पथ के साथी

Thursday, February 9, 2012

हमने लिखा (चोका)


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
हमने लिखा-
चिड़िया उड़ो तुम
तोड़ पिंजरा
नाप लो  ये गगन
छू लो क्षितिज !
पार न कर सके
लेकिन हम
अपना ही आँगन ।
लाखों बातें कीं
तोड़कर पहाड़
नदी लाने की,
तोड़ न सके कभी
जर्जर ताला
सदियों से था जड़ा
रूढ़ियों पर,
हमारी सोच पर
डरता मन ;
टूट न जाए कहीं
ये घुन-खाया
दरवाज़ा  पल में
जो छुपाए है
कमज़ोर हाथों को-
उन हाथों को
जो कभी  नहीं बढ़े
मुक्ति पाने को
पिंजरों में बन्द ही
लिखते रहे
सदा मुक्ति का गीत
होकर भयभीत ।
-0-

Sunday, February 5, 2012

हाइकु मुक्तक



-रामेश्वर काम्बोज हिमांशु’
1
मिलने की थी / चाहत पाली जब/ मिला बिछोड़ा ।
टूटा है मन / टुकड़ों-टुकड़ों में/ जितना जोड़ा ॥
रफ़ू करेंगे / मन की चादर को /उधड़ेगी ही ।
सपनों में ही / आकर मिल जाना/ जीवन थोड़ा ॥


2
पता जो पूछा/ तुम्हारा, भूल हुई /घर खो बैठे ।
झुकाते माथा/ खुशी से वही हम / दर खो बैठे ॥
सज़ा मिलेगी / तेरा नाम लिया तो / पता हमको
अपना माना/ जबसे , हम सारा /  डर  खो बैठे ।।

3
सँभले जब / पता चला हमको/क्यों टूटा मन ।
झूठे चेहरे/ पास खड़े थे जान / गया दर्प
हम अकेले/ नदी किनारे  संग / रोती लहरें ।
कितनी व्यथा !/ चीरती धारा , जाने/ सान्ध्य- गगन ।।

4
ढूँढ़ा हमने / सपनों तक में भी / खोज न पाए ।
तुम तो सदा / हमारे थे फिर क्यों / हुए पराये ।
जान तो लेते /हम किस हाल में / जीते -मरते
सब सन्देसे / खो गए गगन में/ हाथ न आए ॥
-0-
(चित्र:गूगल से साभार)

Sunday, January 29, 2012

दर्जी- वसंत


शुभकामना 

हरी चूनर 
पीले फूल काता 
दर्जी- वसंत ।
-कमला निखुर्पा



मन की चोट


-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

तन की चोट भरे कुछ दिन में
मन की चोट नहीं भर पाती
मिलना तो होता दो पल का
बिछुड़ें ,यादें रोज़ रुलाती।
मज़बूरी- दूरी दोनों में
युगों-युगों  तक का नाता है
दोनों ने मिलकर बाँधा जो
मोहपाश टूट न पाता है ।
जब दिन -रात बिछुड़ जाते हैं
हर आँख सभी  की भर आती ।
तन की चोट भरे कुछ दिन में
मन की चोट नहीं भर पाती

Thursday, January 26, 2012

कल्‍पना या यथार्थ


सीमा स्‍मृति

उडेल सको अपनी थ‍कान,मुस्कान
 चिढ़ और गुस्‍सा
  चिल्‍लाया जा सके
 झल्‍लाया जा सके
  शब्‍द बोझ न हो
 जहाँ सोच पर बंधन न हो
 दर्द को दर्द की ही तरह बाँटा जा सके
 खुशी को जिया जा सके
 प्रश्‍नों के तीर न हों
 डर न हो रिश्‍ते की टूटन का
 भय न हो खो देने का
 छूट हो कुछ भी कहने की-
मन में जो भी धमक दे
 जहाँ लम्‍हें शर्तो पर न जिए जाएँ
 माँगे हो
न पूरी होने पर, अनजाना डर न हो
आदर सम्‍मान केवल शब्‍दों की चाशनी में लिपटे न हों,
रिश्‍ता बन सके ,आईना जिन्‍दगी का
पाना चाहता है हर शख़्स यह खूबसूरत रिश्‍ता
दे पाना, यह खूबसूरती
 आज भी है, प्रश्‍नों की सलीब पर ।

Tuesday, January 17, 2012

आँसू तुम्हारे(हाइकु)


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
1
आँसू तुम्हारे
भिगो गए आँगन
मेरे मन का ।
2
देखे न जाएँ
अपनों के  ये आँसू
खूब रुलाएँ
3
पोंछ दूँ नैन
मिल  जाए मन को
दो पल चैन
4
तुमने जोड़ा
ऐसा प्यारा ये  नाता
जीना सिखाता
5
तुम न आतीं
मन के मन्दिर में
जले न बाती
6
मेरी हथेली
तेरे भीगे नयन
लाओ पोंछ दूँ
-0-

Saturday, January 7, 2012

उन्हें पा गए


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

जब ज़िन्दगी थी, तब प्याला न था ।
जब साँसें मिलीं तब हाला न था ।
साँझ अब जीवन की चली आई,
देखा कि संग में उजाला न था ।
तभी कुछ पुराने मीत  आ गए ।
साँस जितनी बची , हमें भा गए ।
दो पल की खुशियाँ बनी ज़िन्दगी
आज मोड़ पर जब  उन्हें पा गए ।
 -0-

Wednesday, January 4, 2012

वर्ष 2012


आप सबको  वर्ष 2012
की कोटिश: बधाई!


समय की देहरी
सूरज धरे
जीवन में सबके
भोर उतरे
पुष्पहार
हर द्वार
हर बार सजे
मधुर राग
नस-नस में
अनुराग भरे
-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

Tuesday, December 27, 2011

ओस की तरह


ओस की तरह (ताँका)
-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
1
हथेली छुए
तुम्हारे गोरे पाँव
नहा गया था
रोम-रोम पल में
गमक उठा मन।
2
समाती गई
साँसों में वो खुशबू
मिटे कलुष
तन बना चन्दन
मन  हुआ पावन।
3
तपी थी रेत
भरी दुपहर -सा
जीवन मिला
मिली छूने भर से
शीतल वह छाँव
4
आज मैं जाना-
मन जब पावन
खुशबू भरे
ये मलय पवन
ये तुम्हारे चरन।
-0-

Saturday, December 24, 2011

विष से भरी बयार (दोहे)


       त्रिलोक सिंह ठकुरेला
किस से अपना दु:ख कहें, कलियॉं लहूलुहान।
माली सोया बाग में, अपनी चादर तान।।
कपट भरे हैं आदमी, विष से भरी बयार।
कितने मुश्किल हो गये, जीवन के दिन चार।।
खो बैठा है गॉंव भी, रिश्तों की पहचान ।
जिस दिन से महॅंगे हुए, गेहूँ, मकई, धान।।
खुशियाँ मिली न हाट में, खाली मिली दुकान।
हानिलाभ के जोड़ में, उलझ रहे दिनमान।।
चौराहे पर आदमी, जायेगा किस ओर।
खडे हुए हैं हर तरफ, पथ में आदमखोर।।
जीवन के इस गणित का, किसे सुनायें हाल।
कहीं स्वर्ण के ढेर हैं, कहीं न मिलती दाल।।
सीख सुहानी आज तक, आई उन्हें न रास।
तार- तार होता रहा, बया तुम्हारा वास।।
घर रखवाली के लिए, जिसे रखा था पाल।
वही चल रहा आजकल, टेढ़ी -मेढ़ी चाल।।
द्वारे -द्वारे घूमकर, आखिर थके कबीर।
किसको समझाएँ यहॉं, मरा आँख का नीर।।
शेर सो रहे माँद में, बुझे हुए अंगार।
इस सुषुप्त माहौल में, कुछ तू ही कर यार।।
-0-

Tuesday, December 20, 2011

मान -सम्मान


कैनेडियन पंजाबी साहित्य सभा’टरांटो’ द्वारा पंजाबी और  हिन्दी के  दो प्रसिद्ध विद्वानों डा0  करनैल सिंह   थिन्द  और  रामेश्वर काम्बोज हिमांशु का मान -सम्मान

ब्रैम्पटन : (बलबीर मोमी/डा0सुखदेव झंड) रविवार 18 दिसम्बर को   ‘कैनेडियन पंजाबी साहित्य सभा टरांटो’  द्वारा अपनी  मासिक-संगोष्ठी में  पंजाबी और हिन्दी के दे दो प्रसिद्ध विद्वानों ‘गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी, अमृतसर के  -रजिस्ट्रार और  प्रोफैसर हैड (डा0) करनैल सिंह   थिन्द  और  दिल्ली से पधारे प्राचार्य रामेश्वर काम्बोज हिमांशु को उनके द्वारा शिक्षा भाषा , साहित्य और सभ्याचार और लोक साहित्य के क्षेत्र में  किए गए  योगदान हेतु  सम्मान पत्र ,  घड़ियाँ और शॉल भेंट करके सम्मानित किया।
   सभा के आरम्भ में पिछले दिनीं पंजाबी भाषा के दिवंगत कलाकारों औए  लेखकों  कुलदीप माणक, देवानन्द ,पुष्पा हंस, सवरन चन्दन और  गुरमेल मडाहड़ को एक  इक मिनट का मौन रखकर श्रद्धांजलि  भेंट की गई। इसके उपरान्त, सभा के  प्रधान प्रिंसिपल पाखर सिंह   और संरक्षक  प्रो0 बलबीर सिंह   मोमी नें दोनों विद्वानों का स्वागत करते हुए  सदस्यों को उनके बारे में संक्षिप्त जानकारी दी । । दोनों विद्वानों  ने   अपने -अपने  क्षेत्र में किए गए योगदान के बारे में  सभा के सदस्यों को विस्तारपूर्वक बताया । डा0 थिन्द  ने अपने  व्याख्यान में  फोकलोर (लोकसाहित्य) की परम्परा से मिलने वाली जानकारी दी  ।उन्होंने कहा कि  इसका  दायरा बड़ा विशाल है और  इसमें  लोक-गीत, लोक-धर्म, लोक-बोलियां ,टप्पे,  लोककथा , पहेलियाँ लोक-कला, रस्मो-रिवाजवहम-भ्रम, दवा-दारू, आदि सब कुछ आ जाता है। उन्होंने  पंजाबी भाषा को  अंगरेज़ी और अन्य  भाषाओं के सम्भावित ख़तरे से सावधान होने की बात भी  पूरा ज़ोर देकर की।
रामेश्वर काम्बोज हिमांशु ने हिन्दी लघुकथा के बारे में चर्चा  करते हुए  अपनी  पुस्तकों के बारे में तथा  हिन्दी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं  खास तौर से पंजाबी में एक दूसरे के सहयोग से हो रहे कार्यों के बारे में जानकारी दी । । उन्होंने कहा कि आज कम्प्यूटर -साफ़्टवेयर (कन्वर्टर) तैयार हो गए हैं , जिनकी  मदद से  अलग-अलग  भाषाओं के साहित्य को एक लिपि से दूसरी लिपि में बदलना और  लिखना-पढना सम्भव हो गया  है। उन्होंने अपने कुछ दोहे सुनाए और एक लघुकथा का भी पाठ किया।
सभा के दूसरे सत्र में कई सदस्यों ने अपनी  कविताएँ, गज़ल और  गीत सुनाए। सभा में  महिन्दर दीप ग्रेवाल, श्रीमती  दुग्गल, जगीर सिंह   काहलों, सुखिन्दर, कर्नल एस 0पी0सिंह  , प्रो: मदन बंगा, परमजीत ढिल्लों, अंकल दुग्गल, प्रिंसिपल चरन सिंह   भोरशी, मलूक सिंह   काहलों, डा0 सुखदेव झंड, तलविंदर मंड, मनजीत झम्मट, गुरदिआल सहोता, श्री  ग्रेवाल तथा कई और व्यक्ति उपस्थित थे।

काँच के घर ( ताँका)


छाया:हिमांशु

रामेश्वर काम्बोज हिमांशु
1
काँच के घर
बाहर सब देखे
भीतर है क्या
कुछ न दिखाई दे
न दर्द सुनाई दे ।


2
काँच के घर
काँपती थर-थर
चिड़िया सोचे-
हवा तक तरसे
जाऊ कैसे भीतर।
3
छाया: हिमांशु
बिछी है द्वार
बर्फ़ की ही चादर
काँच के जैसी
चलना सँभलके
गिरोगे फिसलके ।