पथ के साथी

Monday, August 29, 2022

1236_बुद्धिजीवी


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

 

गुलामों की ज़िन्दगी जीने  वाले

अपमान को चुपचाप पीने वाले

 अवसर की पूँछ पकड़कर

बटोरकर सबके हिस्से का सम्मान

सजा रहे अपनी दुकान

माँग-माँगकर भीख

भर लेते अपनी झोली,

जिनकी नैतिकता को

लकवा मार गया

साफ़गोई स्वर्ग सिधार गई

बुद्धि को सुविधाएँ चर गईं

जेब नोटों से भर गई

आत्मा घुटकर मर गई;

जो अंधकार को बुलाते रहे

उजालों को कब्र में सुलाते रहे

सरेआम व्यवस्था को

पेड़ से लटकाकर

कोड़े लगाते रहे-

ऐसे लोग बुद्धिजीवी कहलाते रहे।

-0-रचनाकाल 20-2-82(किशोर प्रभात, अप्रैल 1984)

17 comments:

  1. वाह,बहुत सुंदर,ये कविता अभी भी प्रासंगिक है,सदा प्रासंगिक रहेगी।

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  2. व्यवस्था पर व्यंग्य करती प्रासंगिक सुंदर कविता। सुदर्शन रत्नाकर

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  3. सदैव प्रासंगिक, बहुत सुंदर रचना। हार्दिक बधाई शुभकामनाएं।

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  4. शानदार रचना।

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  5. बिल्कुल सही कहा! आज भी उतनी ही प्रासंगिक है ये कविता 🌹

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  6. आप सबका हार्दिक आभार

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  7. बेहतरीन रचना..आज भी प्रासंगिक

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  8. आज और भी अधिक प्रासंगिक।

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  9. यथार्थ पूर्ण रचना, हार्दिक बधाई।----परमजीत कौर 'रीत'

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  10. निहायत सशक्त एवं यथार्थवादी ढंग से युग के सत्य का बोध कराती है यह कविता। चार दशक पहले लिखी गई यह कविता प्रचलित वर्तमान व्यवस्था में तो और भी अधिक प्रासंगिक है।
    व्यवस्था के बेढंगे स्वरूप को दर्शाते समय आपका प्रखर व्यंग्य अभिव्यक्ति का मेरुदंड बन जाता है।

    हार्दिक बधाई गुरुवर।

    सादर प्रणाम

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  11. चाटुकारों और मक्खन बाजों की पोल खोलती , खरी खरी बधारती । सच्चाई का साथ देते तेवर की उम्दा कविता के लिये हार्दिक बधाई हिमांशु भाई ।

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  12. कुछ नहीं बदला, सदाबहार रचना।

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  13. बहुत ख़ूब! सटीक कविता!

    ~सादर
    अनिता ललित

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  14. सत्य को दर्शाती सार्थक कविता सर 🙏🌹महान लेखनी 🙏🌹🙏

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  15. बहुत प्रभावशाली रचना. आज भी सार्थक. बधाई काम्बोज भैया.

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  16. बहुत सुंदर सटीक रचना...हार्दिक बधाई भाईसाहब ।

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  17. एकदम तीखी, कटीली रचना...आनंद आया पढ़ा कर, बहुत बहुत बधाई

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