रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
पहले इतना
था कभी न
गाँव अपना
अब पराया हो गया ।
खिलखिलाता
खिलखिलाता
सिर उठाए
वृद्ध जो, बरगद
कभी का सो गया ।
अब न गाता
कोई आल्हा
बैठकर चौपाल में
मुस्कान बन्दी
हो गई
बहेलिए के जाल में
अदालतों की
फ़ाइलों में
बन्द हो ,
भाईचारा खो गया ।
दौंगड़ा
अब न किसी के
सूखते मन को भिगोता
और धागा
न यहाँ
बिखरे हुए मनके पिरोता
कौन जाने
देहरी पर
एक बोझिल
स्याह चुप्पी बो गया।
-0-
कौन जाने
ReplyDeleteदेहरी पर
एक बोझिल
स्याह चुप्पी बो गया।
रामेश्वर जी, आपने इन पंक्तियों के ज़रिये ना जाने कितने दिलों का दर्द बयान किया है. आज शायद सबके मन में कहीं ना कहीं यह सवाल घुमड़ता है.... पता नहीं कहाँ खो गयीं वो निश्छल मुस्कानें.. बेलाग अपनापन और संवेदनशील मानवता.... आपकी इन पंक्तियों ने तो बस निःशब्द कर दिया है... बहुत सुन्दर और सौम्य शब्दों में एक सार्वभौमिक सवाल पूछा है आपके इस गीत ने... लेकिन शायद यह अनुत्तरित ही गूंजता रहेगा हमारे मानस पटल पर ... काश ! कहीं तो होता जवाब ...
मुस्कान बन्दी
हो गई
बहेलिए के जाल में
यह पंक्तियाँ भी अपने आप में अद्भुत हैं , मुस्कान बहेलिये के जाल में बंदी... एकदम अनूठी कल्पना... अत्यन्त भावपूर्ण गीत...
बहुत सुन्दर गीत… बदले हुए गांव की पीड़ा मुखरित हुई है इस गीत में… बधाई !
ReplyDeleteभावपूर्ण गीत...
ReplyDeleteदौंगड़ा
ReplyDeleteअब न किसी के
सूखते मन को भिगोता
और धागा
न यहाँ
बिखरे हुए मनके पिरोता
कौन जाने
देहरी पर
एक बोझिल
स्याह चुप्पी बो गया।
सुन्दर नवगीत…
अदालतों की
ReplyDeleteफ़ाइलों में
बन्द हो ,
भाईचारा खो गया ।
बहुत बहुत खूब ....आज के वक़्त का कटु सत्य ...आज कल ये ही तो रहा है
पैसा प्रधान और रिश्ते ...कही दूर और दूर हो रहे है ...अपनों से
आभार
मुस्कान बन्दी
ReplyDeleteहो गई
बहेलिए के जाल में
कौन जाने
देहरी पर
एक बोझिल
स्याह चुप्पी बो गया।
शहर की भागदौड़ की जिन्दगी से
उबा इंसान गाँव में अपनापन ढूँढता है...
ढूँढता ही रह जाता है..
अपना गाँव खो गया, दुखद भविष्य।
ReplyDeleteआपकी इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल दिनांक 01-08-2011 को चर्चामंच http://charchamanch.blogspot.com/ पर सोमवासरीय चर्चा में भी होगी। सूचनार्थ
ReplyDeleteजब से घर सडकें कंक्रीट के हो गये हैं गाँ पहले जैसे कहाँ रहे संवेदनायें भी कंक्रीट से तकराकर चकनाचूर हो गयी हैं।ापने पुराने गांम व की याद दिला दे\बहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteबधाई\
कोई आल्हा
ReplyDeleteबैठकर चौपाल में
मुस्कान बन्दी
हो गई
बहेलिए के जाल में
क्या सुन्दर नवगीत है....
सादर...
सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत शुभकामनाएं
भावपूर्ण गीत...
ReplyDeleteकौन जाने
ReplyDeleteदेहरी पर
एक बोझिल
स्याह चुप्पी बो गया।
sahi hai abhi chppi hai dar hai ki kahin ye chikh na ban jaye
sunder navgee
saader
rachana
रामेश्वर जी ,
ReplyDeleteगाँव की याद आ गई आपकी कविता पढ़कर |
बदले हुए गाँव की तस्वीर देखकर मन बेचैन सा हो उठा !
पहले इतना
था कभी न
गाँव अपना
अब पराया हो गया ।
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हर गली मोड़ पे
हम जमाते डेरा
एक घर से दूसरे
हर शाम को
हम डालते फेरा
पहले तो था
गाँव ये मेरा
अब पराया हो गया.............
Respected Bhai Sahab,
ReplyDeleteAaj ke daur ka katu satya bayaan karti hui bahut sundar kavita.
With regards.