पथ के साथी

Sunday, January 13, 2019

665-तुम नहीं आए


मंजूषा मन

नैनों ने भरना चाहा था तुम्हें
अपने भीतर
और छुपा लेना था पलकों में,

हाथों ने चाहा था छू लेना
और महक जाना
ज्यों महक जातीं हैं उंगलियाँ
चंदन को छू,

कान चाहते थे
दो बोल प्रेम के
जिन्हें सुन जन्म जन्मांतर तक
कानों में घुली रहे मिश्री,

मस्तक को चाहिए थी
तुम्हारे चरणों की एक चुटकी रज
जिसके छूते ही
मन मे भर जाए चिर शांति,

होठों ने चाहा था कह देना
मन की हर पीड़ा
कि फिर न रहे कोई दर्द,

सिर झुका रहा देर तक
इस आस में कि रख दोगे तुम हाथ
और दोगे सांत्वना
दोगे साहस जीवन जीने का,

सब मिल करते रहे प्रतीक्षा
पर तुम नहीं आए
तुम नहीं आए।
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6 comments:

  1. बहुत ही सुंदर भावाभिव्यक्ति।हृदय स्पर्शी।

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  2. भावपूर्ण, मर्मस्पर्शी, सुन्दर रचना!

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  3. हृदयस्पर्शी पंक्तियों ने मन भावुक कर दिया...। बहुत बधाई ।

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  4. मनभावन सुंदर रचना... हार्दिक अभिनंदन

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  5. मर्मस्पर्शी रचनाएँ... हार्दिक बधाई।

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  6. हृदयस्पर्शी सुंदर अभिव्यक्ति......बहुत-बहुत बधाई ।

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