पथ के साथी

Thursday, August 14, 2014

परी नदी

1-परी नदी
-डॉ०क्रांति कुमार, पूर्व प्राचार्या केन्द्रीय विद्यालय

कल- कल, छल छल का निनाद कर
हहराती कहाँ चली प्रिये
श्वेत शुभ्र फेनि वस्त्रों में
इठलाती ले चली हिये ।

पल भर रुक जा ,दो बातें कर
इतनी भी है क्या जल्दी
मतवाली बन होश न खोना
सुध तो ले जन जीवन की।

तट पर बसे नगर अनेकों
हरे खेत और देवालय
सिंचित कर औ प्यास बुझा कर
मधुमय कर दे जन जीवन।

माना कि गति ही है जीवन
पर इतनी भी क्या जल्दी
पथ के पथिकों से मिलती जा
अरी , रुको ओ परी नदी।
-0-
2-कृष्णा वर्मा
1-अभिलाषा 

जब-जब चाहा इस जीवन से
इसने सब भरपूर दिया
नहीं शिकायत कोई रब से
गले-गले सुख पूर दिया।

यूँ तो सदा सरल सुगम से
जीवन की की थी अभिलाषा
करुणाकर थी विधना मुझपर
पूर्ण हुईं मनचाही आशा।

प्रीत बनी प्रिय की मेरी शक्ति
धर संसार हुआ मेरी भक्ति
सहज फूल दो खिले सहन में
हर्षित मन ज्यों चाँद गगन में।

नहीं नैराश्य का संग अपनाया
संयम ही मुझे पग-पग भाया
दिन सुन्दर बने सांझ कुनकुनी
अपनों संग रही खुशी ठुमकती।

चली निरंतर पाने गंतव्य
मंज़िल पा गए लगभग मंतव्य
प्रिय का सुख सुत श्रवण मिले हैं
नहीं जीवन से मुझको गिले हैं।

बेटी की भी कमी रही ना
जब बेटी सी बहू घर आई
बेटे के बेटे ने जन्म ले
रिश्तों में मृदु गाँठ लगाई


मिले-जुले अनुभव जिए सारे
ढली उम्र के सुखद सहारे
जीवन अतल भरा यादों से
रही शिष्ट निज के वादों से।

-0-
2-आँखों का उलाहना

देती हैं मेरी आँखें
मुझे नित्य उलाहना
बे वक्त जगाने का
यह तुमने क्या ठाना
चर्राया यह क्या तुम्हें
कविताओं का शौक
लगा कहाँ से लिखने का
यह संक्रामक रोग
आँखों को शिकायत है
मेरी कविताई से
उल्लू सा जगा रखते
भावों की लिखाई में
ख़्यालों के शिकंजे में
जब-तब घिर जाते हो
बेचैन हृदय होता
सज़ा हमें सुनाते हो
दिल बंजर धरती- सा
ना पानी ना माटी
जाने दुख-सुख की कैसे
चित्तवृत्ति उग आती
घंटों तकें शून्य में हम
नभ की गहराई में
इक वाक्य बनाने को
शब्दों की जुटाई में
सोचों का सफर लम्बा
कर-कर हम थक जातीं
दरबान- सी पलकें भी
झपकन को तरस जातीं
कविताओं का घुन कुतरे
नींदों के किनारों को
बरबस तुम बाँधा करो
बेबाक विचारों को
यह भाव निगोड़े क्या 
मकड़ी के भतीजे है
बिन ताने-बाने के
कविता बुन लेते है
दिन-रात मगजमारी
इक कवि कहलाने को
शब्दों को उमेठते हो
कुछ तालियाँ पाने को
जब तक कलम चले
हमें संग जगाते हो
भावों के प्रवाहों पे
क्यूँ ना बाँध लगाते हो
मुई यह कविताएँ  क्यूँ
फिरें दिन में आवारा
जब कौली भरे रजनी
खटकातीं आ मन द्वारा।
-0-
3- रेखा रोहतगी
 सतरंगी  सपने

सतरंगी  सपने
धुआँ - धुआँ  से हुए रिश्ते
बदगुमाँ हुए  लोग
जिंदगी भर हम
अपनेपन के लिए
तरसते रहे
गले में हुई रस्सी
हाथों की बनी हथकड़ी
जिन्हें जिन्दगी भर हम
गहने समझ
सजते-सँवरते रहे
राख-सा  लिबास
मटमैला आँचल  पहन
जिन्दगी भर हम
सतरंगी सपने
बुनते रहे
काँटों की चुभन
अँगारों की जलन  लिये
एक आसान जिन्दगी के लिए
जिन्दगी भर हम
पते रहे
-0-