पथ के साथी

Saturday, June 11, 2022

1216-डॉ. शिप्रा मिश्रा की कविताएँ

 डॉ. शिप्रा मिश्रा की कविताएँ

1

हर बात में तवज्जो हर बात में शिकायतें

एक तरफ है कैद और दूसरी ओर जिल्लतें


कैसे जी लेते हैं ऐसे लोग ये पता नहीं

चार दिन की जिंदगी और हैं हजारों लानतें

 

फुर्सत नहीं यहाँ किसी भी रिश्ते के लिए

जिद पाले बैठे हैं सब को झुकाने के लिए

जो एक बार झुक गया खुदा की बंदगी में

औकात क्या रही किसी को गिराने के लिए

 

किसी को हो अपने रुतबे का नशा तो हो

किसी को अपने उड़ने का नशा हो तो हो

हमें क्या करना किसी की मगरूरी से

उसे बेखौफ बदगुमानी का नशा हो तो हो

 

चेहरे हैं मुस्कुराते और दिल में जलजला

झूठ की बस्ती में नेकियों का सिलसिला

खूब उड़ा लो अपनी पतंगें आसमाँ तक

हम रहें जमीन पर बस यही है  इल्तिजा

 

ये जिंदगी है बन्दे होगी ही धूप- छाँव

खुदा के कहर से कब तक बचेंगे पाँव

औकात में ही रहना सबको लाजिमी है

जड़ें ही कट गईं तो कब तक रहेगा गाँव

   -0-

2-माटी- पानी ?

छोटी जगह की लड़कियाँ

बड़ी गँवारू होतीं हैं

समझती नहीं कुछ

आज के तौर- तरीके

चली आती हैं गाहे- बगाहे

जब उनकी माटी पुकारती है

अब भी करतीं हैं परदा

अपने जेठ- सरदार से

उतारतीं हैं थकान पाहुन की

पानी भरे परात में

अब भला जरूरत क्या है

मँगरुआ के घारी में

बेझिझक चले जाने की

और तो और

वहाँ से गोबर उठा लाने की

उसके बिना क्या चौका

अपवित्र रहता है भला

व्यंजनों से परोसी थाल भी

उन्हें तृप्त नहीं कर पातीं

जब तक न खाएँ

घूरे में पकाया

आलू का चोखा

फेरा लगा आती हैं

गाँव के खेत- खलिहान

गोहार आती हैं शीतला माई

बरह्म बाबा, वनदेवी

आँचर पसार- पसार

ये लड़कियाँ देतीं हैं

उगते सुरुज को जल

गांछ- बिरिछ और

दुआरी पर

बांध जातीं हैं

मनौती की डोर

जनेऊ वाले महादेव पर

माथा पटकतीं हैं

बुदबुदाते हुए

गायों को कौरा खिलाती

बढन्ती की असीस माँगतीं

लगाती हैं घर के

गोल- मटोल- से छौने के

लिलार पर करिया टीका

अकलुआ की मऊसी से

सनेस माँगने की

भला क्या जरूरत

घर में मिठाइयों की

कोई कमी है क्या

नइहर के खोंइछा के बिना

भला क्यों अधूरी रहती हैं

ये छोटी जगह की

लड़कियाँ भी ना

सहेज जाती हैं

पुरखों की नसीहतें

और बचा लेतीं हैं

अपनी माटी- पानी को..

-0-

3-परिणति

 

 नदी अपना मार्ग

स्वयं बनाती है

कोई नहीं पुचकारता

उछालता उसे

कोई उसकी ठेस पर

मरहम नहीं लगाता

दुलारना तो दूर

कोई आंख भर

देखता भी नहीं

तो क्या

नदी रुक जाती है

या हार मान लेती है

कोई उसे मार्ग भी

नहीं बताता

चट्टानों से भिड़ना

उसकी नियति है

और उसे

अपनी नियति या

नियंता से

कोई उलाहना नहीं

उसे तो

स्वीकार्य है

स्वयं का

आत्मसात

यही परिणति है

जो उसे सिंधु की

विशालता से

उसका परिचय

करवाता है

और वह

सर्वस्व न्यौछावर

करने के बावजूद

बिंदु से सिंधु के

अंक में समाहित

हो जाती है

सदा- सर्वदा के लिए

और हो जाती है

 परिपूर्ण..

-0-

4- वह एक दरिंदा -डॉ.शिप्रा मिश्रा

 

डरते हैं हम अपनी आँखें खोलने से

डरते हैं हम अपनी पाँखें खोलने से

 

उस घूरने वाले से हम काँप जाते हैं

उसके गंदे इरादे हम भाँप जाते हैं

 

हमारे थरथराने पर वह ठहाके लगाता है

अपने मंसूबों को साजिशों से सजाता है

 

बेजान तितलियों के पंख वह मसल देता है

हमारी मासूम खिलखिलाहट में दखल देता है

 

हमारा चहकना उसे अच्छा नहीं लगता

वह एक दरिंदा हमें सच्चा नहीं लगता

 

उसकी मुट्ठियों में शिकारियों के जाल हैं

बहशी बेखौफ शैतानों से बड़े बाल है

 

जी चाहता है नाखूनों से चिथड़े कर दें

उसके कलूटे जिस्म के टुकड़े कर दें

 

इन भेड़ियों को बनाया क्यों भगवान ने

या इंसानियत ही छोड़ दी यहाँ इंसान ने

 

जज अंकल!! इन्हें लटका दो फाँसी पर

अरे!कुछ तो तरस खाओ मुझ रुआँसी पर

 

तिल-तिल मरने का दर्द क्या होता है

बेजुबान सिसकती रातें सर्द क्या होता है

 

हम नन्ही चिड़िया हमें बेखौफ उड़ने दो

हमारे ख्वाबों में चाँद-सितारे जड़ने दो

 

हमें मचलने दो हमें भी खिलने दो

इन्द्र-धनुष के रंगों में हमें घुलने दो

 

हम तक जो पहुँचे हाथ वो जल जाए

हमारी जलती रोशनी से वो सँभल जाए

 

उससे कह दो हम अबला या कमजोर नहीं

हमें छू सके उन बाजुओं में इतना जोर नहीं

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5 comments:

  1. नारी के स्वरूपों को दर्शाती सभी रचनाएँ बहुत सुंदर एवं भावपूर्ण!
    'हम तक पहुँचे जो हाथ वो जल जाए...' - आमीन! 🙏
    हार्दिक बधाई शिप्रा जी!

    ~सादर
    अनिता ललित

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  2. आभार आदरणीय🙏

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  3. भावपूर्ण रचनाएँ

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  4. बहुत सुंदर भावपूर्ण सृजन के लिए शिप्रा जी को हार्दिक बधाई।

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  5. बेहतरीन, हार्दिक शुभकामनाएँ ।

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