.......

झूलों पर पींग भरें सखियाँ
यादें झरती रहती अँखियाँ
हाथों की मेहंदी चिढ़ा रही।
सौंधी सी महक उड़ा रही।
जब तुझको पास न पाऊँ मैं।
कैसे तो तीज मनाऊँ मैं........

चंचल सी शोख हसीना- सी।
पुरवा संग झूम सफीना -सी।
पुरवा जब छेड़ा करती थी।
मीठी अँगड़ाई भरती थी।
अब गीत न कजरी गाऊँ मैं।
कैसे तो तीज मनाऊँ मैं.....


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