रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
गुलामों की ज़िन्दगी जीने वाले
अपमान को चुपचाप पीने वाले
अवसर की पूँछ पकड़कर
बटोरकर सबके हिस्से का सम्मान
सजा रहे अपनी दुकान
माँग-माँगकर भीख
भर लेते अपनी झोली,
जिनकी नैतिकता को
लकवा मार गया
साफ़गोई स्वर्ग सिधार गई
बुद्धि को सुविधाएँ चर गईं
जेब नोटों से भर गई
आत्मा घुटकर मर गई;
जो अंधकार को बुलाते रहे
उजालों को कब्र में सुलाते रहे
सरेआम व्यवस्था को
पेड़ से लटकाकर
कोड़े लगाते रहे-
ऐसे लोग बुद्धिजीवी कहलाते रहे।
-0-रचनाकाल 20-2-82(किशोर प्रभात, अप्रैल 1984)
वाह,बहुत सुंदर,ये कविता अभी भी प्रासंगिक है,सदा प्रासंगिक रहेगी।
ReplyDeleteव्यवस्था पर व्यंग्य करती प्रासंगिक सुंदर कविता। सुदर्शन रत्नाकर
ReplyDeleteसदैव प्रासंगिक, बहुत सुंदर रचना। हार्दिक बधाई शुभकामनाएं।
ReplyDeleteशानदार रचना।
ReplyDeleteबिल्कुल सही कहा! आज भी उतनी ही प्रासंगिक है ये कविता 🌹
ReplyDeleteआप सबका हार्दिक आभार
ReplyDeleteबेहतरीन रचना..आज भी प्रासंगिक
ReplyDeleteआज और भी अधिक प्रासंगिक।
ReplyDeleteयथार्थ पूर्ण रचना, हार्दिक बधाई।----परमजीत कौर 'रीत'
ReplyDeleteनिहायत सशक्त एवं यथार्थवादी ढंग से युग के सत्य का बोध कराती है यह कविता। चार दशक पहले लिखी गई यह कविता प्रचलित वर्तमान व्यवस्था में तो और भी अधिक प्रासंगिक है।
ReplyDeleteव्यवस्था के बेढंगे स्वरूप को दर्शाते समय आपका प्रखर व्यंग्य अभिव्यक्ति का मेरुदंड बन जाता है।
हार्दिक बधाई गुरुवर।
सादर प्रणाम
चाटुकारों और मक्खन बाजों की पोल खोलती , खरी खरी बधारती । सच्चाई का साथ देते तेवर की उम्दा कविता के लिये हार्दिक बधाई हिमांशु भाई ।
ReplyDeleteकुछ नहीं बदला, सदाबहार रचना।
ReplyDeleteबहुत ख़ूब! सटीक कविता!
ReplyDelete~सादर
अनिता ललित
सत्य को दर्शाती सार्थक कविता सर 🙏🌹महान लेखनी 🙏🌹🙏
ReplyDeleteबहुत प्रभावशाली रचना. आज भी सार्थक. बधाई काम्बोज भैया.
ReplyDeleteबहुत सुंदर सटीक रचना...हार्दिक बधाई भाईसाहब ।
ReplyDeleteएकदम तीखी, कटीली रचना...आनंद आया पढ़ा कर, बहुत बहुत बधाई
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