खड़े जहाँ पर ठूँठ
कभी यहाँ
पेड़ हुआ करते थे।
सूखी तपती
इस घाटी में कभी
झरने झरते थे ।
छाया के
बैरी थे लाखों
लम्पट ठेकेदार ,
मिली-भगत सब
लील गई थी
नदियाँ पानीदार ।
अब है सूखी झील
कभी यहाँ
पनडुब्बा तिरते थे ।
बदल
गए हैं
मौसम
सारे
खा-खा करके मार
धूल
-बवण्डर
सिर
पर ढोकर
हवा हुई बदकार
सूखे
कुएँ ,
बावड़ी सूखी
जहाँ
पानी भरते थे ।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (06-05-2018) को "वृक्ष लगाओ मित्र" (चर्चा अंक-2993) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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पर्यावरण दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
बहुत सार्थक और प्यारी रचना...| आपको बधाई और आभार...|
ReplyDeleteबहुत सामयिक और सुन्दर कविता, बार बार उद्धरित करनेयोग्य।बंधाई । सु.व.।व
ReplyDeleteअप सबके अमूल्य विचारों के लिए अनुगृहीत हूँ
ReplyDeleteबहुत सुंदर भैया 👌👌
ReplyDeleteबेहद सुंदर
ReplyDeleteसार्थक, समसामयिक, सुंदर।
ReplyDeleteसामयिक एवम प्रासंगिक रचना हेतु हार्दिक बधाई स्वीकारें, महोदय।
ReplyDeleteबहुत सुंदर सार्थक रचना। हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteसामयिक और सार्थक रचना है ।सच में कुयें बावड़ी बीते युग की बातें हैं अब ।
ReplyDeleteसामयिक, सार्थक, बड़ा संदेश देती बहुत सुंदर रचना।
ReplyDeleteमौसमों और धूल का मानवीकरण अत्यंत सजीव और सुंदर होने के साथ-साथ चेतना को झकझोरता है।
सुंदर रचना के लिए बधाई भैया ।
प्रणाम
हरकीरत हीर सुषमा गुप्ता ,अनिता मंडा, कविता भट्ट , कृष्णा वर्मा , कमला घाटाओरा , सुशीला जी आप सबका बहुत आभार !
ReplyDeleteसार्थक और प्यारी रचना
ReplyDeleteसामयिक ,सार्थक रचना ..हार्दिक बधाई आदरणीय
ReplyDeleteOld is God. आदरणीय बहुत खूबसूरत
ReplyDeleteमिली-भगत सब
ReplyDeleteलील गई थी
नदियाँ पानीदार ।
सही कहा अापने ... मिली भगत ने ही तो सब बरबाद करके रख दिया है
bahut bhavpurn rachna bahut bahut badhai
ReplyDeletemobile se tippani 2 din pahle sabse pahle ki to nahi gayi aaj laptop se ki to chali gayi karan samajh se bahar hai par aapki rachna bahut pasand aayi...
ReplyDeleteसामयिक , सुन्दर , सार्थक रचना !
ReplyDeleteहार्दिक बधाई आपको !!