पथ के साथी

Tuesday, January 15, 2019

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मुक्तक
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
1
ख़ून हमारा पीकर ही वे
जोंकों जैसे बड़े हुए।
फूल समझ दुलराया जिनको
पत्थर ले वे खड़े हुए।।
जनम जनम के मूरख थे हम
जग मेले में ठगे गए।
और बहुत से बचे जो बाक़ी
वे ठगने को अड़े हुए ।।
2
पता नहीं विधना ने कैसे
अपनी जब  तक़दीर लिखी ।
शुभकर्मों के बदले धोखा,
दर्द भरी तहरीर लिखी ।
हम ही खुद को समझ न पाए
ख़ाक दूसरे समझेंगे।
जिसके हित हमने ज़हर पिया
उसने  सारी पीर लिखी ।।

8 comments:

  1. दोनों ही मुक्तक मार्मिक हैं। 'जग मेले' में ठगा जाना, जीवन की वास्तविकता से परिचय कराता है। अपनों के द्वारा की गई कृतघ्नता और उनके द्वारा पहुँचाए गए आघात को बड़े प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त किया गया है। आदरणीय काम्बोज जी को हार्दिक बधाई और साधुवाद! - डाॅ. कुँवर दिनेश

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  2. वास्तविकता को प्रस्तुत करती हॄदय स्पर्शी पंक्तियाँ ...... बहुत सुंदर सृजन । गुरुवर को नमन एवं हार्दिक बधाइयाँ....

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  3. बहुत आभार कुँवर दिनेश जी,सुशील कुमार जोशी और डॉ पूर्वा शर्मा जी

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  4. जिनको अपना समझो, जिनके लिए हमेशा सुख की कामना करो, यदि वही अपने कष्ट का कारण बन जाएँ या उनसे ही दुःख मिले तो यह जीवन के सारे कष्टों, सारे दुःखों पर भारी पड़ जाता है। बेहद मर्मस्पर्शी मुक्तक हैं दोनों, मन को गहरे तक छूने वाले...। आपको व आपकी लेखनी दोनो को नमन...।

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  5. गहन वेदना से निकले शब्द ।
    बहुत ही भावपूर्ण

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  6. निःशब्द हूँ। आह से निकला गीत है ये। सादर नमन।

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  7. बेहद भावपूर्ण....हार्दिक बधाई भैया जी !!

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