धरती: स्मृति में धड़कता जीवन/ डॉ . पूनम चौधरी
धरती —
ना किसी रेखा से बँधी,
ना किसी शब्द में बसी —
वह करुणा है,
जो हर वज्राघात के बाद भी
शरण देने को तत्पर रहती है।
धरती —
कोई ज्यामितीय गोला नहीं,
बल्कि स्मृति का एक जीवंत
आवास है,
एक नम वक्ष —
जिस पर जीवन बार-बार
सिर रखकर विश्रांति खोजता
है।
धरती —
गणनाओं से परे
एक अधूरी प्रार्थना है,
जो हर बीज में
अपने उत्तर की प्रतीक्षा
करती है।
वह शून्य में नहीं,
मनुष्यता की धड़कनों में
बसती है —
जैसे कोई माँ,
जो हर साँझ दीप जलाकर
दरवाज़ा खुला छोड़ देती है।
उसकी चुप्पी,
अवज्ञा नहीं —
संयम का दीर्घ संकल्प है।
वह इसीलिए नहीं बोलती,
क्योंकि वह निभा रही है
बोलने से बड़ा धर्म —
धारण का, और बचाव का।
धरती —
जननी है,
और मृत्यु के बाद भी
विसर्जन करती है —
जैसे कोई निर्बंध गोद,
जो जीवन के अंतिम कंपन तक
थामे रहती है।
उसकी हरीतिमा
कोरी सजावट नहीं —
वह सहनशीलता से उपजा
सौंदर्य है,
जो ताप और तुषार को
एक ही संवेदना से ओढ़ लेता
है।
जब वृक्ष कटते हैं,
वह विरोध नहीं करती —
बल्कि मौन चुनती है,
जैसे किसी साध्वी की
दीर्घ मौन तपस्या,
जो हर आघात को
आत्मा में विलीन कर
शब्दों से परे चली गई हो।
धरती पर चलना —
एक मौन उत्तरदायित्व है,
जो हर बार पूछता है:
क्या तुम केवल लेने आए हो
या कुछ लौटाओगे भी?
धरती को छूना
जैसे किसी स्मृति-शिला को
छूना है —
आभार...
अथवा अतिक्रमण।
मध्य कुछ नहीं।
धरती की छाती में
अब भी स्पंदन है,
पर वह आनंद का नहीं —
एक बोझिल उत्तरदायित्व का,
जो हर बार
उसे चुप रहकर निभाना पड़ता
है।
हमने उसे मापा,
बाँटा,
काटा,
बेच दिया —
पर कभी
समझा नहीं।
धरती केवल भोग्या नहीं —
वह शताब्दियों की
मौन स्तुति है,
जो आँखों से नहीं,
अंतःकरण से पढ़ी जाती है।
जब भी निराशा घेर ले मन को,
तो चल पड़िए नंगे पाँव
हरी दूब पर —
या बैठ जाइए
किसी पुरातन वटवृक्ष की
छाया में।
आप सुन पाएँगे —
धरती आज भी बोलती है,
शब्दों में नहीं,
संवेदना में।
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अति विशिष्ट विवेचना...👏🏻👏🏻
ReplyDeleteउत्तम, भावपूर्ण अभिव्यक्ति। बधाई। सुदर्शन रत्नाकर
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर रचना, हार्दिक बधाई आपको।
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