1-दीपावली: स्मृतियों के नाम/ डॉ. पूनम चौधरी
आँगन में सजे हैं दीप —
समय के पुराने पात्रों में,
मिट्टी के,
थोड़े टेढ़े, थोड़े थके हुए।
तेल की गंध हवा में घुली है,
कपोलों पर फैलती गरमाहट,
और धुएँ में
धीरे-धीरे आकार लेने लगते हैं
चेहरे —
जिनमें अतीत अब भी साँस ले रहा है।
पहला दीप —
पिता के नाम।
काँपती है लौ,
पर बुझती नहीं —
जैसे किसी अदृश्य हाथ की
अब भी छाया हो उस पर।
उनकी आवाज़ अब भी आती है —
"धीरे चलो, कहीं हाथ न जल जाए..."
और मैं सोचती हूँ,
अब हाथ नहीं जलते,
पर हृदय हर बार
थोड़ा और पिघल जाता है।
दूसरा दीप —
माँ को समर्पित!
उसमें गंध है हल्दी की,
तुलसी की, आँचल की —
और किसी पुरानी आरती की
मद्धम स्वर-लहरी,
जो अब भी कमरे के कोनों में
मौन का संगीत बनकर बजती है।
तीसरा दीप —
उन मित्रों के नाम
जो साथ चले थे —
स्मृतियों की पगडंडियों पर,
जिनके शब्द अब पत्तों की तरह झरते हैं
हर पतझड़ में,
और फिर भी
धरती को नया हरापन देते हैं।
चौथा दीप —
उन सपनों के लिए
जो अधूरे रह गए,
जिन्हें कहने का समय नहीं मिला,
पर जो अब भी हृदय में अंकित हैं —
जैसे बंद खिड़की से देखा गया आसमान।
हवा धीरे-धीरे काँपती है
हर लौ के चारों ओर।
कोई दिखाई नहीं देता,
पर हर प्रकाश के पीछे
अनुभूत होता है —
किसी का होना।
आँगन के कोने में
तुलसी झिलमिला रही है —
उसकी पत्तियों पर ओस है,
जो स्मृतियों की तरह चमकती है,
जैसे जीवन अब भी
मृत्यु की निस्तब्धता में साँस ले रहा हो।
आकाश में गूँजती है आतिशबाजी —
पर भीतर,
किसी पुरानी हँसी की गूँज है,
किसी पुराने नेह की छाया है,
जो बताती है —
उजाला कभी बाहर से नहीं आता,
वह भीतर की विरह से जन्मता है।
धीरे-धीरे
दीयों की नदी बन जाती है —
प्रकाश की निर्वेद धारा,
जो समय के पार बहती है।
उसमें झलकते हैं बिम्ब —
चेहरों के, छवियों के,
अनगिनत ‘थोड़े-से बीते हुए’ क्षणों के।
कहीं कोई शोक नहीं,
न कोई विलाप —
केवल एक गहरा, स्थिर भाव —
जैसे आशीष की लहर
धरा के आर-पार बह रही हो।
और अब —
ये दीप-माला सबकी है,
हर लौ में किसी की स्मृति है,
हर छाया में किसी का आलिंगन।
यह दीपावली
किसी एक क्षण की नहीं —
मानवता की सामूहिक स्मृति है;
क्योंकि हर उजाला
जन्मता है अंधकार से,
हर अनुपस्थिति
किसी और की उपस्थिति बन जाती है।
यही दीप-धर्म है —
बुझकर भी
जलने का अर्थ दे जाना।
इसलिए समर्पित —
ये दीपमाला,
उन सबके नाम,
जो बीत गए,
किंतु धूमिल नहीं हुए,
जो जाने के बाद भी
रहे बसे,
हमारे भीतर —
उजास की तरह,
प्रेम की तरह,
अनंत की तरह।
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2-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
साथ सारे छोड़ देंगे मोड़ पर;
एक तुम हो साथ, यह विश्वास है।
हम अँधेरों से लड़ें, आगे बढ़ें,
होगा उजेरा आज भी आस है।
आओ
लिखें दीप नभ के भाल पर
अधर हँसे कि झरें पारिजात भी।
सुरभि में नहाकर हो पुलकित धरा
ओस भीगे सभी पुलकित पात भी।
बुहारता उदासियों की धूल को
थिरकता गली -गली में उजास है।
हम अँधेरों से लड़ें, आगे बढ़ें
होगा उजेरा आज भी आस है ।
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बहुत ही शानदार लिखा है ।
ReplyDeleteहार्दिक बधाई आपको।
वाह्ह्ह.... इतनी सुंदर कविता!!!! भावपूर्ण पंक्तियों से सिक्त... हार्दिक बधाई आदरणीया पूनम जी 🙏
ReplyDeleteदोनों कविताएँ उत्तम। बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति।सुदर्शन रत्नाकर
ReplyDeleteसकारात्मक भाव से परिपूर्ण.. मन को मोह लेती आपकी कविता.. जीवन दर्शन का एक सुंदर उदाहरण.... 🌹🙏 हार्दिक शुभकामनाएँ आदरणीय रामेश्वर सर 🙏🙇♀️
ReplyDeleteदोनों कविताएँ बहुत अच्छी लगी. सीखने -समझने के लिए उपयुक्त मंच. हार्दिक बधाई ! - रीता प्रसाद.
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