पथ के साथी

Friday, May 1, 2020

980-क्या यही है तुम्हारे श्रम का मूल्य !



डॉ. सुरंगमा यादव

हाँ कई बार देखा है मैंने तुम्हें
ऊँची-ऊँची इमारतें बनाते
कैसे चढ़ जाते हो तुम
पतली-पतली बल्लियों में
रस्सी बाँधकर इतने ऊँचे
देह को तपाकर
दीवारों पर करते हो तरी
लेकिन कभी-कभी
बिगड़ जाता है तुम्हारा संतुलन
टूटे पेड़ की तरह
 जमीन पर गिर पड़ते हो तुम

 तुम्हारी मौत का रूप बदल दिया गया
चन्द रुपयों और भारी शक्ति से
परिवार का मुँह बंद कर दिया गया
घर के नाम पर
अधूरी इमारतों में पाकर ठिकाना
बड़े खुश होते हो
पूरी होते ही वहाँ से
बाँध लेते हो बर्तन भाण्डों की गठरी
तुम अपनी ही बना इमारतों के लिए
तुच्छ और हेय हो जाते हो,

हाँ कई बार देखा है मैंने
उन हाथों को भी
जो मल -मल कर धोते हैं
साहबों के कीमती वस्त्र
जिन्हें पहनकर वे विराजते हैं
ऊँचे आसनों पर
तुम्हारे बना बिछौने पर
लेते हैं सुख की नींद;
लेकिन फिर भी तुम बने रहते
उनके लिए तुच्छ और हेय
 मैंने तो उसे भी देखा
जो पेट भरने के लिए
ईटों के चट्टे हाथों से सँभाले
सिर पर ढोती है
हाथों को ऊपर उठाने से
अधिक उन्नत हुआ उसका वक्ष
मालिक की लोलुप निगाहें
बड़ी धृष्टता से स्पर्श करती रहतीं है
मौका पाते ही वासना का गिद्ध
झपटने को तैयार
ये ऊँचे लोग रात के  अँधेरे में
स्त्री को  जाति-धर्म से परे 
मात्र देह समझते हैं
 तुम खामोश सह जाते हो
अपमान का एक और घूँ
क्या यही है तुम्हारे श्रम का मूल्य !
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10 comments:

  1. मजदूर की विवशता का सटीक सजीव चित्रण ।बहुत सुंदर भावपूर्ण कविता

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  2. सशक्त कविता, बधाई।

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  3. मजदूर दिवस को सार्थक करती सुन्दर प्रस्तुति।

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  4. भूख से जूझते मज़दूर की परिस्थितियों का सुंदर शब्दांकन । बधाई ।

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  5. भूखे प्यासे रहकर हमें आशियाँ देने वाले इन मजदूरों का कितना भी गुन गान करो कम ही है सुरंगमा जी सुन्दर प्रस्तुति है बधाई |

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  6. बेहद सशक्त अभिव्यक्ति

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  7. बहुत बढ़िया कविता...हार्दिक बधाई आपको।

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  8. बेहद सुंदर चित्रण, आँखों के आगे पूरा दृश्य उभर आया। बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं सुरँगमा जी।

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  9. बहुत बढ़िया कविता...हार्दिक बधाई सुरंगमा जी !

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  10. बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती एक सार्थक कविता के लिए बहुत बधाई

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