-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
कहाँ चले गए हैं गिद्ध ?
बड़े-बूढ़े चिन्तित हैं
हर गाँव के -
त्रेता में भी थे गिद्ध,
द्वापर में भी थे
और कलियुग में भी थे
कुछ बरस पहले भी थे ।
पर,अब नज़र नहीं आते गिद्ध
न मरघटों में न कहीं और
छोटे शहरों में भी नहीं
महानगरों में भी
नज़र नहीं आते हैं गिद्ध
कहाँ चले गए हैं गिद्ध ?
सभी चिन्तित हैं
सिर झुकाए बैठे हैं सब
समझ में नहीं आ रहा है
कहाँ चले गए हैं अचानक गिद्ध ?
घूस से गले तक अघाए लोग बेफ़िक्र हैं
उनकी धृतराष्ट्री बाहों में भिंचने से
लबोदम है राष्ट्र
तड़ातड़ बेंते बरसाकर ज्ञान बाँटने वाले
मुक्ति दिलानेवाले
धर्मोपदेशक बेफ़िक्र हैं
इन्हें गिद्धों के गायब होने की चिन्ता नहीं है
बड़ी -बड़ी बहसों में शब्दों का चर्वण करनेवाले
नीतिकार चिन्तित नहीं कि
कहाँ चले गए हैं गिद्ध ?
वर्दी वाले बेफ़िक्र हैं-
उनके जूतों की कीलों के नीचे
दबी हुई हैं बेबस कराहें-
मासूमों की बेबसों की ।
लाठियाँ लेकर निकल पड़े हैं सब -हैरान हैं सब
अब सब जगह नज़र आने लगे हैं गिद्ध
अब गिद्ध नंगे नहीं रहे
वे पहने हैं तरह -तरह के परिधान
अब नज़र आ रहे हैं गिद्ध -
अँधेरी गलियों से बहुमंज़िला इमारतों तक में
तरह-तरह के भेस में
नदी घाट पर तीर्थों में,
सभाओं में जुलूस में ।
धरती से आकाश तक
अँधेरा बनकर छा रहे
सभी जगह मँडरा रहे हैं
पैनी चोंच वाले खूँखार गिद्ध ।
-0-
आज के परिप्रेक्ष्य में सत्य कथन... गिद्ध कहीं नहीं गए है बस नाम और रूप बदल कर धरती से आकाश तक ज़िंदगी के हर पहलू में छा गए हैं ये गिद्ध..
ReplyDeleteघूस से गले तक अघाए लोग बेफ़िक्र हैं
ReplyDeleteउनकी धृतराष्ट्री बाहों में भिंचने से
लबोदम है राष्ट्र
Sawaalon ke taante mein chupta har jawaab shabdon ki gahraaion se spasht ho raha hai. Rameshwaar ji is doorandeshi soch ki udaan ke liye aapko bahut bahut badhayi
गिद्ध पक्षी से लेकर सामाजिक गिद्धों तक का सफर आपकी कविता करती है. बड़े 'गिद्धों' में डाक्टर भी शामिल हैं.
ReplyDeleteरामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'जी
ReplyDeleteनमस्कार
अब सब जगह नज़र आने लगे हैं गिद्ध
अब गिद्ध नंगे नहीं रहे
वे पहने हैं तरह -तरह के परिधान
xxxxxxx
वक़्त की नजाकत ही कुछ ऐसी है ...कि हर कोई अपने चेहरे पर चेहरा चढ़ा रहा है ...पर यह लोग बेनकाब भी तो हो रहे हैं .....बहुत खूब ...शुक्रिया
गिद्ध की प्रलुप्त हो रही जाति को बिम्ब बना कर बहुत अच्छे रचना है सही बात है आज इन्सान के रूप मे गिद्ध हर जगह देखे जा सकते हैं । शायद गिद्ध भी शर्म से मर गये हैं कि वो तो फिर भी मरे हुये जानवर खाते थे लेकिन इन्सान रूपी गिद्ध तो अपने जीवित भाई बहनो को भी नही छोड रहे। बहुत अच्छी लगी रचना। बधाई।
ReplyDeleteयह पंक्तियाँ बड़ी प्रासंगिक हैं..... सच में गिद्ध कहीं खो गए हैं...... और यह समाज के लिए घातक गिद्ध घूम रहे हैं चारों ओर ...... बड़ा अच्छा बिम्ब ..........
ReplyDeleteSACHMUCH...GIDDH AB KAYAANTARIT HO CHUKE HAI...GAHARAA VYANGYA KARATI KAVITAA.
ReplyDeleteसभी जगह मँडरा रहे हैं
ReplyDeleteपैनी चोंच वाले खूँखार गिद्ध ।
फिर कैसे गिद्ध ही गिद्ध को ढूँढें।
बहुत ख़ूबसूरत और लाजवाब रचना लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है! बधाई!
ReplyDeleteaaj ke haalaat ka sateek chitran, sach kaha ye giddh roopi manushya ab sab jagah dikhte, pakshi to kho gaye par apni kshamta aur visheshta saoup gaye in manushyon ko. bahut achhi rachna, badhai bhaisahab.
ReplyDeleteRespected Sir,
ReplyDeleteAapne bilkul theek kaha hai ki sabhi jagah mandra rahe hain paini chonch wale khoonkhwaar giddh. Aaj zaroorat hai hamre samaaj ko aise khoonkhwaar giddhon se bachaane ki.
Mumtaz and T.H.Khan
sachcha aur alag sa vishya hai .aur us pr aap ke shbdon ka kamal kya kahne .ab sach me har jagah dikhai de jate hain .kitni gahri baat likhi hai aap ne .yahi hai duniya .sahi tasvir khichi hai aapne
ReplyDeletebahut bahut badhai
saader
rachana
Insaan jab gidh ban jaye to easa hi hoga ! Bilkul sach likhna apne !
ReplyDeleteकहाँ चले गए हैं गिद्ध ?सभी चिन्तित हैं
ReplyDeleteसुंदर रचना
गिद्ध तो कहीं नहीं गए
नेता किसी गिद्ध से कम नहीं हैं
घोटाला
भीतर तक कचोटने वाली कविता ! एक तरफ पर्यावरण के रक्षक गिद्ध गायब हो रहे है तो दूसरी और समूल धरती को भ्रष्ट करने वाले गिद्ध मंडरा रहे है । पंकज चतुर्वेदी
ReplyDeleteआद. श्री काम्बोज जी,
ReplyDeleteनमस्कारम्!
गिद्ध कहीं नहीं गये हैं...विलुप्त कहाँ हुए है...जी? बस्स्स्स्स...उनका रूपाकार बदल गया है...आपने कहा ही है कि :
अब गिद्ध नंगे नहीं रहे
वे पहने हैं तरह -तरह के परिधान
अब नज़र आ रहे हैं गिद्ध -
अँधेरी गलियों से बहुमंज़िला इमारतों तक में
तरह-तरह के भेस में
नदी घाट पर तीर्थों में,
सभाओं में जुलूस में ।
धरती से आकाश तक
अँधेरा बनकर छा रहे
सभी जगह मँडरा रहे हैं
पैनी चोंच वाले खूँखार गिद्ध ।
सुन्दर कव्य प्रस्तुति के लिए बधाई!
भाई हिमांशु जी,
ReplyDeleteकितना बड़ा व्यंग्य छिपा है आपकी इस कविता में… जब गिद्दों का काम मानव बखूबी बेखौफ कर रहा हो तो बेचारे गिद्ध क्या करेंगे इस धरती पर…
हिमांशु जी ,आप की कविता ने झकझोर दिया है --इतनी मार्मिक है .कई वार सोचता हूँ कि गिद्ध कभी भी जीवित प्राणी पर शेर चीते की तरह हमला नहीं करते फिर भी इनकी तुलना में हेय हैं ,शायद इस लिए कि अपने चारों और वे 'मारा हुआ 'देखना चाहते हैं ,यही दृष्टि गिद्ध दृष्टि कहलाती है .आज मानवमूल्यों ,मान्यताओं की मृत्यु के आकांक्षी उनके शवों के बीच आनंद उठाने वाले सचमुच अनगिनत रूपों में हैं और यही चिंता कष्टकर है जिसे आप की कविता में उकेरा गया है .बधाई
ReplyDeleteआपकी कविता एक अच्छा व्यंग्य है । मानव ही अब गिद्दों से कम नहीं हैं ....
ReplyDeleteपरन्तु सोचने की बात यह है कि असली गिद्य सचमुच ही कहीं खो गए हैं जब कि मानव रूपी यह गिद्य दिन ब दिन बढ़ते जा रहें हैं ।
रामेश्वर जी एक सशक्त रचना ......
ReplyDeleteगिद्ध और गौरैया प्राय: विलुप्त होते जा रहे हैं ....ऐसे में आपने गिद्ध को व्यंग का बिम्ब बना संवेदनहीन मनुष्य को खूब चेताया है
......बहुत खूब ......!!
gidh rachna vastva men bahut achi rachna hai...acha laga naya chintan...badhai...
ReplyDeleteaadarniy sir
ReplyDeletebahut hi sahi avam sarthakta liye hui bahut hi prabhashaali sateek prastuti.
aajkal insaani giddh hi itne jyada sankhya me hain ki ab udte hue giddho ko mouka hi nahi mil paata.
baht hi gahara mulyankan.
naye saal ki purv -sandhya par aane wale nav prabhat se ek achhi shuruvat ke liye hardik abhinandan.
poonam