पथ के साथी

Saturday, November 28, 2020

1033

 

1-फूल लोढ़ती साँझ

शिवानन्द सिंह 'सहयोगी'

 


नदी किनारे कुहरे से मिल

चुपके -चुपके    

शाल ओढ़ती साँझ।

 

शब्दको की कुंजी में धर  

अनुवादों का चंदन,

सौम्य नम्रता का अनुशीलन

श्लेषों का अभिनंदन,

वन-विद्या के खेतों में अब 

कजरी गाकर    

धान रोपती साँझ ।

 

भावभूमि की विविधाओं  का 

अभिनव अरुण विवेचन,

 स्वर सप्तक ध्वनियों से सँवरा  

लय का लयक निकेतन,

लीप पोतकर दीवारों को 

दरवाज़ों की 

धूल पोंछती साँझ।

 

जनवादी इन गलियों के कल

विकसित नये शहर में,

भूख-प्यास की दाहकता की

उठती हुई लहर में,

मन के संघर्षों से कुछ कह

गांधी आश्रम 

रुई ओटती साँझ।

 

उस घट चुके समय के गुंजित

शब्दों की हर भाषा.

ढूँढ़ रही है नवगीतों की 

नई नई परिभाषा,

कागज के पन्नों पर हँस-हँस 

धुन उपवन में 

फूल लोढ़ती साँझ ।

-0-

2-मुकेश बेनिवाल


बिछड़ने का डर है तो साथ ना माँग

तजुर्बा देते घावों से निजात ना माँग

अगर करेगा वफ़ा तो एक शख़्स ही बहुत

यूँ भीड़ करने को कायनात ना माँग

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3-चिनार बचाओ- रश्मि विभा त्रिपाठी 'रिशू'

 

 चिनार देख रहा 


विकास-विनाश की

तेज़ रफ़्तार आँधी को

अपनी तटस्थता पर

खतरा महसूस कर रहा है

इमारतें उसकी

ऊँचाई से जल रही हैं

जब्त कर हरे मैदान सारे

हक़ पेड़ों का निगल रही हैं

कितने बवण्डरों से

अब तलक बचता रहा 

मगर एक अदना- सी आरी से

अपना अस्तित्व

वह नहीं सहेज सका

आसमाँ को स्पर्श करता कद

कट गया इक झोंके में

जिसने हजारों तूफान झेले

आज धराशायी है 

सूरज सुबह

जब झुरमुटों से झाँका

चौंक पड़ा

दर्द से पड़ा कराहता पेड़

उखड़ चुकी जड़ें जमींदोज

जहाँ सदियों से वह तटस्थ था

घनी छाया लिये 

वहाँ अब

चिलचिलाती धूप के सिवाय

शेष कुछ भी नहीं बचा था 

कई हिस्सों में काटा

तोड़ा, मरोड़ा, गलाया गया

लकड़ी का रूप-रुपांतरण

कागज़ों में

वो ढाला गया

जो नन्हे पत्ते शाख से बिछड़े

दु:ख उनका क्या जाने

किसने महसूस किया

कि उसी कागज़ के एक पन्ने पर

लिख दी पीड़ा उस चिनार की-

"चिनार बचाओ!"

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Wednesday, November 25, 2020

1032-चार कवितएँ



 

1-हाँ मैं नारी हूँ!
डॉ सुरंगमा  यादव


हाँ मैं नारी हूँ!
सजाऊँगी  सँवारूँगी
तेरा घर
बंदिनी होकर नहीं;

पर संगिनी बन
चाहती हूँ प्यार की छत,
पर सदियों से
जिस आसमाँ पर
तू काबिज है
उस पर भी हिस्सेदारी
चाहती हूँ ।
बरसों  से तुझे मैं
सुनती आ हूँ
अब मगर
कुछ मैं भी कहना  चाहती हूँ
तेरी तरक्की पर
मन प्राण वारूँगी!
हाँ मगर कुछ मैं भी
करना चाहती हूँ
इससे पहले
हसरतें उन्माद बन जाएँ
खुद को मौका देना चाहती हूँ ।

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2-आँखें 

-मंजूषा मन

 

तुमने आँखें तरेरीं 

मैंने झुका लीं आँखें


जब तुमने दिखाईं आँखें

आँखें उठाने का साहस

खो गया मेरा,

तुम्हारी लाल आँखें देख

आँखें पड़ीं मुझे

बचने के लिए

आँख के सामने होने पर 

तुम्हारी आँखों में खटकी मैं

मैंने बिछाईं आँखें

तुम खेलते रहे

आँख मिचोली,

मेरी डबडबाई आँखें 

न देख सके तुम

और फेर लीं आँखें

मेरे इतर खूब सेकीं आँखें

धूल झोंक मेरी आँखों में

मैंने रखा तुम्हें आँखों में

पड़ा रहा पर्दा आँखों पर

पता नहीं चला

आँख का काँटा कब हुई मैं,

 

तुम्हें तो आँखों पर बैठाया

तुम्हारी आँखों से बरसे अंगारे

 आँखें तुमने फेर लीं जब

आँखें पथरा गईं मेरी 

मूँद लीं मैंने आँखें।

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3-एक माँ छुटी 

संध्या झा

 


एक माँ के लिए
,एक माँ छुटी 

एक माँ के लिए, एक माँ ने दी कुर्बानी है ।

ऐ भारत माँ तेरे लिए कितनी माँओं ने 

अपनी  आँखों में सजाए पानी हैं

 

वो लाल मेरा एक योद्धा सा 

दुश्मन को चीर गया होगा ।

 ऐ भारत माँ तेरी धरती पर 

शत्रु को उसने पैर ना धरने दिया होगा ।

 

 तेरी आन का मेरी मान का

 भार उसके कंधों पर रहा होगा ।

 इन दोनों की खातिर वो तो 

अकेला ही हजारों से लड़ा होगा ।

 

 जब सब ने मिलकर घेरा होगा 

 सोचा होगा कि वो डर जाएगा ।

एक  सिंहिनी का पुत्र था वो 

श्वानों से कैसे हार जाएगा ।

 

शूरवीरता उसकी देखने को 

देवता भी उतर आए होंगे

 जब उसने अंतिम साँसें ली होंगी

 सुमन उसके कदमों में चढ़ाए होंगे ।

 

विजय परचम जब उसने फहराया होगा

 तो खून से वो नहाया होगा ।

तेरी मिट्टी में जब वो गिरा होगा 

तेरी मिट्टी चूम रहा होगा।

 

 वो मरा  नहीं अमर है वो

 तेरी मिट्टी में मिल कर अजर है वो 

ऐ भारत माँ तू एक बार जो बुलाएगी

 तो ना जाने कितनी माँएँ उत्साह से

 पानी फिर से आंखों में सजाएगी  ।।

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तन्हा तन्हा/  अनिल श्रीवास्तव 'मुसाफ़िर'

 

जब याद अतीत की आती है,

जब रात क्षितिज पर छाती है,

 

जब शबनम आँसू बन जाते हैं,

तब मैं तन्हा तन्हा रो लेता हूँ.

 

 जब खामोशी शोर मचाती है,

जब सबा बदन को जलाती है,

 

जब बिछड़ों की याद आती है,

तब मैं तन्हातन्हा रो लेता हूँ.

 

जब बात विदित हो जाती है,

जब सत्य कथित हो जाता है,

 

जब रिश्ते कुंठित हो जाते हैं,

तब मैं तन्हा -तन्हा रो लेता हूँ.

 

जब होठों का कंपन याद आता है,

जब चंचल चितवन याद आते  हैं,

 

तब गुज़रा ठिकाना याद आता है,

मैं तन्हातन्हा उन में खो जाता हूँ.

 

अब बात समझ में आती है,

हम सब रंगमंच के साथी हैं,

 

अभिनय करके घर जाना है,

यह सोच सोच  हँ देता हूँ.

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Sunday, November 15, 2020

1031-स्वर संगम

 1- नयन तेरे दर्शन को तरसें- डॉ. अमिता कौंडल


गोविंदा गोविंदा, नयन तेरे दर्शन को तरसें
गोविंदा गोविंदा, नयन तेरे दर्शन को तरसें
कब आएगा तू रे,नयन तेरे दर्शन को तरसें
गोविंदा गोविंदा, नयन तेरे दर्शन को तरसें

मैं दूध भी लाई, माखन भी लायी रे .....2
कब भोग लगाएगा, नयन तेरे दर्शन को तरसे
गोविंदा गोविंदा, नयन तेरे दर्शन को तरसें…2
कब आएगा तूँ रे,नयन तेरे दर्शन को तरसें…2

गोपियाँ भी आईं झूले भी डाले रे .....2
कब रास रचाएगा, नयन तेरे दर्शन को तरसे
गोविन्दा....2

मटकी लेकर के, मैं यमुना तीरे बैठी रे .....2
कब कंकर मारेगा, नयन तेरे दर्शन को तरसे
गोविन्दा .....2

भोर भई, फिर साँझ ढ़ली अब रैन हुई है रे .....2
कब मुरली बजाएगा नयन तेरे दर्शन को तरसें
गोविंदा गोविंदा, नयन तेरे दर्शन को तरसें…2
कब आएगा तू रे,नयन तेरे दर्शन को तरसें---2
गोविंदा गोविंदा, नयन तेरे दर्शन को तरसें---2
-0-

 2-हम ना होंगे जब आँगन में- रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु '

तीन-मुक्तक

1
भोर हुए जो सूरज निकला, उसको तो ढल जाना है।
माटी की नौका ले निकले,उसको तो गल जाना है।।
धूल- बवंडर आँधी-पानी, सब तो पथ में आएँगे।
इनसे होकर चलते जाना, हमने मन में ठाना है।।
2
हम ना होंगे जब आँगन में,तब सन्नाटा डोलेगा।
चुप्पी में कितनी बातें हैं, राज़ नहीं वह खोलेगा।
सिर्फ़ दुआएँ पास रही हैं,किसने पाया -खोया है।
यह तो जाने ऊपर वाला,पर वह कभी न बोलेगा।।
3

शान से आगे बढ़ो तुम कि हर  कल तुम्हारा है
जाह्नवी तुम ही  हो  मुझमें जो जल तुम्हारा है।
पथ तुम्हारा कंटकों का संग में  चलना मुझे
सुमन खिलाने हैं जहाँ तक आँचल तुम्हारा है।  

 

-0-

2-याद आया- रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु '

 

चुभा जो नश्तर याद आया

टूटा हुआ दर याद आया

याद आया चहकता बच्चा

छूटा हुआ घर याद आया

रात भर नींद न आई हमें

हर दफ़ा पत्थर याद आया

याद आए तुम, छल तुम्हारे

काँटों का सफर याद आया

शब्द जहाँ खिले फूलों जैसे

मुझे वह दफ्तर याद आया

साया तक भटका रातों में

मुझे हर मंज़र याद आया

अश्कों में डूब गई रातें 

 जब मुझे सागर याद आया

आँख खुली तो टूटे सपने

छल भरा बिस्तर याद आया

चाँद पर जीभर जो थूकते

उन्हें कब यह डर याद आया।

 जब गुनाह छुपाने को कभी

चलाया खंज़र याद आया

 

3- दूर सभी को जाना है- रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु '


जीवन बुदबुद जल का है
किसे भरोसा कल का है।
दूर सभी को जाना है
कुछ खोना कुछ पाना है।
दूर नगरिया जाएँगे
याद नहीं हम आएँगे।
मोह पाश जो पाया है
यह जन्मों की माया है।
जब तक साँसें  जीना है
जीवन का रस पीना है।
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4-रौशनी

मैं अँधेरा नहीं,रौशनी हूँ तुम्हारी
हारो ना हिम्मत,तुम ज़िंदगी हमारी।

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कविता-पाठ-तेरह रंगों में रँगी, कविता की एक शाम

 संचालन - मानोशी चटर्जी, अम्बिका शर्मा ,कनिका वर्मा,संदीप कुमार त्यागी,प्रीति अग्रवाल,लता पांडे,

डॉ कुमार भारती,डॉ रेणुका शर्मा,पूनम चंद्रा ’मनु’, सविता अग्रवाल,इंदिरा वर्मा,अखिल भंडारी,आशा बर्मन

मानोशी चटर्जी 

नीचे दिए गए लिंक को क्लिक करके कविताएँ सुनिए-



तेरह रंगों में रँगी, कविता की एक शाम

Thursday, November 12, 2020

1029-तीन कविताएँ

 

सन्ध्या झा 

1-  दिवाली

दीपक की रौशनी से रोशन होगा घर द्वार

आ गया देखो दिवाली का ्त्योहार ।

घर में माँ लक्ष्मी के आने से पहले

 घर की लक्ष्मी का मान कर लेना ।

 उसका अनादर करके कहीं

  अपना अपमान कर लेना ।

 माँ लक्ष्मी तुम्हें कुछ देना भी चाहे

 तो कैसे वो दे पाएँगी

 जो घर की लक्ष्मी को हताश वे पाएँगी ।

 घर की साफ- सफाई के साथ

 मन को भी साफ कर लेना ।

 

मन के सारे द्वेष को समेट

 कहीं बाहर तुम कर देना ।

बाहर ही नहीं मन भी तुम्हारा रौशन हो

तभी सही मायनों में

माँ लक्ष्मी का आगमन हो  ।।

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  2-संघर्ष

 

संघर्ष पथ एकाकी हो

तो इसमें क्या भ्रांति हो ।

 

मुश्किलों से भरी राह हो

तो इसमें क्यों उन्माद हो।

 

 चारों ओर अंधकार हो

तो इसमें क्यों संताप हो ।

 

तू रोशनी अपने अंदर की प्रज्वलित कर

फिर रात में भी दिन सी बात हो ।

 

माना संघर्ष की जो राह है

कठोर है पर तेरी आहटों में भी तो शोर है ।

 

हर बाधा बाध्य होकर हट जाएगी

संघर्ष कर तू एक बाधा घट  जाएगी ।

संघर्ष की राह तुझे विजय तक ले जाए्गी   ।।

                                                            

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3-मैं मजदूर हूँ

             

मैं मजदूर हूँ जिसे कभी प्यार नहीं मिलता

मैं मजदूर जिसे सबका स्वीकार नहीं मिलता ।

 

मैं सृजनकर्ता हूँ पर मुझे उस पर

कभी अधिकार नहीं मिलता

धूप हो या छाँव हो मेरे लिए

एक समान हो हर क्षण कर्म

पथ पर चलकर भी मुझे कभी

विश्राम नहीं मिलता ।

 

मैं मजदूर हूँ जिसे कभी प्यार नहीं मिलता

मैं मजदूर हूँ जिसे कभी स्वीकार्य नहीं मिलता ।

 

जब देश में फैली महामारी हो

हमारे चारो ओर लाचारी हो

परिस्थितियाँ हम पर भारी हो

इस देश में हमको कहीं

आधार नहीं मिलता ।

 

मैं मजदूर हूँ मैं मजबूर हूँ

मुझे कभी प्यार नहीं मिलता

मुझे कभी स्वीकार्य नहीं मिलता।

 

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