पथ के साथी

Sunday, November 20, 2022

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 प्रो.विनीत मोहन औदिच्य

अप्सरा - सॉनेट 

तुम्हें  देखा,पर न जानूँ, तुम अप्सरा हो कौन

गीत हो तुम, काव्य सुन्दर, हो मुखर या मौन

तुम सितारों से हो उतरी, गति परी समान 

बूँद वर्षा की लगो या मोर पंख -सा परिधान ।

 

था अचंभित देख तुमको इंद्रधनुष अभिमानी

कहा नभ से पूछ लो तुम जैसी कोई होगी रानी 

मेघावरि की आर्द्रता को छूकर पूछा एक बार

कहा उसने मत पूछ मुझसे, करो यह उपकार ।

 

कोयल सम स्वर कोकिला तुम, शोभित अति कामिनी 

नयन खंजन ,मंद स्मित कहो हो किसकी भामिनी

हो नहीं पथभ्रान्त तुम भ्रमर सी पुष्प मकरंद परिचित

क्यों न कामना हो हृदय को, क्यों न हो यह विचलित

 

हे प्रेयसी! धरा से स्वर्ग तक मात्र तुम्हारा ही वर्चस्व 

कल्पना तुम, कल्प तुम, तंत्रिकाओं में दिखे प्रभुत्व।।

-0-

  ग़ज़ल 

 

जो न बुझती कभी वो प्यास हूँ मैं

तेरे दिल का नया आवास हूँ मैं

 

मेरी आवारगी से अब है निस्बत

लोग समझें कि तेरा खास हूँ मैं

 

मुझको मालूम है छाए अँधेरे

टूटती जिंदगी की आस हूँ मैं

 

दूर रहना भले हो तेरी फितरत

साया बन कर तेरे ही पास हूँ मैं

 

भीड़ में खुद को अब कैसे तलाशूँ

शब की तन्हाइयों को रास हूँ मैं

 

कैद कर पागा कोई भी कैसे

गुल की फैली हुई सुवास हूँ मैं

 

'फ़िक्र' की चाहतों में है तू हर दम

तेरा ए रब सदा से दास हूँ मैं।

-0-

 

प्रॉ.विनीत मोहन औदिच्य

सॉनेटियर व ग़ज़लकार

सागर, मध्यप्रदेश

4 comments:

  1. अतिसुंदर भावमय सॉनेट वाह्ह सर 🙏🌹 उतनी ही खूबसूरत ग़ज़ल... 🙏😊बधाई सर आपको 🙏🌹

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  2. भावपूर्ण सॉनेट
    ग़ज़ल बहुत ही उम्दा
    बधाई आदरणीय

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  3. मनभावन रचनाओं के लिए बहुत बधाई

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  4. बहुत सुंदर रचनाएँ। हार्दिक बधाई। सुदर्शन रत्नाकर

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