रश्मि विभा त्रिपाठी
ओ जुलाहे!
तुम गाहे- बगाहे
बुनते रहते हो
ऐसी- ऐसी चादरें,
जिनमें सिमटकरके
एक जोड़ी जिस्म
जोश में भरे
कहे-
हम क्यों डरें?
करें
उस चादर में लिपटकरके
तिलिस्म
मीठी नींद का
बेस्वाद रातों से
ओ जुलाहे!
तुम्हारी बातों से
पता चलता है
कि तुम्हारे बुने पलंगपोश पर
जिंदगी लेटती है आराम से
पाँव फैलाकरके
महफूज
मौत का अरूज
नहीं खलता है
कोई छेद
नहीं होता
कभी भी कोई भेद
नहीं होता
ओ जुलाहे!
फिर मेरा मन क्यों रोता
बार- बार
ज़ार- ज़ार
एक ही रिश्ता
शिद्दत से बुना था मैंने
पूरी उम्र के लिए
उसको चुना था मैंने
फिर क्यों
उसमें
लग गई
गिरह
थक चुकी हूँ मैं
कर- करके जिरह।
वाह ,बहुत सुन्दर, हार्दिक शुभकामनाएँ ।
ReplyDeleteसशक्त भावाभिव्यक्ति।हार्दिक बधाई
ReplyDeleteवाह्ह वाह्ह बहुत ही सुन्दर... हृदयस्पर्शी 🌹
ReplyDeleteवाह बहुत सुन्दर और सशक्त भावाभिव्यक्ति रश्मि जी | हार्दिक बधाई स्वीकारें | सविता अग्रवाल ' सवि '
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना रश्मि जी!
ReplyDeleteमेरी कविता के प्रकाशन के लिए आदरणीय सम्पादक जी का हार्दिक आभार।
ReplyDeleteआप आत्मीय जन की टिप्पणी की हृदय तल से आभारी हूँ।
सादर
बहुत सुंदर भावपूर्ण कविता। बधाई। सुदर्शन रत्नाकर
ReplyDeleteसुंदर भावपूर्ण रचना...हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteबहुत सुंदर।
ReplyDeleteसुंदर भावपूर्ण अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और भावपूर्ण रचना, बधाई रश्मि जी.
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