रश्मि विभा त्रिपाठी
1
मेरे
हिस्से में
आगे
चलकरके
जरूर
थोड़े-बहुत
पैसे निकलेंगे
तुम
देखना
तब
कहाँ-
कहाँ से
रिश्ते
कैसे-
कैसे निकलेंगे।
2
वक्त
की आँधी से
हम
डर गए
उसी
में
सारे
रिश्ते बिखर गए
रिश्तों
में
बढ़ती
खाइयाँ हैं
जिधर
देखो उधर
तनहाइयाँ
हैं।
3
अभी
क्या पता चलेगा
लिबास
के ऊपर लिबास है
वक्त
की आँधी में जो बचेगा
मेरा
वही खास है
4
मैंने
उससे मुहब्बत की
डोर
बाँधी,
मेरा
हाथ झटक गया
जब
आई आँधी।
5
अकेली
औरतो !
तुम
नहीं हो सिर्फ
शाख
से टूटे हुए पत्ते- सी
बदनीयत
से
कोई
हाथ बढ़ाए तो
बनो
मधुमक्खी के छत्ते- सी।
6
कभी
तो काश!
ऐसा
रब करे,
आदमी
औरत
का अदब करे।
7
तुम
पूछते हो
कि
हम क्यों नहीं होते
किसी
शख़्स से मुख़ातिब
तो
सुन लो!
मुलाक़ातों
में होना चाहिए
एहतराम
वाजिब।
8
जहाँ
रहता था,
उजाड़कर
वही दिल,
तू
बन गया खुद ही
अपना
कातिल!
9
उसे
मैं क्यों चाहूँ
जिसे
अपने काम से काम है,
वो
कमबख़्त क्या जाने
मुहब्बत
किस बला का नाम है?
10
इत्मीनान
से पढ़ना
मेरी
ज़िन्दगी की किताब का
पन्ना
-दर- पन्ना,
इनमें
तुम्हारे
ख़्वाब हैं,
तुम्हारी
ख़्वाहिशें हैं और तुम्हारी है तमन्ना।
-0-
बहुत सुन्दर सृजन किया है रश्मि जी ! नज़र ना लगे, हार्दिक शुभकामनाएँ ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर पंक्तियाँ।
ReplyDeleteसुन्दर सृजन
ReplyDeleteबहुत सुंदर क्षणिकाएँ, अन्तस् को भिगोने वाली।ऐसे ही लिखती रहिए रश्मि जी।हार्दिक शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteनारी मन की पीड़ा को अभिव्यक्त करती सुंदर क्षणिकाएँ। बधाई रश्मि जी
ReplyDeleteबहुत मार्मिक क्षणिकाएँ...हार्दिक बधाई रश्मि जी।
ReplyDeleteसुंदर अभिव्यक्ति, विशेषतः8 ! बधाई रश्मि जी!
ReplyDeleteसुन्दर सृजन
ReplyDeleteGreatt reading your blog post
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