पथ के साथी

Tuesday, May 1, 2012

जीवन -राग ( हाइकु)



रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
1
धोखा दे नेता
लुटती है जनता
ठौर न  मिले ।
2
खा गए देश
गरीब बदहाल
कौर न मिले ।
3
हरे न भूख
आँकड़ों का खेल
चिढ़ाता रोज़ ।
4
भोर समीर
परसे जब तन
हरसे मन ।
5
कितनी पीर !
कोकिल हो अधीर
दिल दे चीर
 6
जीवन -राग
लगता जब दाग़
गूँजे संगीत
7
कच्ची कली-सी
कच्ची नींद जो टूटे
सपने रूठे
8
जीवन-नैया
तूफ़ानों में जो घिरी
छूटे किनारे
9
नहीं कुसूर
हम हैं कोसों दूर
मन के पास 

Thursday, April 19, 2012

हाइकु हो ना ?


कमला निखुर्पा


1
गागर छोटी 
भरूँ मैं तो सागर 
हाइकु हो ना ?
2
बहती जाए 
नयनों से नदियाँ 
सागर हो क्या ?
3
महक उठा
मोरा  माटी- सा तन 
फुहार हो क्या ?
4
डूब चली मैं 
नेह- ज्वार उमड़ा
चन्दा हो क्या ?
5
तिरती जाऊँ 
ज्यों लहरों पे नैया 
खिवैया हो  क्या ?
6
तुमने छुआ 
क्या से क्या बन चली 
पारस हो क्या ?
7
कुछ यूँ लगा 
उमंगित है मन 
त्योहार हो क्या ?
8
कौन हो तुम ?
कितने रंग तेरे ?
चितेरे हो क्या ?
9
जो भी हो तुम
हो जनमों के मीत 
कह भी दो हाँ !
10
मैं नहीं बोली -
बोल पड़ी कविता 
छंद ही हो ना ?
-0-




Wednesday, April 18, 2012

साथी


सीमा स्‍मृति

जिन्‍दगी करती है सवाल हमसे
क्‍या है गम
और
है क्‍या खुशी ?
अतल सागर में
तलशाता है क्‍यों कोई निधि
प्रश्‍न, लहरो से उठते हैं निगाहों में
छू कर किनारा
कभी शांत- श्‍वेत मेघ से
लौट जाते हैं
और
कभी तोड़ डालना चाहते हैं किनारा
कठोर वक्‍त बन
सोचती हूँ-
उत्तर दूँ या नहीं
खुशी और गम की
कोई सीमा नहीं
हर बदलते क्षण में
ये बंध जाते हैं
प्रश्‍न करने से पूर्व
और
उत्तर की प्रतीक्षा में
संवेदना के ये साथी
रंग बदल जाते हैं।
-0-

Wednesday, April 11, 2012

उपचार


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
      नेताजी कई दिन से बीमार थे । अस्पताल के कई बड़े डॉक्टर परिचर्या में लगे  हुए थे । दवाइयाँ भी बदल-बदलकर  दी जा रही थीं। नेताजी की मूर्च्छा फिर भी न टूट पाई  । चिन्ता बढ़ती जा रही थी । गण व्याकुल हो उठे । प्रमुख गण को एक उपाय सूझा । वह दौड़ा-दौड़ा एक दूकान पर गया । वहाँ पार्टी के प्रान्तीय अध्यक्ष की कुर्सी  मरम्मत के लिए आई थी । वह घण्टे भर के लिए कुर्सी माँग लाया । चार लोगों ने भारी-भरकम नेता जी को कुर्सी पर बिठा दिया । उनकी चेतना लौट आई ।
डॉक्टरों ने राहत की साँस ली ।
-0-

Thursday, April 5, 2012

पीर- तरी(चोका)


 रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

पीर-तरी से
निकले सागर में
तुमसे कैसे
अपने दु:ख बाँटूँ !
घोर अँधेरा
पथ है अनजाना
बोलो कैसे मैं
दर्दीले पल काटूँ ।
जितने मिले
हमें प्राण से प्यारे
न चाहकर
वे हर बाजी  हारे
गहन गुफ़ा
पग-पग है खाई
कैसे इनकी
गहराई पाटूँ !
जो दिखते हैं
महामानव ज्ञानी
उनकी लाखों
हैं कपट कहानी
रोती दीवारें
सन्तापों की हिचकी
लाक्षगृह में
घिरे जीवन भर
बूँद-बूँद को
तरस गए तुम
सुने न कोई
सागर -सी गाथा
दूँ प्यार किसे ?
सब पर पहरा
हर द्वारे पे
है सन्नाटा गहरा
कोई न बूझे
जले मन की ज्वाला
राह न सूझे
किस -किस पथ के
मैं सब काँटे छाँटूँ  ।
-0-

Sunday, April 1, 2012

नये सेतु


सीमा स्मृति
1-संघर्ष
न्धकार से लड़ने की परिभाषा से दूर,
रोशनी से आवरित उस भीड में,
जिसकी चकाचौंध में मिचमिचाने लगी है आँखें,
धुँधलाने लगे है रास्ते,
खो गई है शक्ति,
स्त हो गई है सारी धारणाणाएँ,
संर्षसामर्थ्य और चेतना के संग
निकल पडा है जीवन
किसी नये सेतु के सहारे
उस पार
समकालीन जीवन -मं‍‍‍‍‍थन करने ।
-0-

2-मुलाकात

तुझसे मिलना
इक रवायत नहीं
किसी उम्र का
महकता सुरूर भी नहीं
बदली हवाओं में
थमा सा कोई नशा भी नहीं ।
तुझ से मिलना
जिन्दगी में मिले छालों को,
अपने ही हाथों से मरहम लगाना -सा
दर्पण में अक्स की पहचान सा
रात के बाद दिन से मुलाकात -सा
यथार्थ के टुकडों को सजोना -सा
अतीत में थमे एहसास सा लगता है मुझे ।
-0-

Thursday, March 29, 2012

एक सार्थक चित्र


एक सार्थक चित्र
-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

छोटे-छोटे हाथ
कर सकते हैं बहुत कमाल
एक नक्शा बनाकर
पूरी दुनिया को
उसमें उतार सकते हैं
एक हल्की -सी छुअन
दो प्रेम -पगे शब्द
किसी  के सोए मन में
समन्दर पार करने की
ऊर्जा भर सकते  हैं ।
एक आश्वासन
अपनत्व का महल खड़ा कर देता है
ठीक उसी तरह
जैसे तुम्हारा सजाया
एक सार्थक चित्र
शब्दों को जुबान दे देता है -
कि वे घुलमिलकर बतियाएँ
छोटे बच्चों की तरह खिलखिलाएँ
सारी दुनिया भूलकर
गले लग जाएँ
-0-

Friday, March 23, 2012

खुशी पल की -कुछ न माँगूँ(हाइकु)


1-खुशी पल की:रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
1
खुशी पल की
भटकी हुई बूँदे
ज्यों बादल की ।
2
आहट आई 
आँगन में यादों की
 दुबके पाँव ।
3
खुशियाँ न दो
 ग़म पीछे छुपे हैं
 यहाँ आने को ।
-0-

2-कुछ न माँगूँ :डॉ. हरदीप कौर सन्धु
1
 कुछ न माँगूँ
बस पल दो पल
ख़ुशी के सिवा
2.
कभी ढूँढ़ती
यादों के आँगन में
ख़ुशी अपनी
3
बिन बुलाए,
ये गम पता नहीं
क्यों चले आए !
-0-

Monday, March 19, 2012

मुबारक हो






मुमताज टी-एच खान
मुबारक हो
दिन हज़ारों बार
दुआ हमारी
आता रहे ये दिन
ऐसे ही सालों-साल-0-

Thursday, March 15, 2012

घर लौटने तक- 3 मुक्तक


घर लौटने तक
-डॉ अनीता  कपूर
( 15 मार्च को पंजाब विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग और केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय  के संयुक्त  तत्त्वाधान में आयोजित हिन्दीतर  भाषी नवलेखक शिविर चण्डीगढ़ में  मुख्य वक्ता के रूप में पढ़ी गई ।)
तुमसे अलग होकर
घर लौटने तक
मन के अलाव पर
आज फिर एक नयी कविता पकी है
अकेलेपन की आँच से ।
 समझ नहीं पाती
तुमसे तुम्हारे लिए मिलूँ
या एक और
नयी कविता के लिए
 -0-
2-तीन मुक्तक
ज्योत्स्ना शर्मा
1
याद 'उनकी' हमें 'उन-सी प्यारी लगे ,
हर अदा इस ज़माने से न्यारी लगे ।
वो आयें ,ना आयें ये उनकी रज़ा;
बेरुखी भी हमें उनकी प्यारी लगे ।।
2
नयनों में स्वप्न जैसा सजाया तुम्हें,
मन्नतें लाख माँगी तो पाया तुम्हें
अब तुम्हें भूल जाऊँ ये मुमकिन नही;
इस दिल में धड़कनों- सा बसाया तुम्हें ।।
3
मोतियों को सीप में पलने नहीं देते ,
आँसुओं को भी यहाँ लने नहीं देते ।
किस कदर बेदर्द हैं ये आज के रिश्ते ;
देते हैं दर्द ,'आह ' निकलने नहीं देते । ।

Thursday, March 8, 2012

मेरे सूरज (चोका )


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

मेरे सूरज
बादल तो आएँगे
घुमड़कर
अम्बर में छाएँगे
रोकें उजाला
तुम्हें सहना होगा
लहर बन
चट्टानों से टकरा
बहना होगा
पीछे नहीं मुड़ना
दूर है जाना
अँधेरे भँवर से
न घबराना
सागर तक जाना
आँसू पोंछके
डुबकी  है लगाना
मोती बटोर लाना  ।
-0-

Friday, March 2, 2012

तुमको पाया( चोका )


तुमको पाया( चोका ) 
-रामेश्वर काम्बोज हिमांशु
खाक़ थी छानी
वीरानों की हमने
कभी भटके
मोड़ पर अटके
कोई न भाया,
भरी भीड़ में तब
तुमको पाया ।
तुम कहाँ छुपे थे ?
यूँ बरसों से ,
खुशबू बनकर,
दूध-चाँदनी,
कभी भोर का तारा,
नभ-गंगा से
कभी रूप दिखाया ।
किया इशारा
तुम ही थे अपने
अन्तर्मन से
सुख-दु:ख के साथी
प्राणों की ऊष्मा
बनकर के आए
भर गले लगाया ।
-0-

Thursday, February 23, 2012

उदास न होना



-रामेश्वर काम्बोज ‘ हिमांशु

बहुत हैं बादल
घिरे अन्धेरे
उदास न होना
तुम चाँद मेरे।

आशा रखोगे
बादल छँटेंगे
दु:ख भी घटेंगे
होंगे सवेरे ।
-0-

अकेली छुअन
भिगो देगी मन
सींचेगी प्राण
द्वारे तुम्हारे ।

तेरा दु:ख सहूँ
मैं किससे कहूँ-
दे दो सभी दु:ख
मुझको उधारे।

लहरें तरसतीं
तट को परसतीं
ग्रहण लगा चाँद
सागर निहारे ।
-0-