पथ के साथी

Showing posts with label कविताएँ. Show all posts
Showing posts with label कविताएँ. Show all posts

Sunday, November 15, 2020

कविता-पाठ-तेरह रंगों में रँगी, कविता की एक शाम

 संचालन - मानोशी चटर्जी, अम्बिका शर्मा ,कनिका वर्मा,संदीप कुमार त्यागी,प्रीति अग्रवाल,लता पांडे,

डॉ कुमार भारती,डॉ रेणुका शर्मा,पूनम चंद्रा ’मनु’, सविता अग्रवाल,इंदिरा वर्मा,अखिल भंडारी,आशा बर्मन

मानोशी चटर्जी 

नीचे दिए गए लिंक को क्लिक करके कविताएँ सुनिए-



तेरह रंगों में रँगी, कविता की एक शाम

Saturday, August 22, 2020

1024

 1-शशि पुरवार  

 1

कुल्लड़ वाली चाय कीसोंधी-सोंधी गंध

और इलाइची साथ मेंपीने का आनंद

2

बाँचे पाती प्रेम कीदिल में है तूफान

नेह निमंत्रण चाय कामहक रहे अरमान

3

गप्पों का बाज़ार है ,मित्र मंडली संग

चाय पकौड़े के बिनाफीके सारे रंग

4

मौसम सैलानी हुए रोज़ बदलते गाँव

बस्ती बस्ती चाय कीटपरी वाली  छाँ

5

घर- घर से उड़ने लगीसुबह चाय की गंध

उठो सवेरे काम परजीने की सौगंध

6

चाहे महलों की सुबहया गरीब की शाम

सबके घर हँसकर मिलीचाय नहीं बदनाम

7

थक कर सुस्ताते पथिकया बैठे मजदूर

हलक उतारी चाय हीतंद्रा करती दूर

8

कुहरे में लिपटी हुई छनकर आयी भोर

नुक्कड़ पर मचने लगागर्म चाय का शोर

-0-

2- चाहत

सविता अग्रवाल 'सवि' (कैनेडा)

 भरोसा जो टूटा था

जोड़ रही वर्षों से....

बोलियाँ खामोश हैं

कितने ही अरसों से ...

दस्तक भी गुम है अब

बारिश के शोर में ....

अधूरे जो वादे थे

दब गए संदूकों में ...

नफरतें धो रही

प्रेम रस के साबुन से ...

चट्टानें जो तिड़क गयीं

भर ना पाई परिश्रम से ...

उड़ गई जो धूल बन

ला ना पाई उम्र वही ...

नीर- जो सूख गया

लौटा ना सकी सरोवर में ...

अक्षर जो मिट गए

लिख ना पाई फिर उन्हें ...

पुष्प जो मुरझा गए

खिल ना सके बगिया में ...

पत्ते जो उड़ गये

लगे ना दरख्तों पर ...

बर्फ़ जो पिघल गयी 

जम ना सकी फिर कभी ...

अगम्य राहें बना ना पाई

सुगम सी डगर कभी ...

निरर्थक यूँ जीवन रहा

हुआ ना सार्थक कभी ....

फिर भी एक आस है 

बढ़ने की चाह है ....

हौसले बुलंद हैं ...

चाहतें भी संग हैं ....

  email: savita51@yahoo.com

--0-         

 

Thursday, August 20, 2020

कविताएँ

 1- अनिता मंडा

 बड़ी बहू सचमुच नाकदार थी पूरे ख़ानदान की

कभी नज़र उठाकर नहीं देख पाया

उसकी तरफ कोई भी

 

मझली की भी ठीक ही थी नाक

बच्चे सारे उसी पर गए

बिटिया को सब परी बताते थे

 

छोटी बहू की इतनी बड़ी नाक

हर कोई ताना देकर कह देता

चिराग़ लेकर ढूँढ़ी होगी 

इतनी बड़ी नाक वाली

क्या छुटका आसमान से टपका था

 

कई दिनों तक दोस्तों ने उसका मज़ाक़ उड़ाया

दुल्हन नहीं नाक आई है

सुना था साल तक

छुटका चौबारे में ही सोता था

 

घर का आँगन रसोई दीवारें

यहाँ तक कि आसमान भी

गूँजता था नाक की चर्चा से 

 

अम्मा को जब गठिया हुआ

घुटनों पर ग्वारपाठे की ख़ूब मालिश की

छुटके की बड़ी नाक वाली बहू ने

और बाऊजी को जब अपाहिज कर दिया

मुएँ पक्षाघात ने

गीला-सूखा करने में कभी

नाक-भौं नहीं सिकोड़ी छोटे की बहू ने

ननदों को सदा पहना-ओढ़ा भेजती है

छोटे की बहू

 

कब इतना समय बह गया नदी की तरह

कि अब सास बनने वाली है छोटी बहू

जोर-शोर से ढूँढ़ी जा रही है लड़की

 

खाट में पड़ी अम्मा कहती है

"सुवटे की चोंच-सी" होना चाहिए

दुल्हन की नाक.

-0-

2-इन्द्रधनुष 

प्रियंका गुप्ता 

 

सुनो,

हवाओं में यूँ ही बेफिक्र टहलते कुछ शब्द

कुछ धीमे से बोल,

कभी तो किसी सुगंध की तरह

बस छू के निकल जाते हैं

सराबोर से करते,

तो कभी

किसी तितली की मानिंद

हथेली पर आ सुस्ताते हैं;

कुछ तितलियाँ मुट्ठियों में नहीं समाती 

बस उड़ जाती हैं

और छोड़ जाती हैं 

एक भीनी सुगंध

और लकीरों में कुछ रंग;

सुनो,

तुमने इंद्रधनुष उगते देखा है क्या ?

 -0-ईमेल: priyanka.gupta.knpr@gmail.com

3- बैरी सुन लो भारत -नाद (आल्हा छन्द)

 ज्योत्स्ना प्रदीप

 

भारत की  गरिमा प्यारी है , करे  अमन से  हर   संवाद ।

बहुत हुई  अब  बातें  सारी ,बैरी  सुन    लो  भारत- नाद ।

 

हर दम  सीमा प्रहरी जागाकरो  नहीं  बैरी  कुछ  भूल ।

तेरे  छल को   माटी   करनेरोम- रोम  बन जाता  शूल ।

 

विजय   हमारी  सदा   रही  हैजीते   लेकर    उर   में   आग ।

क्रोध-अगन इस दिल में जलती वीरों   का  तो   हर   दिन  फाग ।

 

मंगल  पाण्डे,  झाँसी -रानीभगत, राज, सुखदेव शहीद ।

बैरी-   चोला  लहू    नहाया तभी   मनाई    होली ,   ईद ।

 

मंत्र तिलक गाँधी के  प्यारेलालाजी   की  थी   हुंकार ।

अंग्रेज़ों   का   दंभ चूर कर, हिले सभी  फिर सागर- पार।

 

नहीं  डरे   हैं  नहीं  डरेंगेचाहे   बैरी   हो  चालाक ।

चेत  पड़ोसी 'चीनी भाई,' आतंकित है अब तक पाक़ ।

-0-


Wednesday, July 22, 2020

1018-आँसू मनमीत हैं


1-आँसू मनमीत हैं
डॉ.सुरंगमा यादव

दर्द की पनाह में
जिंदगी गुज़र ग
जिस तरफ़ बढ़े कदम
रोशनी सिहर ग

स्वप्न टूटने लगे
नैन भीगने लगे
प्रीत को पुकारते
चाँद रात ढल ग

कल कभी आगा
फ़ासला मिटागा
हश्र ये हुआ मगर
राह ही बदल ग

तेरी ये बेरुख़ी
मुझे रास आ ग
जीत की न कड़ी
हार आज बन ग

आँसू मन-मीत हैं
बनते ये गीत हैं
हम  न होंगे तो क्या
भोर न खिल गई।
-0-
2-मुझे जिसने छाँव दी उम्र भर
रश्मि विभा त्रिपाठी 'रिशू'
[पिता को समर्पित एक कविता, जो मैंने उस वक्त लिखी थी जब वे हॉस्पिटल के आई सी यू में अपनी ज़िंदगी की आखिरी साँसें गिन रहे थे]


मुझे जिसने छाँव दी उम्र भर

वो पेड़ खोखला हो चला है
यक़ीनन
मगर वक़्त की आँधी की मार से
तब बचके कहाँ जाऊँगी
मैं मों की धूप में
फिर छाँव की आस लिये
कहाँ जाऊँगी
जड़ें माना कमज़ोर हो चली हैं
हारी थकी टहनियाँ झुकने लगी हैं
ये देख दुख का भार बढ़ रहा है
साँस मेरी रुकने लगी है
सोच रही हूँ कि
ये पेड़
जो हवा के एक झोंके से
कहीं गिर जागा
ताउम्र जिसके साये में रही
रूह ये सह न सकेगी तूफ़ा
मन थपेड़ों की मार से मर जागा
ज़िंदगी पूछ रही है
तुझसे या रब!
जब दुख का सूरज होगा सर पर
तब बिना उस शजर के
कैसे कटेगा सफ़र!
-0-

Tuesday, April 30, 2019

898


1-बात कुछ थी नहीं 
      शशि पाधा 
  
   बात कुछ ऐसी न थी   
फिर भी कुछ हो गई 
अधर तक रुकी तो थी 
आँख क्यूँ भिगो गई |

कहा-सुना कुछ नहीं 
कुछ मलाल रह गया 
मौन के सैलाब में 
रिश्ता एक बह गया 
    बीच मझधार में 
    कश्तियाँ डुबो गई 
    बात कुछ हो गई|

पदचाप न, थी आहटें 
न धडकनों का राग था 
न लिखी इबारतें 
न आँसुओं का दाग था 

वक्त की किताब में 
 धरी, कहीं खो गई 
 बात ऐसी हो गई |

दो कदम रुके रहे 
क्या थी मजबूरियाँ
फासलों के दरमियाँ
बढ़ गई दूरियाँ

     बुझे बुझे अलाव में 
    अंगार सी बो गई 
    बात कुछ ऐसी न थी 
    फिर भी कुछ हो गई|

-0-
2- बिछड़कर डाल से
भावना सक्सैना

बिछड़कर डाल से
घूम रहीं है मुक्ति को
समा जाना चाहती है 
वो अंक में धरती के
कि चुकाने है
कर्ज़ ज़िन्दगी के।
ठौर मिलता नहीं
बावरी घूमें यहाँ-वहाँ
इस कोने से उस कोने
हवा पर सवार
कभी घुस आती हैं
बिल्डिंग के भीतर
कुचली जाती हैं 
भारी बूटों और 
पैनी लंबी हील से।
धरती उदास है
कि एक वक्त था जब 
शाख से जुदा हुई 
सुनहरी पत्तियाँ 
मचलती थीं
उसके वक्ष पर 
आलोड़ित होती
मृत्ति कणों में
होतीं उनमें एकाकार
उसका रोम रोम 
पुलक जाता था।
बरसते थे 
आशीष सैकड़ों
जैसे कोई माँ 
असीसती है
गलबहियाँ डाले 
अपने लाडलों को
आज चीत्कार रही धरती!!!
कि अपने आँचल के 
जिस छोर से
आश्रय दिया उसने
विकास की बेल को
उसने ढाँप दिया है
कोमल मृत्ति कणों को
और सिसक रही है
धरा बेहाल, ओढ़े 
सीमेंट-पत्थरों की चादर।
-0-

Saturday, April 27, 2019

897-सपनों की करुण पुकार !



कमला निखुर्पा

सपने रोज आवा देते है ,
सुनो…हमारे संग चलो ।
मन की घाटियाँ  सूनी हैं,
कुछ गीत नए गुनगुनाओ।
सपने पुकारते हैं , रुको, हमें भी साथ ले लो
पल दो पल के लिए ही सही
कल्पना के कैनवस पर कुछ रंग नए छिटकाओ।

सपने, रोज करते हैं शिकायत, देते हैं उलाहना
कि तुम कुछ सुनती ही नहीं
पढ़ती हो क्यों? कि जब तुम कुछ गुनती ही नहीं।
बस चलती रहती हो यूँ ही,
ज्यों दीवार में टकी बेजान सी घड़ी।

सपने बुलाते हैं, कहते हैं बार-बार
आ जाओ। !
नीले नभ में उड़ते बादलों ने गरजकर पुकारा है तुम्हें,
अपने पंख लो पसार।
दूर क्षितिज में इंद्रधनुष का सतरंगी झूला भी है
भर लो ऊँची पेंग ।

सपने टेरते हैं तुम्हें, भागो मत, रुको जरा,
छू लो मखमली घास को,
कोमल एहसास को,  पैरों से
अपने जूते तो उतार लो तुम।

तुम्हारी हड़बड़ी को देख, ये नन्हा सा बैंजनी फूल भी
पंखुड़ी फैलाकर हँस पड़ा
संग इसके तो मुसकरा लो तुम ।

वो देखो, चहक उठी है डाल पर बैठी वो चंचल चिड़िया,
सुनो जरा, वो क्या गा रही है।
अपने कानों से अब ये मोबाइल तो हटा लो तुम।

सपने देते रहते हैं आवा तुम्हें
पर तुम घिसती रही जूठे बर्तनों की मानिंद
पर चमक न पाई कभी।
तुम गुँथती रही आटे की तरह हरदम ,
आकार न ले पाई कभी।
हर रोज छिलती रही, कटती रही जिन्दगी तुम्हारी,
बासी तरकारी की तरह और बेस्वाद बन गई।

अब सपने आवा नही देते,
रोते हैं, चीखते हैं, चिल्लाते है।
पर तुम्हे सुनाई नही देता उनका रोना ,बिसूरना।
तुम्हे तो नज़र आती है केवल, दीवार पे टँगी घड़ी,
जो घर-बाहर हर जगह तुम्हारे साथ है रहती ।
घड़ी की टिक-टिक में दबकर रह जाती है, सिसकी सपनों की।

जिंदगी की दौड़ में सरपट भाग रही हो तुम,
मुड़के तो देखो जरा,
सपने खड़े हैं अभी भी वहीं,
जहाँ बरसों पहले खड़े थे ।
इतनी दूर कि सुनाई नहीं देती तुम्हें,
अपने ही सपनों की करुण पुकार।
-0-
(12 अप्रैल-2011)