डॉ. सुरंगमा यादव
हाँ
कई बार देखा है मैंने तुम्हें
ऊँची-ऊँची
इमारतें बनाते
कैसे
चढ़ जाते हो तुम
पतली-पतली
बल्लियों में
रस्सी
बाँधकर इतने ऊँचे
देह
को तपाकर
दीवारों
पर करते हो तरी
लेकिन
कभी-कभी
बिगड़
जाता है तुम्हारा संतुलन
टूटे
पेड़ की तरह
जमीन पर गिर पड़ते हो तुम
तुम्हारी मौत
का रूप बदल दिया गया
चन्द रुपयों और भारी शक्ति से
परिवार
का मुँह बंद कर दिया गया
घर
के नाम पर
अधूरी
इमारतों में पाकर ठिकाना
बड़े
खुश होते हो
पूरी
होते ही वहाँ से
बाँध
लेते हो बर्तन भाण्डों की गठरी
तुम
अपनी ही बनाई इमारतों के
लिए
तुच्छ
और हेय हो जाते हो,
हाँ
कई बार देखा है मैंने
उन
हाथों को भी
जो
मल -मल कर धोते हैं
साहबों
के कीमती वस्त्र
जिन्हें
पहनकर वे विराजते हैं
ऊँचे
आसनों पर
तुम्हारे
बनाए बिछौने पर
लेते
हैं सुख की नींद;
लेकिन
फिर भी तुम बने रहते
उनके
लिए तुच्छ और हेय
मैंने तो उसे भी देखा
जो
पेट भरने के लिए
ईटों
के चट्टे हाथों से सँभाले
सिर
पर ढोती है
हाथों
को ऊपर उठाने से
अधिक
उन्नत हुआ उसका वक्ष
मालिक
की लोलुप निगाहें
बड़ी
धृष्टता से स्पर्श करती रहतीं है
मौका
पाते ही वासना का गिद्ध
झपटने
को तैयार
ये
ऊँचे लोग रात के अँधेरे में
स्त्री
को जाति-धर्म से परे
मात्र
देह समझते हैं
तुम खामोश सह जाते हो
अपमान
का एक और घूँट
क्या
यही है तुम्हारे श्रम का मूल्य !
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मजदूर की विवशता का सटीक सजीव चित्रण ।बहुत सुंदर भावपूर्ण कविता
ReplyDeleteसशक्त कविता, बधाई।
ReplyDeleteमजदूर दिवस को सार्थक करती सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteभूख से जूझते मज़दूर की परिस्थितियों का सुंदर शब्दांकन । बधाई ।
ReplyDeleteभूखे प्यासे रहकर हमें आशियाँ देने वाले इन मजदूरों का कितना भी गुन गान करो कम ही है सुरंगमा जी सुन्दर प्रस्तुति है बधाई |
ReplyDeleteबेहद सशक्त अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबहुत बढ़िया कविता...हार्दिक बधाई आपको।
ReplyDeleteबेहद सुंदर चित्रण, आँखों के आगे पूरा दृश्य उभर आया। बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं सुरँगमा जी।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया कविता...हार्दिक बधाई सुरंगमा जी !
ReplyDeleteबहुत कुछ सोचने को मजबूर करती एक सार्थक कविता के लिए बहुत बधाई
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