पथ के साथी

Tuesday, May 2, 2023

1320-ओ जुलाहे!

 

रश्मि विभा त्रिपाठी

 


ओ जुलाहे!

तुम गाहे- बगाहे

बुनते रहते हो 

ऐसी- ऐसी चादरें,

जिनमें सिमटकरके

एक जोड़ी जिस्म 

जोश में भरे

कहे-

हम क्यों डरें?

करें

उस चादर में लिपटकरके

तिलिस्म

मीठी नींद का 

बेस्वाद रातों से

ओ जुलाहे!

तुम्हारी बातों से

पता चलता है 

कि तुम्हारे बुने पलंगपोश पर 

जिंदगी लेटती है आराम से 

पाँव फैलाकरके

महफूज

मौत का अरूज

नहीं खलता है

कोई छेद

नहीं होता 

कभी भी कोई भेद 

नहीं होता

 

ओ जुलाहे!

फिर मेरा मन क्यों रोता

बार- बार 

ज़ार- ज़ार

एक ही रिश्ता 

शिद्दत से बुना था मैंने

पूरी उम्र के लिए 

उसको चुना था मैंने

फिर क्यों 

उसमें 

लग गई 

गिरह

थक चुकी हूँ मैं 

कर- करके जिरह।

12 comments:

  1. वाह ,बहुत सुन्दर, हार्दिक शुभकामनाएँ ।

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  2. सशक्त भावाभिव्यक्ति।हार्दिक बधाई

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  3. वाह्ह वाह्ह बहुत ही सुन्दर... हृदयस्पर्शी 🌹

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  4. वाह बहुत सुन्दर और सशक्त भावाभिव्यक्ति रश्मि जी | हार्दिक बधाई स्वीकारें | सविता अग्रवाल ' सवि '

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  5. बहुत सुंदर रचना रश्मि जी!

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  6. मेरी कविता के प्रकाशन के लिए आदरणीय सम्पादक जी का हार्दिक आभार।

    आप आत्मीय जन की टिप्पणी की हृदय तल से आभारी हूँ।

    सादर

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  7. बहुत सुंदर भावपूर्ण कविता। बधाई। सुदर्शन रत्नाकर

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  8. सुंदर भावपूर्ण रचना...हार्दिक बधाई।

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  9. सुंदर भावपूर्ण अभिव्यक्ति।

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  10. बहुत सुन्दर और भावपूर्ण रचना, बधाई रश्मि जी.

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  11. बहुत भावपूर्ण कविता है रश्मि, बधाई

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