पथ के साथी

Friday, February 18, 2011

छाया वसंत


मंजु मिश्रा
1
छाया वसंत
सज गई धरती
उमड़ी प्रीत  
छाया: काम्बोज ,केवि हज़रतपुर
 2
तन झाँझर  
संगीत बनी  धरा  
मन मयूर
 3
उम्र बहकी
जोड़ लिया मन ने
संगी से नाता
4
आकाशी पेड़
हरी भरी धरती
सूर्य पाहुना
 5
हो  हर दिन,
सौगातें साथ लिये
वसंत आए
-0-
मंजु मिश्रा

Thursday, February 17, 2011

भटका मेघ



रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
1
दु:ख हैं बड़े
गली-चौराहे पर
युगों से खड़े
2
पुरानी यादें-
सुधियों की पावस
भीगा है मन
3
नम हैं आँखें
बिछुड़ गया कोई
छूकर छाया
4
बेबस डोर
बाँधे  से नहीं बँधे
लापता छोर ।
5
भटका मेघ
धरती को तरसे
तभी बरसे





                                      
6
सिसकते मन को
उड़ा पखेरू



7
रड़कें नैन
छिन गई निंदिया
मन का चैन
8
याद तुम्हारी
छल-छल छलकी
बनके आँसू
9
झील उफ़नी
जब बिसरी यादें
घिरीं बरसीं
-0-




Monday, February 7, 2011

त्रिपदियाँ


उमेश महादोषी                                                                                                                                                       ||एक ||


मैकू देखे आकाश
पेट पर पड़ी लातों से
ये क्या निकलता है...!


||दो||
आँखों में फूटती जो
भूख भी होती कुछ कम
आँखों झरी रुलाई!


||तीन||
खाई में डूबी आँखें 
देखतीं फिसलते पैर 
चीख फँसी गले में


||चार||
दूसरी औरत है
धर्म निभाती पहली का
ताने खा, पीती आँसू !

-0-

Thursday, January 27, 2011

व्यंग्य /शकुनि मामा



 रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
   शरद कुमार निडर । इनके कार्यलाप के चहुँमुखी विकास के कारण घिसकर रह गया-शकुनि । कुछ दिन बाद अपने दफ्तर से जु़ड़कर संशोधित हो गया-शकुनि मामा। मैं इन्हीं शकुनि मामा से आपका परिचय कराना चाहता हूं। शीशम के झांबे-सा शरीर, डेढ़ किलो गोश्त और साढ़े बत्तीस किलो हाड़। आप अपने किसी भी परिचत-अर्धपरिचित का नाम लीजिए शकुनि जी उसका आरोपित हुलिया सयाने ओझा की तरह बता देंगे। आप मामा के बताए लक्षणों को बटोर लीजिएगा। उनमें से कोई भी चार-पाँच लक्षण छाँट लें- एक अदद परिचित-अर्धपरिचित का स्वरूप तैयार।
कुछ हुलियों में अंग-प्रस्तुति इस प्रकार होगी- नाटा-सा, लंबा-सा, मोटा-सा, पतला-सा है न? बड़ी-बड़ी मूँछो वाला, मुँछकटा- छोटी मूँछों वाला। नाक- लंबी, चपटी, तोतापरी, चिमनी-सी। आँखे- कंजी, घुच्ची, चुँधियाती, उबले अंडे-सी। आवाज़- भारी, महीन, जनाना, खुरदरी, फटे बाँस-सी। विशेषता- नालायक, नामाकूल, पक्का धोखेबाज़। ये न जाने कितने लोगों से परिचित हैं। अपरिचित-परिचित सभी से परिचित। ये अगर परिचित नहीं है तो बस अपने आप से।
धू्म्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। हानिकारक वस्तुएँ ख़रीदना समझदारी की बात नहीं कही जाएगी। यही कारण है कि शकुनि जी बीड़ी-सिगरेट माँगकर पीते है। यदि ख़रीद कर पिएँगे तो पाप लगेगा। अगले जन्म में हो सकता है किसी ठलुए चौधरी का हुक्का बनना पड़े जिसे चौपाल में आने वाला हर परिचित गु़ड़गु़ड़ाता रहेगा। इनका पान का शौक भी मुफ्त पर आधारित है। इनके इस शाही शौक से आहत होकर मेहरचंद जी ने कह दिया था - "आप भले ही हमारी जान ले लें, पर हमसे पान न माँगे। पान न खाने से हमारी जान ही चली जाएगी।"
'माले-मुफ्त दिले-बेरहम' की उक्ति उन पर पूरी तरह लागू हो सकती है। कसाई का माल भैंसा भले ही न खा पाए, शकुनि जी अवश्य खा सकते हैं। इन्हें किसी 'पचनोल' की आवश्यकता नहीं पड़ती। आप बड़े स्वाभिमानी जीव हैं लेकिन यह स्वाभिमान केवल शब्दों तक सीमित है। फोकट की चीज़ अगर नरक में भी मिलेगी तो चोर दरवाज़े से ये वहाँ भी सबसे पहले पहुँच जाएंगे। हाथी के दाँत खाने के और तथा दिखाने के  और होते हैं। शकुनि जी के दाँत भी दो प्रकार के हुआ करते हैं। पहली प्रकार के दाँत उस दिन टूट गए थे, जिस दिन इन्होंने पहलवानी शुरू की थी। किसी पहलवान ने इनको पटखनी नहीं दी थी। वरन मुगदर उठाते समय ये मुँह के बल गिर पड़े थे। न जाने कब से दाँत इनसे पीछा छु़ड़ाने की तलाश में थे। मुगदर की मूँठ लगते ही मुख से नाता तोड़ बैठे। ढूँढने पर मिल भी न पाए। शायद कभी पुरातत्त्व विभाग को मिल जाएँ और आने वाली पीढ़ियों का ज्ञानवर्धन करें।
शकुनि जी हर बात ऐसे करेंगे कि जैसे सामने वाले के कंधे पर अपने दाँत गड़ा देंगे। इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए इन्हें नकली दाँतों का सैट लगवाना पड़ा। डॉ  खान को अभी तक पूरा भुगतान नहीं किया गया है। यदि किसी दिन इनको राह-घाट में मिल गए तो दुर्गति भी हो सकती है, इनका सैट छीना भी जा सकता है। नकली दाँतों के कारण इनकी सारी बातें नकली सिद्ध होने लगी है अतः साथियों ने इन पर विश्वास करना छोड़ दिया है। जब इन्होंने बिस्मार्क का अध्ययन शुरू किया तो उसका प्रयोग साथियों के ऊपर करना शुरू कर दिया। सदा शांत रहने वाले साथी इनकी तिकड़मों से फंसकर परेशान हो उठे। ये हमेशा कंधे की तलाश में रहे हैं। दूसरे के कंधे पर रखकर बंदूक चलाना इनका प्रिय खेल है। इनका यह खेल अनजाने ही कुछ समय तक पूरा होता रहा। 'मुगल साम्रााज्य का पतन' ख़त्म होने पर इनका भी पतन शुरू हो गया। इनकी खलीफ़ा बन जाने की इच्छा अधबीच में दम तोड़ गई। ये इस समय बड़े मनोयोग से 'भारत-विभाजन के कारण' पढ़ रहे हैं । संभवतः तिकड़म-बाज़ी के कुछ और गुर सीख लेंगे।
चौधराहट स्थापित करने का ये कोई भी अवसर चूक जाएँ, संभव नहीं। पावस ऋतु इनके लिए हर साल चुनौती बनकर आती है। इस मौसम में इनकी हालत मेघदूत के विरही यक्ष जैसी हो जाती है। ये कभी बादलों की तरह मँडराने का प्रयास करते हैं तो कभी बिजली की तरह कड़कने का। कभी-कभी इनके हृदय में षडयंत्रों की सफलता का इंद्रधनुष कौंधने लगता है। पावस ख़त्म होते ही इनके सारे साहस पर बाढ़ का पानी फिर जाता है। मई-जून के धूल बवंडर के साथ सिर उठाने वाली तिकड़में पितृ-विसजर्न के साथ विसर्जित हो जाती है।
साथियों का आपसी प्रेम इन्हें नहीं सुहाता। जब किन्हीं दो मित्रों में ग़लतफ़हमी या विवाद हो जाता तब इनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता। तब बारी-बारी से उनके कान फूँकने का कर्म करते रहते हैं। यदि ये शाम को मोहन को पाठ पढ़ाने के लिए जाते हैं तो भोर में हरीश के मन में विष- बीज बोने का प्रयास करते है, अपने दाँतों में छिपी विष की थैली से कुछ बूँदे रोज़ टपकाते रहते हैं। जब मोहन और हरीश का मन एक दूसरे से पूरी तरह फट जाता है, तब ये दलाल की भूमिका निभाने के लिए तत्पर हो जाते हैं। वैसे अधिकतर अवसरों पर इन्हें दोनों ही पक्षों के कोप का भाजन बनना पड़ा है।
अच्छा काम करना शकुनि मामा के लिए बड़ी यातना है। अगर ये ग़लती से एक अच्छा काम कर बैठें तो प्रायश्चित स्वरूप इन्हें दस बुरे काम करने पड़ते हैं। किसी का भला करने पर इनकी रातों की नींद उड़ जाती है, सिर दर्द करने लगता है, टाँगे लड़खड़ाने लगती हैं। जो इनके जितना निकट होता है, ये उसको उतना ही डंक मारते हैं। डंक मारने पर भी ये सामान्य बनने का भरपूर अभिनय कर लेते हैं। अपना स्वास्थय पूरा करने के लिए लोग गधे को भी बाप बना लेते है। लेकिन शकुनि जो और आगे बढ़ जाते हैं- ये गधों को परमपिता परमेश्वर मानकर पूजने लगते हैं। सुबह-शाम गधों की पूँछों को धोने-पोंछने का कार्य करने लगते हैं।
मिस्टर शकुनि बिच्छू नहीं, फिर भी डंक मारना इनकी 'हॉबी' है। हमें इनकी 'हॉबी' की कदर करनी चाहिए। इनकी वाणी मोर की तरह मधुर है, लेकिन ये मोर की तरह सर्प-भक्षण नहीं करते हैं। इन्हें झूठ बोलना बहुत प्रिय है। सच बोलने से इनकी जीभ ऐंठने लगती है। इसीलिए ओढ़ने-बिछाने में भी ये झूठ को ही वरीयता देते हैं। ईमानदारी को बनियान से ज्यादा महत्त्व नहीं देते। इनका कहना है - एक बनियान दो दिन पहनना मुश्किल है। बदबू करने लगता है। ईमानदारी भी बदबूदार बनियान की तरह है। जितनी देर ईमानदारी को पहनोगे उतनी देर आसपास में बदबू फैलाओगे।
दफ्तर का सामान घर में रख लेने से ईमानदारी का सतीत्व नहीं डिगता। सरकारी फ़ाइलों में हेराफेरी नहीं करेंगे तो हेराफेरी का अभ्यास कैसे होगा? लोग क्या कहेंगे? मूर्ख  कहकर चिढ़ाएँगे। दफ्तरों में पतित होने का सौभाग्य कितने लोगों को मिलता है? सिर्फ़  गिने-चुने लोगों को। जहाँ अवसर हो वहाँ ईमानदारी की रामनामी चादर ओढ़ लेनी चाहिए।
हम सब मिलकर प्रातः स्मरणीय शकुनि मामा की दीर्घायु की कामना करते हैं। ये सौ साल तक जिएँ और इस लोमड़ीमय स्वभाव से पास-पड़ोस को सजग बनाए रखें।
-0-

Monday, January 17, 2011

बर्फ़ीला मौसम

डॉ सुधा गुप्ता
1
दिन चढ़ा है
शीत -डरा सूरज
सोया पड़ा है
2
झाँका सूरज
दुबक रज़ाई में
फिर सो गया
3
हरे थे खेत
 पोशाक बदल के
हो गए श्वेत
4
बर्फ़ीली भोर
पाले ने नहलाया
पेड़ काँपते
5
दानी सूरज
सुबह से बाँटता
शॉल- दोशाले
6
पौष की भोर
कोहरा थानेदार
सूर्य फ़रार                                                                                  -0-                                                                                           डॉ सुधा गुप्ता जी के और अधिक हाइकु अनुभूति  पर पढ़ें 

Sunday, January 9, 2011

जगे अलाव


रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
1
ठिठुरी रात
किटकिटाती दाँत
कब हो प्रात: !
2
कोहरा घना
दिन है अनमना
काँपते पात ।

3

जगे अलाव

बतियाते ही रहे
पुराने घाव ।


4
पुराने दिन
यादकर टपके
पेड़ों के आँसू ।

5

सूरज कहाँ?

खोजते हलकान
सुबहो-शाम ।




6
चाय की प्याली
मीत बनी सबकी
इठला रही।
7
बूढ़ा मौसम
लपेटे  है कम्बल
घनी धुंध का
8
सूझे न बाट
मोतियाबिन्द आँखें
जाना किधर ।
9
कुरेद रही
धुँधलाई नज़र
बुझे चेहरे ।
-0-

Wednesday, January 5, 2011

भर-भर गागर देना ।

-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
दो बूँद भी
प्यार मिला है
मुझको जिनसे
उनको
भर-भर गागर देना ।
सुख-दु:ख में
जो  साथ रहे
परछाई बन
सुख के
सातों सागर देना ।
बोते रहे
हरदम काँटे
प्यार-भरे दिल
तोड़े
उनको भी समझाना ।
फूल खिलाते
रहे जो भी
सपनों में भी
उनको
हरदम गले लगाना।
-0-

Friday, December 24, 2010

कुछ हाइकु : डॉ0 सुधा गुप्ता

यादें


[ डॉ0 सुधा गुप्ता जी के कुछ हाइकु उन्हीं की हस्तलिपि में ]
ज़ख़्म


Friday, December 17, 2010

रामेश्वर जी ' लघुकथा रत्न ' से सम्मानित

12 दिसम्बर  2010 को अखिल भारतीय हिन्दी - प्रसार प्रतिष्ठान पटना की सम्मान समिति द्वारा लघुकथा के लिए रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' जी को ' लघुकथा रत्न' से सम्मानित किया गया । यह हमारे लिए बड़े गर्व की बात है जिसके लिए 'काम्बोज जी' बधाई के पात्र हैं । मेरे सन्धु परिवार की ओर से रामेश्वर जी को हार्दिक बधाई !


12  दिसम्बर  2010   - पटना



                                           डॉ सतीशराज पुष्करणा, रामेश्वर काम्बोज ' हिमांशु', श्री नचिकेता (नवगीतकार)



Sunday, December 5, 2010

कहाँ चले गए हैं गिद्ध ?


-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
कहाँ चले गए हैं गिद्ध ?
बड़े-बूढ़े चिन्तित हैं
हर गाँव के -
त्रेता में भी थे गिद्ध,
द्वापर में भी थे
और कलियुग में भी थे
कुछ बरस पहले भी थे ।
पर,अब नज़र नहीं आते गिद्ध
न मरघटों में न कहीं और
छोटे शहरों में भी नहीं
महानगरों में भी
नज़र  नहीं आते हैं गिद्ध
कहाँ चले गए हैं गिद्ध ?
सभी चिन्तित हैं
सिर झुकाए बैठे हैं सब
समझ में नहीं आ रहा है
कहाँ चले गए हैं  अचानक गिद्ध ?
घूस से गले तक अघाए लोग बेफ़िक्र हैं
उनकी धृतराष्ट्री बाहों में भिंचने से
लबोदम है राष्ट्र

तड़ातड़ बेंते बरसाकर ज्ञान बाँटने वाले
मुक्ति दिलानेवाले
धर्मोपदेशक बेफ़िक्र हैं
इन्हें गिद्धों के गायब होने की चिन्ता नहीं है
बड़ी -बड़ी बहसों में शब्दों का चर्वण करनेवाले
नीतिकार चिन्तित नहीं कि
कहाँ चले गए हैं गिद्ध ?
वर्दी वाले बेफ़िक्र हैं-
उनके जूतों की कीलों के नीचे
दबी हुई हैं बेबस कराहें-
मासूमों की बेबसों की ।
लाठियाँ लेकर निकल पड़े हैं सब -हैरान हैं सब
अब सब जगह नज़र आने लगे हैं गिद्ध
अब गिद्ध नंगे नहीं रहे
वे पहने हैं तरह -तरह के परिधान
अब नज़र आ रहे हैं गिद्ध -
अँधेरी गलियों से बहुमंज़िला इमारतों तक में
तरह-तरह के भेस में
नदी घाट पर तीर्थों में,
सभाओं में जुलूस में ।
धरती से आकाश तक
अँधेरा बनकर  छा रहे

सभी जगह मँडरा रहे हैं
पैनी चोंच वाले खूँखार गिद्ध ।
-0-

Monday, November 22, 2010

प्रामाणिक भावानुभूति का काव्य

-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
आज के दौर में जो अधिकतम कविताएँ लिखी( रची नहीं) जा रही हैं, वे भावशून्य और प्रभावशून्य ही अधिक हैं ।वास्तविक कविता तो वह है , जिसे रचनाकार अपने प्राणों के स्पर्श से जीवन प्रदान करता है । जो पाठक को बहुत गहरे तक उद्वेलित कर देती हैं।

कुछ लोग हाइकु के नाम पर सपाटबयानी या एक पंक्ति को तोड़कर तीन पंक्तियाँ बना दे रहे हैं , जिसमे न छन्द का निर्वाह होता है , न भाव ,विचार और कल्पना का । साहित्य  देश-काल की सीमा में न बँधकर रहा है , न रहेगा । हाइकु को कुछ  लोग आयातित कहकर उपेक्षित करना चाहते हैं । ऐसी सोच हमे अग्रगामी न बनाकर प्रतिगामी बनाती है । फिर तो हमें आधुनिक समाज और साहित्य की बहुत-सी कलाओं , तकनीकों और विधाओं को दरकिनार करना होगा , जो कभी सम्भव नहीं। कोई भी विधा अपने विचार-जगत् ,भाव -सौन्दर्य एवं  उर्वर कल्पना से ही स्थायी बन सकती है । बिना सोचे समझे किसी भी विधा का लेखन करना ,उस विधा की न तो कमी है, न कमज़ोरी ;यह तो लेखक विशेष की दुर्बलता है । लघुकथा , ग़ज़ल और अतुकान्त कविताओं में  भी ऐसी घुसपैठ होती रही है । समय बहते जल को निथार देता है । बचता वही है ,जो रचता है । किसी भी विधा का गौरव उत्तम लेखन से ही बढ़ता है, किसी व्यक्ति विशेष  या तिकड़म से  नहीं।

हाइकु के लिए कोई विषय त्याज्य नहीं है । साहित्य की कोई भी विधा न मानव-संवेदना की उपेक्षा कर सकती है , न अपने समय की  या सामाजिक सरोकारों की । हाइकु को  भी भारतीय परिप्रेक्ष्य में ही देखना चाहिए । भाव की आँच में तपे बिना हाइकु अपना सही स्वरूप धारण नहीं कर सकता है। पर्वत-शिखर से लुढ़कता बेडौल पत्थर ठोकरें खाकर एक नया रूप धारण कर लेता   है । उसमें एक अनोखा सौन्दर्य जाग उठता है । यह सौन्दर्य उसके संघर्ष की कहानी कहता है या यूँ भी कह सकते हैं कि यह सौन्दर्य उसके संघर्ष से रूपाकार ग्रहण करता है । जिस कवि ने जितना संघर्ष किया होगा ,दुख-दर्द को अपने मानस में जितना जिया होगा , जिसका हृदय  पीड़ा (स्वयं की या दूसरों की ) में जितना चुआ होगा;उसका काव्य उतना ही भाव-प्रवण ,जीवन्त और मर्मस्पर्शी होगा । अनुभव , संस्पर्श , भाषा का सहज और भावानुरूप प्रयोग ,उम्र का नहीं अनुभव का मोहताज़ है । बहुमुखी प्रतिभा की धनी डॉ0 भावना कुँअर का हिन्दी और संस्कृत पर समान अधिकार रहा है । शिक्षण से जुड़े होने के कारण शब्द-सामर्थ्य पर उनकी मज़बूत पकड़ है । यही कारण है की हाइकु-रचना में इन्होंने एक नए अध्याय की शुरुआत की है  और वह है भाव-प्रवण हाइकुओं का सर्जन । डॉ0 भावना कुँअर की यह शक्ति उनको नीरस रचना करने वाले अपने अग्रजों और स्यूडो(pseudo) ध्वजाधारियों और प्रवर्तकों से अलग करती है।
       इनके हाइकुओं का फलक बहुत व्यापक है । उसका एक सिरा अगर बाह्य प्रकृति है ,तो दूसरा नाज़ुक छोर  उथल-पुथल  से साक्षात्कार करती अन्त: प्रकृति तक की यात्रा पूरी करता है । समाज के प्रति संवेदनशीलता उस यात्रा का आत्म तत्त्व है । भावों की मसृणता , अभिव्यक्ति की सहजता इनके हाइकुओं में देखते ही बनती है । डॉ0 भावना कुँअर के पास सशक्त भाषा ही नहीं , उर्वर कल्पना भी है ।मन की व्याकुलता को गुलमोहर के साथ हिरन की चंचलता का रूप देकर  कितनी खूबसूरती से जोड़ा है-
भटका मन /गुलमोहर वन /बन हिरन।
गुलमोहर की डालियाँ बहुत कमज़ोर होती हैं ,जो ज़रा-सी आँधी के कारण टूट जाती हैं , भावना ने सपनों के  टूटने के  उपमान से इस बारीकी को मार्मिकता अभिव्यक्ति दी है । इन्होंने  बाह्य और अन्त:प्रकृति  को गुम्फित करके अनोखे अन्दाज़ में सहजता से साकार  कर दिया है -
तेज थी आँधी /टूटा गुलमोहर /सपनों -जैसा।
इसी प्रकार खेत के नववधू के रूप को नए  दृश्य बिम्ब  में पिरोकर  सहज एवं भावात्मक चित्र प्रस्तुत किया है -
खेत है वधू/सरसों हैं गहने स्वर्ण के जैसे ।
चिड़ियों के गीत को मन्दिर की घण्टियाँ कहना, एक साथ कई अर्थ खोलता है ।एक ओर प्रकृति का कर्णप्रिय  संगीत तो दूसरी ओर  मन्दिर की घण्टियों का अभिभूत करने वाला आध्यात्मिक अनुभव भी जुड़ा है । इस तरह के बिम्ब  अर्थ-गुम्फन गहन चिन्तन, मार्मिक अनुभव और भाव- विश्लेषण से जन्म लेते हैं । कवयित्री की सूक्ष्मदृष्टि इसे ओर प्रभावी बना देती है -
चिड़ियॉं गातीं  /घंटियॉं मन्दिर की  /गीत सुनातीं।
इसी प्रकार पवन का  उदात्त रूप ‘मन्त्रोचारण /करती ये पवन /देव - पूजा सी।’ इन पंक्तियों में पूरी तन्मयता से अभिव्यक्त हुआ है । शाम और झील का यह अनुपम रूप देखिए -17 वर्णों के गागर में किस तरह परिपूरित कर दिया है कि पाठक रससिक्त हुए बिना नहीं रह पाता  -
1- ओढे बैठी है/कोहरे की चादर/शाम सुहानी
2-दुल्हन झील /तारों की चूनर से/घूँघट काढ़े
कम से कम यह नवोढा रूप हाइकु के लिए तो नया ही है ।
भावना के हाइकु -कानन में कहीं रश्मियों का दुशाला ओढ़े  सोई घटा का मानवीकरण है, तो कहीं भानु को गुलाल लगाती शोख किरणे हैं । कहीं धुंध सौतन से दुखी वियोगी रात है ,जिसे अपने प्रेमी
चाँद की प्रतीक्षा है । कहीं सीप से झाँकता मोती है; लेकिन सब कुछ नवीन और अनछुए प्रयोग के रूप में सौन्दर्य से सिक्त कालिदास की शकुन्तला की तरह-अनाघ्रातं पुष्पं जैसा -
‘ सीप -से मोती / जैसे झाँक रहा हो / नभ में चाँद।’
प्रकृति का इतना विविधतापूर्ण चित्रण किसी एक कवि के एक ही काव्य-संग्रह में इतने व्यापक रूप में एक साथ दुर्लभ है ।कवयित्री एक सफल चित्रकार भी हैं ;अत: चित्रांकन की बारीकी शब्द-चयन में भी परिलक्षित होती है ।
‘चॉंदनी रात/जुगनुओं का साथ/हाथ में हाथ।’   हाइकु में प्रेम की ऊष्मा देखने को मिलती है । अगर विशुद्ध रूप से  भाषा की कोमलता देखनी हो तो डॉ भावना कुँअर का यह हाइकु -
वो मृग छौना
बहुत ही सलोना
कुलाचें भरे ।
छौना , सलोना और कुलाँचे का प्रयोग सार्थक ही नहीं सटीक भी है । कुलाँचे केवल चौपाए के चौंकड़ी भरने के रूप में होता है ,जो यहाँ हाइकु को नई ऊँचाई प्रदान करता है -
 ‘शर्माई लता/ढूँढती फिरे वस्त्र/पतझर  में।’ पतझर का इससे बेहतर चित्रण क्या हो सकता है ।  पत्रहीन लता  की व्रीडा  इसी में है कि वह वस्त्र की तलाश में लगी है । उसे निरावरण रहना मर्यादित नहीं लगता ।
परदेस में रहकर अपना घर-गाँव जिस बेतरह याद आता है , उसे भावना ने नीम की छाया , कुएँ के मीठे पानी से अभिव्यक्त किया है
नीम की छाँव
मीठे कुएँ का पानी
वो मेरा गाँ
 जगत् -सत्य के रूप में प्रकृति के सत् रूप के साथ चित् रूप भी उसी तन्मयता से चित्रित हुआ है ।  इस धरती पर मानव को संवेदनशील बनाया है । यही संवेदना उसके हर्ष-विषाद , आँसू-मुस्कान  और संयोग -वियोग के रूप में उसकी सबसे बड़ी सम्पत्ति है ।भावना का जीवन -संघर्ष इनके हाइकुओं में बहुत तन्मयता  और आवेश के साथ चित्रित हुआ है । उनका भावुक हृदय  मिलन और   प्रेम को पेड़ और लता के प्रतीकों से इस प्रकार उकेरता है-
‘सकुचाई -सी / लिपटती ही गई / लता पेड़ से।’
या स्नेह का रंग ऐसा बरसता है कि वह अंगों से छूटने कानाम ही नही लेता-
स्नेह का रंग/बरसे कुछ ऐसे / छूटे ना अंग।’
प्रिय का मिलन सारे अकेलेपन को पीछे छोड़ देता है-
यादों के मेले /हैं अब साथ तेरे / नहीं अकेले।’
कहीं वह मदहोश शाम है जो परम प्रिय के साथ गुज़री थी-‘
मदहोश -सी / थी वो शाम सुहानी/गुज़री साथ।’
इससे भी आगे बढ़कर मिलन की वह खुशबू है , जो तन और मन-प्राण   में बस गई है । खुशबू का यह अनूठा प्रयोग मिलन को पूर्णरूपेण प्रामाणिक बना देता है -
‘महका गया /मेरा तन-मन ये/ तेरा मिलन।’
कहीं वह सागर- तट की वह  धूप है जो अपनी जन्म -जन्मान्तर की प्यास बुझाने के लिए नि:शक्त होकर लेटी हुई है-
 लेटी थी धूप / सागर तट पर / प्यास बुझाने ।
कहीं जीवन -संघर्ष थके पंछी के रुप में ,तो कहीं धूल -भरी आँधियों के रूप में प्रकट होता है । हर जगह भावना जी अन्त: और बाह्य प्रकृति में अद्भुत सामंजस्य स्थापित कर लेती हैं , जैसे -
‘थका है पंछी / विस्तृत है गगन / ज़ख़्मी हैं पंख।’
और
‘चल रही हैं / धूल -भरी आँधियाँ / खोया है रास्ता।’
मन तो उन्मुक्त रहना चाहता है ,लेकिन जीवन किसी ॠजु रेखा में नहीं चलता।उसके चारों ओर अन्त: और बाह्य संघर्ष का  कँटीला जाल घिरा है , जो सारी उन्मुक्तता को तिरोहित  और घायल कर देता है -
‘था मन मेरा। उन्मुक्त पंछी जैसा / जाल में घिरा।’
जीवन के उन पलों को , जो पंख लगाकर उड़ने को आतुर हैं ; भावना जी ने जाल में फँसी  तितली जैसे नाज़ुक प्राणी के माध्यम से मुखरित कर दिया है । ‘तितली’ का यह प्रतीकात्मक प्रयोग बहुत -सी स्वप्नमग्ना युवतियों की जीवन-व्यथा का भावानुवाद है -
‘नन्हीं तितली/बुरी फँसी जाल में /नोंच ली गई।’
विरह का चित्रण करने में कवयित्री की लेखनी हृदय को द्रवित कर देती है ।विदा होते समय सुबकना  व्यथा की पराकाष्ठा है ।यह द्रवणशीलता, उस पल को निष्ठुर बना देती है-
सुबक पड़ी / कैसी थी वो निष्ठुर / विदा की घड़ी।’
प्रिय से दूर रहना किसी वनवास से कम नहीं होता । यह  जीविका के लिए घर से दूर रहने वाले  या विबिन्न कारणों से अलगाव सहने वाले आज  के  बहुत से  लोगों की संघर्षपूर्ण गाथा है -
‘मन उदास /जब तू नहीं पास/ है बनवास।’
जब कभी ये  संघर्ष और परेशानियाँ ‘धूप’ के प्रतीकरूप में चित्रित होते हैं ;तो जीवन-अनुभव  के निकट होने के कारण अधिक बोधगम्य हो जाते हैं-
‘जब भी मिली/ हमें तो सफ़र में / धूप ही मिली।’
कभी गहन अनुताप की पीड़ा मन को मथ देती है ; क्योंकि इस निष्ठुर संसार में चाहकर भी कुछ आशियाने बस नहीं पाते-‘
न बस सका / मेरा ही आशियाना / सबका बसा।’
ऐसा क्यों होता है? क्योंकि दुनिया के शातिर लोग दूसरों को वियोग देने में ही लगे रहते हैं । फिर सामाजिक और जड़बद्ध और  खोखली नैतिकता के इतने व्यवधान हैं ,इतनी मानवनिर्मित घुटनभरी मर्यादाएँ हैं कि चाहकर भी  कोई अपनी व्यथा सार्वजनिक रूप से नहीं कह सकता ।इसी घुटन को भावना जी ने इस प्रकर व्यक्त किया है-
‘कहना चाहूँ / है छटपटाहट / कह ना पाऊँ।’
कहीं वह दुखी हिरणी है ,जिसका बच्चा उससे बिछुड़ गया है । हिरनी के माध्यम से एक  ममतामयी माँ की दुख-कातर मन:स्थिति बहुत मार्मिकता से व्यक्त हुई है -
दुखी हिरणी / खोजती है अपना / बिछड़ा बच्चा ।
वैसा ही दुख परदेस मे अपनों की याद आने पर  होता है , जो मन को बहुत गहरे तक मथ देता है -
‘परदेस में/जब होली मनाई। तू याद आई।’
       भावना जी के काव्य में अभावग्रस्त समाज भी पूरी सहानुभूति के साथ उपस्थित है । उसकी दुर्दशा का स्वाभाविक चित्रण नन्हें से हाइकु में  सजीव हो उठा है-
फटी रज़ाई / ये मत पूछो कैसे /सर्दी बिताई।’
फिर भी जीवन -संघर्षों और  अभावों में आशा का सन्देश धैर्य बँधाता है-
छोड़ो ना तुम/  यूँ आस का दामन/ होगा सवेरा।’
बढ़ते प्रदूषण का क्या प्रभाव होगा, यह पूरे विश्व के लिए चिन्ता का कारण है । कवयित्री भी इससे अनजान नहीं। काले सर्प का उपमान पर्यावरणीय दुष्प्रभाव को साकार कर देता है -
‘आसमान में /काले सर्प-सा धुआँ / फन फैलाए।’
       हाइकु में बीजमंत्र की शक्ति निहित है , इसका अहसास डॉ0 भावना कुँअर के  हाइकु पढ़ने पर हो जाता है । यह संकलन उन  हाइकु -विरोधियों का मुँह बन्द करने में भी सक्षम है, जो हाइकु को सपाटबयानी का पर्याय समझने की भूल करते  रहे हैं, साथ ही उन हाइकु कवियों को भी नई दृष्टि देने में सक्षम है , जो कुछ भी प्राणहीन -भावहीन लिखकर उसे हाइकु की संज्ञा देते रहे हैं। मठाधीशीवृत्ति से कोई अच्छा साहित्यकार नहीं बन सकता; क्योंकि अच्छा लेखन ही किसी विधा को , साहित्यकार को मज़बूत बनाता है । डॉ0 भावना का यह कार्य इस विधा का सबसे बेहतरीन उदाहरण है । आज नहीं तो कल इस संग्रह की प्रासंगिकता को स्वीकार करना पड़ेगा ।
तारों की चूनर (हाइकु-संग्रह) : डॉ0भावना कुँअर ,पृष्ठ:160 । मूल्य(सजिल्द) :150
प्रकाशक:शोभना प्रकाशन ,123-ए , सुन्दर अपार्टमेण्ट , जी एच 10 , नई दिल्ली-110087
प्रकाशन वर्ष : 2007