पथ के साथी

Thursday, September 13, 2007

शृंगार है हिन्दी


खुसरो के हृदय का उद्गार है हिन्दी ।
कबीर के दोहों का संसार है हिन्दी ।।

मीरा के मन की पीर बन गूँजती घर- -घर ।

सूर के सागर- सा विस्तार है हिन्दी ।।

जन-जन के मानस में ,बस गई जो गहरे तक ।
तुलसी के 'मानस' का विस्तार है हिन्दी ।।

दादू और रैदास ने गाया है झूमकर ।
छू गई है मन के सभी तार है हिन्दी ।।

'सत्यार्थप्रकाश' बन अँधेरा मिटा दिया ।

टंकारा के दयानन्द की टंकार है हिन्दी ।।

गाँधी की वाणी बन भारत जगा दिया ।
आज़ादी के गीतों की ललकार है हिन्दी ।।

'कामायनी' का 'उर्वशी’ का रूप है इसमें ।
'आँसू’ की करुण ,,सहज जलधार है हिन्दी ।।

प्रसाद ने हिमाद्रि से ऊँचा उठा दिया।
निराला की वीणा वादिनी झंकार है हिन्दी।।

पीड़ित की पीर घुलकर यह 'गोदान' बन गई ।
भारत का है गौरव , शृंगार है हिन्दी ।।

'मधुशाला' की मधुरता है इसमें घुली हुई ।
दिनकर के काव्य  की हुंकार है हिन्दी ।।

भारत को समझना है तो जानिए इसको ।
दुनिया भर में पा रही विस्तार है हिन्दी ।।

सबके दिलों को जोड़ने का काम कर रही ।
देश का स्वाभिमान है ,आधार है हिन्दी ।।

Friday, August 3, 2007

हिन्दी लघुकथा: बढ़ते चरण

रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
लघुकथा पर प्राय: ये आरोप लगते रहे हैं कि इसका विषय क्षेत्र नितान्त सीमित है। यह एक आंशिक सत्य है, पूर्ण सत्य नहीं। आंशिक सत्य इस रूप में कि लघुकथा के क्षेत्र में रातों–रात प्रसिद्ध प्राप्त करने की ललक सँजोए एक भीड़ आ घुसी है। इस भीड़ को न जीवन–जगत का गहरा अनुभव है और न अनुभव प्राप्त करने की लालसा । भाषा के मामले में यह वर्ग नितान्त लापरवाह है । फिलर की तरह रचनाओं को इस्तेमाल करने वाले सम्पादकों का इस वर्ग को भरपूर स्नेह मिला है । यही कारण है कि समय–समय पर लघुकथा को चुटकुलेबाजी के आरोप भी झेलने पड़े हैं। दूसरा वर्ग उन लेखकों का है जो रचनात्मक स्तर पर अत्यन्त सजग हैं। हिन्दी की अन्य विधाओं में विषय की जितना विविधता मिलती है, लघुकथा भी उतनी ही वैविध्यपूर्ण हैं।
लघुकथा के क्षेत्र में ऐसे लेखकों की लम्बी सूची हैं जिन्होंने सार्थक रचनाओं एवं कुशल सम्पादन से लघुकथा को दिशा प्रदान की है। इन लेखकों में विष्णु प्रभाकर,रमेश बतरा ,बलराम,सतीशराज पुष्करणा, मधुदीप,मधुकांत, सुकेश साहनी,कमलेश भारतीय, शकुन्तला किरण,अशोक भाटिया, अशोकलव, रूपदेवगुण,शंकर पुणताम्बेकर,उपेन्द्र प्रसाद राय,कमल चोपड़ा,सुभाष नीरव,विक्रम सोनी, माधव नागदा, संतोष दीक्षित, सतीश दुबे, पूरन मुद्गल, पृथ्वीराज अरोड़ा,श्यामसुन्दर दीप्ति,श्यामसुन्दर अग्रवाल , अंजना अनिल, बलराम अग्रवाल, रामयतन प्रसाद यादव आदि प्रमुख हैं।
सम्पादित संकलनों एकल संकलनों की तीन–चार वर्षों में भरमार रही है परन्तु उनमें से ऐसे संकलन गिने चुने हैं जो सार्थक लघुकथाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं।
1.डॉ0 श्यामसुन्दर दीप्ति द्वारा सम्पादित संकलन ‘गवाही’ में पंजाबी लघुकथाओं के साथ हिन्दी लघुकथाओं की उपस्थिति सुखद प्रयोग है। इस संकलन में फर्क (विष्णुप्रभाकर), बीमार (सुभाष नीरव) नतीजा (शंकर पुणताम्बेकर) रास्ते (साबिर हुसैन) सराहनीय लघुकथाएँ हैं। ‘एक वोट की मौत’ (श्याम सुन्दर अग्रवाल) में भ्रष्ट राजनीति का नंगापन प्रस्तुत है। ‘खत को तार समझना’ में कमल चोपड़ा ने भावी स्थिति की कल्पना पाठकों पर छोड़ दी है, सतीश दुबे की लघुकथा ‘कुत्ते’ प्रतीकात्मक शीर्षक में मनुष्य की पतनशीलता को चित्रित करती है। सुकेश साहनी की लघुकथा ‘गोश्त की गंध’ सफल प्रयोग एवं प्रतीक का श्रेष्ठ उदाहरण है। ‘दीप्ति’ की चेहरा में आतंकवाद की अनुगूँज सुनाई पड़ती है।
2.अपरोक्ष (1989–डॉ0कमल चोपड़ा ) में 1985–86 की श्रेष्ठ लघुकथाएँ संकलित है। इस पुस्तक में डॉ0 गंगा प्रसाद विमल, डॉ0 विश्वम्भरनाथ उपाध्याय, डॉ0 हरदयाल, डा0 ललित शुक्ल प्रभृति विद्वानों के लघुकथा के आलोचना पक्ष पर सुलझे हुए विचार प्रस्तुत किए हैं। रचनाओं के चयन में डॉ0 चोपड़ा से सावधानी बरती है। रंग (अशोक भाटिया) कफन का कुरता (ईश्वरचन्द्र) तनाव (पृथ्वीराज अरोड़ा) विकलांग (माधव नागदा) काई (रमाकांत श्रीवास्तव),खुशनसीब (रतीलाल शाहीन) दंगाई(पुणताम्बेकर), सहानुभूति (पुष्करणा), श्रेयपति (सुकेश साहनी), दिहाड़ी (सुभाष नीरव), प्रदूषण (सूर्यकान्त नागर), आदि प्रभावित करती हैं।
3.डॉ. राम कुमार घोटड़ का लघुकथा संग्रह ‘तिनके–तिनके (1989) अपनी कुछ रचनाओं के कारण ध्यान आकर्षित करता है। मनुष्य की दुर्बलताओं को इन्होंने कुछ लघुकथाओं में सफलतापूर्वक उद्घाटित किया है। असलियत, छोटी भैणा, खुदगर्ज लोग, अस्तित्व सीख, गरीब लोग, भय खालीपन, लघुकथाओं के केन्द्र में सामान्य जन और उसकी विवशताएँ हैं। इस संकलन में मनोवृत्ति दंश का दायरा, संतोषी जीव, नए घर के लिए, मर्दानगी की बू ऐसी रचनाएँ हैं जो लघुकथा नहीं बन पाई हैं। ‘शीर्षक’ की दृष्टि से देखा जाए तो लेखक का उपेक्षा भाव प्रकट होता है। ‘समय का फेर’ लघुकथा यशपाल की कहानी ‘पर्दा’की नकल है। लेखक को इस तरह के प्रयास से बचना चाहिए।
4. तुलसी चौरे पर नागफनी (1989) डॉ0 उपेन्द्र प्रसाद राय– की 61 लघुकथाओं का संग्रह है। डॉ0 राय ने निरन्तर पनपती हुई अवमूल्यन की नागफनी की ओर ध्यान दिलाया है तथा साथ ही मानवीय मूल्यों के प्रति अपना सकारात्मक दृष्टिकोण भी प्रस्तुत किया है। अखबारी घटनाओं खोखले नैतिक उपदेशों, लेखकीय निर्णयों से लघुकथाओं को बचाकर रखा है। शोषण की पीड़ा, व्यवस्था की हृदयहीनता, दफ्तरी प्रणाली की जड़ता, कलुषित साम्प्रदायिकता, शिक्षा की दिशाहीनता और उपेक्षा डॉ. राय के प्रमुख विषय रहे हैं। कितना बड़ा मूल्य,प्यार,मापदंड, लड़की, नस्ल,कारगर हल, लोग ,रोने की शर्त सशक्त लघुकथाएँ हैं। व्यंग्य अधिकतर रचनाओं में मुख्य स्वर के रूप में उभरा है। भाषा की दृष्टि से ये लघुकथाएँ काफी चुस्त-दुरुस्त हैं।
5.दैत्य और अन्य कहानियाँ (1990) सुभाष नीरव– इस संग्रह में कहानियों के साथ सुभाष नीरव की चर्चित लघुकथाएँ भी संगृहीत हैं, पता नहीं क्यों सुरेश यादव ने इन्हें ‘लघुकहानियाँ’ कहा है। दिहाड़ी, वाकर,बीमार अभावग्रस्त जीवन की विवशता का खाका हैं। अपनी श्रेष्ठता में ये लघुकथाएँ किसी बड़े कहानीकार की श्रेष्ठ रचना से टक्कर ले सकती हैं। ‘धूप’ अपेक्षाकृत नए विषय पर लिखी कृत्रिम आवरण की छटपटाहट को रेखांकित करने वाली मनोवैज्ञानिक कथा है। इस तरह के नवीन विषयों का संधान लघुकथा को निश्चित रूप से दिशा प्रदान करेगा ।
6. दूसरा सत्य (1990) रूप देवगुण– की 51 लघुकथाओं का संग्रह है। इस संकलन की ‘मानवीय सम्बन्धों की लघुकथाएँ’ ‘के तीन खण्डों में विभाजित किया गया है। ‘और व’ लघुकथा में बेरोजगार युवक का अन्तर्द्वन्द्व है । युवक की विकृत सोच पिता के स्नेहसिक्त चेहरे को देख कर बदल जाती है। दो परस्पर विरोधी भाव लघुकथा को विश्वसनीय बनाने में सफल हुए है। ‘जगमगाहट’ हिन्दी की बेहतर लघुकथाओं में से एक है। बॉस के प्रति आशंकित युवती के अन्तर्द्वन्द्व का देवगुण जी ने सूक्ष्म विश्लेषण किया है। ‘और तब’ में रिश्तों में आए ठण्डेपन और ठहराव पर तीखी चोट की गई है। एक ही वाक्य, दूसरा सच, एक सुलझा हुआ दृष्टिकोण सोच आदि लघुकथाएँ भी विषयवस्तु एवं प्रस्तुति दोनों ही प्रकार से मंजी हुई रचनाएँ हैं। भाषा संयत एवं शालीन है।
7.अभिप्राय (1990) डॉ0 कमल चोपड़ा– इस संग्रह में कमल चोपड़ा की 70 लघुकथाएँ हैं। दलित शोषित,प्रताडि़त और उपेक्षित वर्ग के प्रति गहरी चिन्ता इनकी लघुकथाओं का मुख्य स्वर है। यह स्वर कहीं–कहीं कड़वाहट में बदल गया हैं। राजनीति के दोगलेपन और मक्कारी पर लेखक ने कठोर प्रहार किया है। मैं छोनू हूँ,डाका असलियत जीने वाले, पिता, किराया, पहला आश्चर्य, खेल, सोहबत, सीधी बात, समाज चुपचाप निर्जन बन इनकी श्रेष्ठ लघुकथाएँ हैं। इन्होंने परिस्थितियों एवं उनके प्रतिफलन को अपनी रचनाओं में समाविष्ट किया है। उद्देश्यपरक लघुकथाएँ इस संकलन की सबसे बड़ी उपलब्धि है।
8.मृगजल (1990) बलराम– इस संकलन में लेखक ने अपनी रचनाओं की तीन खण्डों में प्रस्तुति की है–लघुकथाएँ,व्यंग्य लघुकथाएँ और विविधा । ‘पाप और प्रायश्चित’ में कर्मकाण्ड की कुरूपता और क्रूरता दर्शाई गई है। लोग इसी को धर्म समझ बैठते हैं। प्यार और मातृत्व की उष्मा इस क्रूरता की शिला को पिंघलाने में असमर्थ है। आदमी,गंदी बात, बहू का सवाल सिद्धि सशक्त एवं सफल लघुकथाएँ हैं। शीर्षक कथा ‘मृगजल’ ग्रामीण परिवेश को बारीकी से उकेरने में सक्षम है। कृष्ण जैसे भटके युवक अपने स्वप्नजीवी परिवार को चूस रहे हैं।
9.अलाव फूँकते हुए : स कुलदीप जैन–इस संकलन में बलराम अग्रवाल,कुलदीप जैन एवं सुकेश साहनी की 25–25 लघुकथाएँ तथा जगदीश कश्यप की 26 लघुकथाएँ हैं। श्री कुलदीप जैन के अनुसार–डॉ0 किरन चन्द्र शर्मा ने लघुकथाओं पर न के बराबर काम किया है परन्तु साहित्यक दृष्टि से इनके सोचने का ढंग बिल्कुल निष्पक्ष कहा जा सकता है।’ भूमिका लिखते समय शर्मा जी की यह प्रमाणित निष्पक्षता पक्षपात में बदल गई है। पाठक रचनाओं को पढ़ कर स्वयं इस बात की पुष्टि कर सकते हैं। अस्तु इस संग्रह में अंतिम गरीब, रिश्ते (कश्यप),नागपूजा गो भोजनं कथा (बलराम अग्रवाल),शंकाग्रस्त (कुलदीप जैन), वापसी ,दादाजी, इमीटेशन ,हारते हुए, गाजर घास, तृष्णा,मृत्युबोध,आइसबर्ग, (सुकेश साहनी) अच्छी लघुकथाएँ हैं। खेद इसी बात का हैं कि जगदीश कश्यप लघुकथा में बरसों से कसरत करते रहे हैं ; फिर भी अधिक अच्छी लघुकथाएँ देने में असमर्थ रहे हैं।
10.हिस्से का दूध (1991) मधुदीप– इस संग्रह में 7 कहानियों के साथ मधुदीप की तीस लघुकथाएँ हैं। कथ्य में कसाव,पात्रों का अन्तद्र्वन्द्व उद्देश्य पर कला, भाषिक संयम, क्षित्रता अभाव एवं दैन्य की पराकाष्ठा ‘हिस्से का दूध’ में प्रखर रूप से चित्रित हुई है। बंद दरवाजा, नियति, एहसास, उसका अस्तित्व एवं ‘ऐसे’ लघुकथाएँ विषय एवं शिल्प की दृष्टि से सराही जा सकती हैं। ऐलान–ए–बगावत’ में लेखक ने दफ्तरी मुठमर्दी को साकार कर दिया है। ‘फाइल मरे हुए चूहे के समान उसके हाथ में झूल रही थी’ जैसे भाषिक प्रयोग इस लघुकथा को तीखी धार प्रदान करते हैं। अच्छी लघुकथाओं के लिए इस संग्रह का विशिष्ट स्थान रहेगा।
11.डरे हुए लोग (1991) : सुकेश साहनी– इस संग्रह की भूमिका में जगदीश कश्यप् ने कहा है–सुकेश साहनी का यह लघुकथा–संग्रह लघुकथा से परहेज करने वाले समीक्षकों और विद्वानों को लघुकथा–समीक्षा की नई भाषा लिखने के लिए मजबूर करेगा।’ कमलेश भारतीय के अनुसार–‘डरे हुए लोग,दो तरह की लघुकथाएँ लिये हुए है परन्तु इनका मूल स्वर कच्चा चिट्ठा खोलना ही है–चाहे उनकी लघुकथाएँ भ्रष्टतंत्र पर लिखी गई हों, चाहे पारिवारिक पृष्ठभूमि पर ।’ गुठलियाँ,पेण्डुलम,कुत्तेवाले घर, अपने लोग, यही सच है, प्रदूषण,कस्तूरी मृग जैसी लघुकथाएँ अपने लघुकलेवर में घर–परिवार एवं समाज की समस्याओं को समेटे हुए है। विषयों की विविधता और शिल्प के प्रति सचेतना के कारण यह संग्रह मील का बनेगा, इससे इंकार नहीं किया जा सकता।
12.साँझा हाशिया (1991) सम्पा0 कुमार नरेन्द्र–इस संग्रह में तीस प्रतिनिधि लघुकथाकारों की तीन–तीन लघुकथाएँ हैं। सम्पादक ने रचनाओं के चयन में सूझबूझ का परिचय दिया है। विषयों की विविधता प्रस्तुति की नवीनता एवं भाषा–कौशल इसका सशक्त प्रमाण है। इस संग्रह की रचनाओं में ‘रंग’ (अशोक भाटिया), मृत्यु की आहट (अशोक लव) उपहार (पारस) गुब्बारा (डॉ0 दीप्ति), दरिया दिली (सतीश शुक्ल) साफ्टी कार्नर(कुमार नरेन्द्र) भीतर का कलाकार(वेद हिमांशु), ड्रांइगरूम(पुष्करणा), आखिरी पड़ाव का सफर(सुकेश साहनी), वाकर (सुभाष नीरव) आदि लघुकथाएँ प्रभावित करने वाली हैं।
13.हिन्दी की जनवादी लघुकथाएँ (1991) : सम्पा0 राम यतन प्रसाद यादव–इस संग्रह में विभिन्न लेखकों की 96 लघुकथाएँ हैं। सम्पादक ने एक ही स्वर की अनेक रचनाएँ संकलित कर अच्छा कार्य किया है। संस्कार(सतीश दुबे) ,जिजीविषा(वेद हिमांशु), अन्तर(राजेश हजेला),बीच बाजार(रमश बतरा), पेट की खातिर(सुकेश साहनी), लघुकथाएँ सशक्त हैं। सम्पादक ने भूमिका में जिस अश्लीलता पर कटाक्ष किया है उनकी लघुकथा भी इसी श्रेणी की है। रचनाओं के चयन में सम्पादक को और निर्मम होना था।
14.हिन्दी की सशक्त लघुकथाएँ (1991) सम्पा0 रूप देवगुण– इस संग्रह में 91 लघुकथाएँ हैं। विभिन्न तेवरों की रचनाएँ इस संग्रह को सार्थक बनाती हैं। व्यथा कथा (अशोक भाटिया), माँजी(अशोक लव), परदेसी पाँखी(कमलेश भारतीय), जानवर भी रोते हैं(जगदीश कश्यप),पहला झूठ (पूरन मुद्गल),कथा नहीं(पृथ्वीराज अरोड़ा), माँ (प्रबोध गोविल),स्नेहज्वर(रतीलाल शाहीन),शोर (शराफत अलीखान),रास्ते(साबिर हुसैन)लघुकथाएँ पाठक के हृदय पर अपनी छाप छोड़ने में सक्षम हैं।
15.हिन्दी की चर्चित लघुकथाएँ (1992)सम्पा0 पुष्करणा एवं यादव– इस संकलन में 129 लघुकथाएँ हैं। भूमिका में पुष्करणा जी ने लघुकथा के अवरोधों पर करारी चोट की है। इस संकलन में कमलेश भारतीय (किसान), कृष्णानन्दन कृष्ण(जागरूक), चित्रा मुद्गल(बोहनी), पृथ्वीराज अरोड़ा(अनुराग), महावीर प्रसाद जैन(श्रम), रमेश बतरा(दुआ) शंकर पुणताम्बेकर(मरियल और मांसल), डॉ. शकुन्तला किरण (बेटी), शिवनारायण (जहर के खिलाफ), सुकेश साहनी(नरभक्षी), सुभाष नीरव(कमरा), की लघुकथाएँ उल्लेखनीय हैं। इस संग्रह में कुछ ऐसी लघुकथाएँ भी हैं जो इस संग्रह से पूर्व अच्छी लघुकथाओं के रूप में चर्चित नहीं रही हैं।
16.दहशत:(1992) सम्पा. अमरनाथ चौधरी–‘अब्ज’ यह 59 लघुकथाकारों की साम्प्रदायिकता विरोधी 71 लघुकथाओं का संग्रह है। लघुकथाओं का विभाजन आहुति,सद्भावना विश्रान्ति इन तीन खण्डों में किया गया है। घोर साम्प्रदायिकता के माहौल में इन रचनाओं की सार्थकता से इंकार नहीं किया जा सकता। आहुति (अब्ज),सद्भाव (कमल चोपड़ा), फर्क(तरुण जैन), यह घर किसका है? (कमलेश भारतीय) बीच की दीवार(विजय रंजन)आदि लघुकथाएँ प्रभावशाली हैं। सम्पादक यदि प्रयास करता तो इसमें और अधिक सशक्त रचनाएँ शामिल की जा सकती थीं।
17.इस बार: (1992): कमलेश भारतीय–इस संग्रह में कमलेश भारतीय की 45 लघुकथाएँ हैं। सकारात्मक सोच और संवेदनशीलता इनकी लघुकथाओं के प्रमुख आधार रहे हैं। संवेदनशील दृष्टि के कारण साधारण स्थिति या प्रसंग को भी असाधारण प्रभाव से अभिमंत्रित कर सकते हैं। भारतीय की लघुकथाएँ इसका उदाहरण हैं। बदला हुआ नक्शा, मन का चोर सर्वोत्तम चाय,सुना आपने एवं जन्म दिन ऐसी लघुकथाएँ हैं जो बिना किसी टीका–टिप्पणी के मन पर अपना प्रभाव छोड़ती हैं। ‘सर्वोत्तम चाय’ लघुकथा जीवन के किसी तर्क पर नहीं वरन् संवेदना की अतार्किक पृष्ठभूमि पर टिकी हैं युवक का यह कथन–‘सच,चाय सिर्फ़ चाय नहीं होती’सत्य ही है। चाय बनाकर पिलानेवाले की आत्मीयता का स्पर्श ही प्रमुख होता है। यह संकलन लघुकथा–जगत में एक महत्त्वपूर्ण कार्य के रूप में याद किया जाएगा।
18. सुबह होगी (1992): अशोक विश्नोई–इस संग्रह में विश्नोई जी की 68 रचनाएँ संग्रहीत हैं। इनमें से कुछ लघुकथाएँ लेखक के प्रति आश्वस्त करती हैं। सबक, मोहभंग,एहसास,बदबू,माँ,ममता लघुकथाएँ ध्यान आकर्षित करती हैं। अति संक्षिप्तता के मोह में कुछ रचनाएँ कथन मात्र बनकर रह गई हैं।
19.स्त्री–पुरुष सम्बन्धों की लघुकथाएँ (1992): सम्पा. सुकेश साहनी–इस संकलन में यद्यपि हिन्दी लघुकथाओं का ही बाहुल्य है तथापि उर्दू,पंजाबी,गुजराती आदि भाषाओं के लेखकों को भी शामिल किया गया है। कमलेश भारती के अनुसार–‘संकलन उन आलोचकों को सही जवाब है जो बार–बार कहते हैं कि श्रेष्ठ लघुकथाओं का अभाव है।’ इस संग्रह में आखिरी सफर (अज्ञात), मौसम (कृष्ण गंभीर ), डबल बैड (दिनेश पालीवाल), बेटी (मोहन सिंह सहोता), लड़ाई (रमेश बतरा), अपना–अपना दर्द (श्याम सुन्दर अग्रवाल), गूँज (सुकेश साहनी) लघुकथाएँ मानस–पटल पर अंकित होकर रह जाती हैं।
20 भारतीय लघुकथा कोश : सम्पादक बलराम भारतीय भाषाओं के 113 लेखकों की 816 लघुकथाओं को श्री बलराम ने प्रस्तुत किया। दो खण्डों में छपे इस कोश का निर्विवाद रूप से महत्त्व है। रचनाओं को एक साथ प्रस्तुत करके लघुकथा के अध्ययन का मार्ग प्रशस्त किया है।

पत्र–पत्रिकाएँ –‘आजकल’ जैसी महत्त्वपूर्ण पत्रिका ने 1991 (अक्टूबर) में लघुकथा विशेषांक प्रकाशित कर इस विधा को महत्त्व प्रदान किया । इस विशेषांक में 6 लेख,23 लघुकथाएँ एवं 5 लघुकथा संग्रहों की समीक्षाएँ सम्मिलित की गईं। दूसरा महत्त्व पूर्ण विशेषांक जम्मू कश्मीर अकादमी की पत्रिका (शीराजा अक्टूबर–नवम्बर 91) का रहा। इस विशेषांक में 4 लेख एवं 46 लघुकथाएँ सम्मिलित की गईं। सानुबन्ध (जून 93), स्वाति (जून–जुलाई93), भागीरथी (जुलाई–अगस्त 93) के अंक लघुकथा पर केन्द्रित रहे। सानुबंध के विशेषांक में 66 हिन्दी लघुकथाओं के साथ 4 खलील जिब्रान की लघुकथाएँ एवं 5 पंजाबी लघुकथाएँ, लघुकथा की पुस्तकों की 3 समीक्षाएँ तथा दो लेख छपे हैं। यह एक महत्त्वपूर्ण विशेषांक बन गया है। सम्पादक रमाकांत श्रीवास्तव का सम्पादकीय नया–तुला है। स्वाति के इस विशेषांक में कृष्ण मनु ने 23 लघुकथाएँ प्रकाशित की हैं। भागीरथी (अतिथि सम्पादक–डा.शिवनारायण) में लेख , 44 लघुकथाएँ एवं समीक्षा प्रकाशित की गई है। ‘उत्तर प्रदेश’ मासिक में समय–समय पर लघुकथाएँ एवं तद्विषयक लेख छपते रहे हैं। ‘लघुकथा साहित्य’ (डॉ.अशोक लव) और ‘जनगाथा’ (बलराम अग्रवाल) लघुकथा की जागरूकता के लिए आश्वस्त करती हैं।
बहुत सारे संग्रह एवं पत्रिकाएँ ऐसी हैं जिनका मैं स्थानाभाव एवं अनुपलब्धता के कारण समावेश नहीं कर सका । भविष्य में किसी अन्य लेख में उनका उल्लेख किया जाएगा ।
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Saturday, July 21, 2007

ज़िन्दगी की लहर

आग़ के ही बीच में ,अपना बना घर देखिए ।
यहीं पर रहते रहेंगे ,हम उम्र भर देखिए ॥
एक दिन वे भी जलेंगे ; जो लपट से दूर हैं ।
आँधियों का उठ रहा , दिल में वहाँ डर देखिए ॥
पैर धरती पर हमारे , मन हुआ आकाश है ।
आप जब हमसे मिलेंगे , उठा यह सर देखिए ॥
जी रहे हैं वे नगर में ,द्वारपालों की तरह ।
कमर सज़दे में झुकी है , पास आकर देखिए ॥
टूटना मंज़ूर पर झुकना हमें आता नहीं ।
चलाकर ऊपर हमारे , आप पत्थर देखिए ॥
भरोसे की बूँद को मोती बनाना है अगर ।
ज़िन्दगी की लहर को सागर बनाकर देखिए

वश में है

तुमने फूल खिलाए
ताकि खुशबू बिखरे
हथेलियों मे रंग रचें ।
तुमने पत्थर तराशे
ताकि प्रतिष्ठित कर सको
सबके दिल में एक देवता ।
तुमने पहाड़ तोड़कर
बनाई एक पगडण्डी
ताकि लोग मीठी झील तक
जा सकें
नीर का स्वाद चखें
प्यास बुझा सकें।
तुमने सूरज से माँगा उजाला
और जड़ दिया एक चुम्बन
कि हर बचपन खिलखिला सके
यह तुम्हारे वश में है ।
लोग काँटे उगाएँगे
रास्ते मे बिछाएँगे
लहूलुहान कदमों को देखकर
मुस्कराएँगे ।
पत्थर उछालेंगे
अपनी कुत्सित भावनाओं के
उन्हें ही रात दिन
दिल में बिछाकर
कारागार बनाएँगे।
पहाड़ को तोड़ेंगे
और एक पगडण्डी
पाताल से जोड़ेंगे
कि जो जाएँ
वापस न आएँ।
सूरज से माँगेगे आग
किसी का घर जलाएँगे।
यह उनके वश में है।
यह उनकी प्रवृत्ति है
वह तुम्हारे वश में है ।

बंजारे हम

जनम - ­ जनम के बंजारे हम
बस्ती बाँध न पाएगी ।
अपना डेरा वहीं लगेगा
शाम जहाँ हो जाएगी ।
जो भी हमको मिला राह में
बोल प्यार के बोल दिये ।
कुछ भी नहीं छुपाया दिल में
दरवाजे सब खोल दिये ।
निश्छल रहना बहते जाना
नदी जहाँ तक जाएगी ।
ख्वाब नहीं महलों के देखे
चट्टानों पर सोए हम ।
फिर क्यों कुछ कंकड़ पाने को
रो रो नयन भिगोएँ हम ।
मस्ती अपना हाथ पकड़ कर
मंजिल तक ले जाएगी ।

तिनका­- तिनका

तिनका ­तिनका लाकर चिड़िया
रचती है आवास नया।
इसी तरह से रच जाता है
सर्जन का आकाश नया।
मानव और दानव में यूँ तो
भेद नजर नहीं आएगा ।
एक पोंछता बहते आँसू
जीभर एक रुलाएगा।
रचने से ही आ पाता है
जीवन में विश्वास नया।
कुछ तो इस धरती पर केवल
खून बहाने आते हैं ।
आग बिछाते हैं राहों पर
फिर खुद भी जल जाते हैं ।
जो होते खुद मिटने वाले
वे रचते इतिहास नया ।
मंत्र नाश का पढ़ा करें कुछ
द्वार -द्वार पर जा करके ।
फूल खिलाने वाले रहते
घर­ घर फूल खिला करके।
रहता सदा इन्हीं के दम पर
सुरभि ­ सरोवर पास नया।

Saturday, July 14, 2007

क्षणिकाएँ

1.
सभाओं में बना करते थे
वे प्राय: अध्यक्ष
अब ठूँठ बनकर रह गए ।

2
गुमराहों को है गुरूर
नई पीढ़ी को सिर्फ़ वे ही
रास्ता दिखाएँगे ।

3
इतना ऊँची उड़ी
मॅंहगाई की पतंग
कि जीवन–डोर लील गई ।

4.
वे फैलाकर कड़वाहट
पढ़ाते एकता का पाठ
सिर्फ़ मूर्खो से चलती
उनकी हाट ।

5. आम आदमी हुआ हलाल
आग लगाकर जमालों दूर खड़ी
बजा रही है गाल ।

6.
तोतों का जुलूस निकाल
जागरण लाएँगे,
जनता को इस तरह गूँगा बनाएँगे ।

7
जो कुछ पाया, वही चबाया
चारा नहीं बचा कुछ
तब बेचारा कहलाया ।



8
जनता है हैरान
कल जिसने जोड़े थे
घर–घर जाकर हाथ
वहीं खींचता कान ।

9
राजनीति में अगर
अपराधी नहीं आएँगे
तो अपराध रोकने के
गुर कौैन बताएँंगे ?

10 स्वामी जी यजमान के लिए
संकटमोचन यज्ञ करा रहे हैं
और खुद तिहाड़ जा रहे हैं ।

11.
समाधान हो जब असम्भव
आयोग बिठाइए
पेचीदे मामले
बरसों तक लटकाइए ।

12
वे अपराधियों को इस बार
पार्टी से निकालेंगे
लगता है सारी कीचड़
किसी गंगा में डालेंगे ।

13
बाढ़ भूचाल ,सूखा
सदा सब आते रहें
स्वरोजगार के नित नए
अवसर दिलवाते रहें ।










14.
जब से वे
बाजारू लिखने लगे हैं
प्याज की तरह महॅंगे बिकने लगे हैं ।

15.
सफाई अभिमान में उन्होंने
कमालकर दिखाया
अपने घर का कूड़ा
पड़ोसी के घर के आगे फिंकवाया ।

16.
नए डॉक्टर हैं
तभी अनुभव पाएँगे
जब दो–चार को
परलोक की सैर कराएँगे ।

17.
इस साल बड़ा पुरस्कार
उन्होंने पाया
समिति के सदस्यों को
सिर्फ़ तीन चौथाई खिलाया ।

18. अखबार बालों पर नेताजी
भेदभाव करने का कीचड़
उछाल रहे है,
सुना है–
अपना अखबार निकाल रहे हैं ।

19.
जिनके पैरों के निशान
दफ्तर की गुफा में
ले जाते हैं
वे कभी वापस नहीं आते है ।

20.
मजहब की छुरी
जाति भेद का कॉटा
जितना चाहा, उतना बॉंटा ।





21.
मुल्क को समझ रोटी
` बहुत से खा रहे हैं
खाने से चूके जो
सिर्फ़ वे ही चिल्ला रहे हैं ।

22.
वे बयानबाजी में
बहुत आगे निकल रहे हैं
जो कल कहा था,
उसे आज बदल रहे है ।

23.
जब हो खाली
काम न धंधा
रसीद छपवा
मॉंग ले चन्दा ।

24.
सुर्खियों में रहे रोज नाम
कीजिए पागलपन की बातें
चलाइए कहीं घूँसे कहीं लातें
तोड़िए सब रिश्ते–नाते ।

25.
भ्रष्टाचार बुलेट प्रूफ हो गया
मारने पर भी
रक्तबीज– सा जिन्दा हो गया ।

26.
वे परिवर्तन के दौर से
गुजर रहे हैं
रात–दिन अपनों का
घर भर रहे हे।




27.
कल तक
दूसरों के पैसों पर मौज
कर गया
आज अपना पैसा खाया
तो दर्द हुआ, मर गया ।

28.
फाइल
अंगद का पॉंव बन गई
बिना खाए–पिए
हिलती नहीं,
लाख ढूँढों
सामने रखी होने पर भी
मिलती नहीं ।

29.
साहब जब से
सूखी सीट पर आए हैं
तब से मजनूँ की तरह
दुबलाए हैं ।

30.
सुबह उठते हैं
कीर्तन करते हैं
दफ्तर में जाकर
जितना होता है चरते हैं ।

31.
तिकड़मी को देखकर
खुदा भी हैरान है
शैतान से भी बढ़कर
यह कौन शैतान है ।

32. डिग्रियों का बोझ
पेट है खाली
पीठ झुकी
सामने लम्बी अँधेरी गली ।






33. उम्र भर चलते रहे
पड़ाव
मंजिल का भरम खड़ाकर
छलते रहे ।


34-आग में


गोता लगाती बस्तियॉं
इस सदी की
यह निशानी बहुत खूब ।

35
. आओ लिख लें
नाम उनका दोस्तों में
ताकि वे भी कल
धोखा दे सकें ।

36.
इमारतों का
रोज जंगल उग रहा
मेमने–सा आदमी
हलकान है
जाए कहॉं ?

37.
माना कि
झुलस जाएँगे हम
फिर भी सूरज को
धरती पर लाएँगे हम ।

38. बारूद के ढेर पर खड़ी
मुस्कराती है मौत
एक दिन धरती पर
सिफ‍र् श्मशान रह जाएँगे ।

39. डरी–डरी आँखों में
तिरते अनगिन आँसू
इनको पोंछो
वरना जग जल जाएगा ।






40.
उम्र तमाम
कर दी हमने
रेतीले रिश्तों के नाम ।

41.
औरत की कथा
हर आँगन में
तुलसी चौरे–से
सींची जाती रही व्यथा ।

42.
स्मृति तुम्हारी
हवा जैसे भोर की
अनछुई , कुँआरी ।

43.
ओढ़ न पाए
चार घड़ी हम
ज्यों की त्यों
धर दीनी हमने
आचरण की फटी चदरिया ।

44.
डॉंक्टर झोलाराम
जब से इलाज करने लगे हैं
जिन्हें बरसों जीना था
बे–रोक–टोक मरने लगे हैं ।
आबादी घटाकर
पुण्य कमा रहे हैं
बिना टिकट बहुतों को
स्वर्ग भिजवा रहे हैं ।

45.
एक चादर थी अभावों की
हमारे पास
वह भी खो गई ।
इतने दिनों में सूरतें सब
बहुत अजनबी
हो गईं ।



46-



घर से चले थे हम
बाहर निकल गए,
अब तो दस्तकों के भी
अर्थ बदल गए ।

कमीज

रामेश्वर काम्बोज हिमांशु

महीने की आखिरी तारीख! शाम को जैसे ही पर्स खोलकर देखा, दस रुपए पड़े थे। हरीश चौंका, सुबह एक सौ साठ रुपए थे। अब सिर्फ़ दस रुपए बचे हैं?
पत्नी को आवाज दी और तनिक तल्खी से पूछा, ‘‘पर्स में से एक सौ पचास रुपए तुमने लिए हैं?’’
‘‘नहीं, मैंने नहीं लिए।’’
‘‘फिर?’’
‘‘मैं क्या जानूँ किसने लिए हैं।’’
‘‘घर में रहती हो तुम, फिर कौन जानेगा?’’
‘‘हो सकता है किसी बच्चे ने लिए हों।’’
‘‘क्या तुमसे नहीं पूछा?’’
‘‘पूछता तो मैं आपको न बता देती, इतनी बकझक क्यों करती।’’ हरीश ने माथा पकड़ लिया। अगर वेतन मिलने में तीन–चार दिन की देरी हो गई तो घर में सब्जी भी नहीं आ सकेगी। उधार माँगना तो दूर, दूसरे को दिया अपना पैसा माँगने में भी लाज लगती है। घर में मेरी इस परेशानी को कोई कुछ समझता ही नहीं!
‘‘नीतेश कहाँ गया?’’
‘‘अभी तो यहीं था। हो सकता है खेलने गया हो।’’
‘‘हो सकता है का क्या मतलब? तुम्हें कुछ पता भी रहता है या नहीं’’, वह झुँझलाया।
‘‘आप भी कमाल करते हैं। कोई मुझे बताकर जाए तो जरूर पता होगा। बताकर तो कोई जाता नहीं, आप भी नहीं’’,पत्नी ठण्डेपन से बोली।
इतने में नीतेश आ पहुँचा। हाथ में एक पैकेट थामे।
‘‘क्या है पैकेट में?’’ हरीश ने रूखेपन से पूछा। वह सिर झुकाकर खड़ा हो गया।
‘‘पर्स में से डेढ़ सौ रुपए तुमने लिये?’’
‘‘मैंने...लि्ये’’, वह सिर झुकाए बोला ।
‘‘किसी से पूछा?’’ हरीश ने धीमी एवं कठोर आवाज में पूछा।
‘‘नहीं’’,वह रूआँसा होकर बोला।
‘‘क्यों? क्यों नहीं पूछा’’, हरीश चीखा।
‘‘....।’’
‘‘चुप क्यों हो? तुम इतने बड़े हो गए हो। तुम्हें घर की हालत का अच्छी तरह पता है। क्या किया पैसों का’’, उसने दाँत पीसे ।
नीलेश ने पैकेट आगे बढ़ा दिया- “पंचशील में सेल लगी थी। आपके लिए एक शर्ट लेकर आया हूँ। कहीं बाहर जाने के लिए आपके पास कोई अच्छी शर्ट नहीं है।’’
‘‘फि...फिर...भी...पूछ तो लेते ही’’, हरीश की आवाज की तल्खी न जाने कहाँ गुम हो गई थी। उसने पैकेट की सीने से सटा लिया।
……………………………………॥

Thursday, July 12, 2007

वफ़ादारी

वफ़ादारी

‘द्रौपदी ,भीम अर्जुन ,नकुल ,सहदेव सब एक-एक करके बर्फ़ में गल गए और पीछे छूट गए ।तुम कब तक साथ चलोगे ?लौट जाओ। अभी समय है।’युधिष्ठिर ने अपने साथ चलने वाले कुत्ते से कहा ।
कुत्ता गम्भीर हो गया –‘मैं ऐसा नहीं कर सकता ,बिरादरी में बहुत बदनामी होगी ।’
‘इसमें बिरादरी की बदनामी क्या होगी ?’युधिष्ठिर ने पूछा ।
‘सब कहेंगे-आदमी के साथ रहकर वफ़ादारी छोड़ दी ।’

चोट

चोट


मज़दूरों की उग्र भीड़ महतो लाल की फ़ैक्टरी के गेट पर डटी थी।मज़दूर नेता परमा क्रोध के मारे पीपल के पत्ते की तरह काँप रहा था … "इस फ़ैक्टरी की रगों में हमारा खून दौड़ता है।इसके लिए हमने हड्डियाँ गला दीं ।क्या मिला हमको भूख, गरीबी, बदहाली ।यही न , अगर फ़ैक्टरी मालिक हमारा वेतन डेढ़ गुना नहीं करते हैं तो हम फ़ैक्टरी को आग लगा देंगे।"

परमा का इतना कहना था कि भीड़ नारेबाजी करने लगी … 'जो हमसे टकराएगा ,चूर - चूर हो जाएगा।'

अब तक चुपचाप खड़ी पुलिस हरकत में आ गई और हड़ताल करने वालों पर भूखे भेड़िए की तरह टूट पड़ी।कई हवाई फायर किये।कइयों को चोटें आईं।पुलिस ने परमा को उठाकर जीप में डाल दिया।भीड़ का रेला जैसे ही जीप की और बढ़ा ड्राइवर ने जीप स्टार्ट कर दी।

रास्ते में पब्लिक बूथ पर जीप रुकी।परमा ने आँख मिचकाकर पुलिस वालों का धन्यवाद किया।

परमा ने महतो का नम्बर डायल किया।

"कहो, क्या कर आए"उधर से महतो ने पूछा।

"जो आपने कहा था, वह सब पूरा कर दिया।चार- पाँच लोग जरूर मरेंगे।आन्दोलन की कमर टूट जाएगी।अब आप अपना काम पूरा कीजिए।"

"आधा पेशगी दे दिया था।,बाकी आधा कुछ ही देर बाद आपके घर पर पहुँच जाएगा । बेफि़क्र

रहें।"

घायलों के साथ कुछ मज़दूर परमा के घर पहुँचे तो वह चारपाई पर लेटा कराह रहा था। पूछने पर पत्नी ने बताया " इन्हें गुम चोट आई है।ठीक से बोल भी नहीं पा रहे हैं ।"

Sunday, July 1, 2007

ऊँचाई

ऊँचाई
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
पिताजी के अचानक आ धमकने से पत्नी तमतमा उठी, “लगता है बूढ़े को पैसों की ज़रूरत आ पड़ी है, वर्ना यहाँ कौन आने वाला था। अपने पेट का गड्‌ढा भरता नहीं, घर वालों का कुआँ कहाँ से भरोगे?”
मैं नज़रें बचाकर दूसरी ओर देखने लगा। पिताजी नल पर हाथ-मुँह धोकर सफर की थकान दूर कर रहे थे। इस बार मेरा हाथ कुछ ज्यादा ही तंग हो गया। बड़े बेटे का जूता मुँह बा चुका है। वह स्कूल जाने के वक्त रोज़ भुनभुनाता है। पत्नी के इलाज़ के लिए पूरी दवाइयाँ नहीं खरीदी जा सकीं। बाबू जी को भी अभी आना था।
घर में बोझिल चुप्पी पसरी हुई थी। खान खा चुकने पर पिताजी ने मुझे पास बैठने का इशारा किया। मैं शंकित था कि कोई आर्थिक समस्या लेकर आए होंगे। पिताजी कुर्सी पर उकड़ू बैठ गए। एकदम बेफिक्र, “सुनो” -कहकर उन्होंने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा। मैं साँस रोककर उनके मुँह की ओर देखने लगा। रोम-रोम कान बनकर अगला वाक्य सुनने के लिए चौकन्ना था।वे बोले, “खेती के काम में घड़ी भर की फ़ुर्सत नहीं मिलती है। इस बखत काम का जोर है। रात की गाड़ी से ही वापस जाऊँगा। तीन महीने से तुम्हारी कोई चिट्ठी तक नहीं मिली। जब तुम परेशान होते हो, तभी ऐसा करते हो।”
उन्होंने जेब से सौ-सौ के दस नोट निकालकर मेरी तरफ़ बढ़ा दिए- “रख लो। तुम्हारे काम आ जाएँगे। इस बार धान की फ़सल अच्छी हो गई है। घर में कोई दिक्कत नहीं है। तुम बहुत कमज़ोर लग रहे हो। ढंग से खाया-पिया करो। बहू का भी ध्यान रखो।”
मैं कुछ नहीं बोल पाया। शब्द जैसे मेरे हलक में फँसकर रह गए हों। मैं कुछ कहता इससे पूर्व ही पिताजी ने प्यार से डाँटा- “ले लो। बहुत बड़े हो गए हो क्या?”“नहीं तो” - मैंने हाथ बढ़ाया। पिताजी ने नोट मेरी हथेली पर रख दिए। बरसों पहले पिताजी मुझे स्कूल भेजने के लिए इसी तरह हथेली पर इकन्नी टिका दिया करते थे, परन्तु तब मेरी नज़रें आज की तरह झुकी नहीं होती थीं।

Thursday, June 28, 2007

रिश्तों की खातिर



(कविता -मेरी पसन्द)       डॉ० भावना कुँअर


बहुत दुखी हूँ मैं
इन रिश्ते नातों से
जो हर बार ही दे जाते हैं-
असहनीय दुःख,
रिसती हुई पीडा,
टूटते हुए सपने,
अनवरत बहते अश्क
और मैंने---
मैंने खुद को मिटाया है
इन रिश्तों की खातिर।
पर इन्होंने सिर्फ--
कुचला है मेरी भावनाओं को,
रौंद डाला है मेरे अस्तित्व को,
छलनी कर डाला है मेरे दिल को।
लेकिन ये मेरा दिल है कोई पत्थर नहीं---
अनेक भावनाओं से भरा दिल
इसमें प्यार का झरना बहता है,
सबके दुःखों से निरन्तर रोता है,
बिलखता है, सिसकता है
और उनको खुशी मिले
हरदम यही दुआ करता है।
पर उनका दिल ,दिल नही
पत्थरों का एक शहर है
जिसमें कोई भावनाएं नही
बस वो तो तटस्थ खडा है
पर्वत की तरह
उनके दामन को बहारों से भर दो
तो भी उनको कोई फर्क नहीं पडता।
मैं हर बार हार जाती हूँ इन रिश्तों से
पर,फिर भी हताश नहीं होती
फिर लग जाती हूँ इनको निभाने में
इस उम्मीद से कि कभी तो सवेरा होगा
कभी तो ये पत्थरों का शहर
भावनाओं का शहर होगा
जिसमें मेरे लिए भी
अदना -सा ही सही
पर इक मकां होगा।
-0-

डॉ० भावना कुँअर

Friday, June 15, 2007

शिक्षा

भाषा एक संस्कार

- रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

एक पुरानी कथा है । एक राजा शिकार खेलने के लिए वन में गया । शेर का पीछा करते करते बहुत दूर निकल गया। सेनापति और सैनिक सब इधर उधर छूट गए। राजा रास्ता भटक गया। सैनिक और सेनापति भी राजा को खोजने लगे।सभी परेशान थे। एक अंधा भिखारी चौराहे पर बैठा था। कुछ सैनिक उसके पास पहुँचे। एक सैनिक बोला 'क्यों बे अंधे ! इधर से होकर राज गया है क्या?'
'नहीं भाई !' भिखारी बोला। सैनिक तेजी से आगे बढ गए।
कुछ समय बाद सेनापति भटकते हुआ उसी चौराहे पर पहुँचा।उसने अंधे भिखारी से पूछा 'क्यों भाई अंधे ! इधर से राज गए हैं क्या?'
'नहीं जी, इधर से होकर राजा नहीं गए हैं ।'
सेनापति राजा को ढूँढने के लिए दूसरी दिशा में बढ़ ग़या।

इसी बीच भटकते-भटकते राजा भी उसी चौराहे पर जा पहुँचा। उसने अंधे भिखारी से पूछा - 'क्यों भाई सूरदास जी ! इस चौराहे से होकर कोई गया है क्या?'
'हाँ महाराज ! इस रास्ते से होकर कुछ सैनिक और सेनापति गए हैं।'
राजा चौंका - 'आपने कैसे जाना कि मैं राजा हूँ और यहाँ से होकर जाने वाले सैनिक और सेनापति थे ?'
'महाराज ! जिन्होंने 'क्यों बे अंधे' कहा वे सैनिक हो सकते हैं। जिसने 'क्यों भाई अंधे' कहा वह सेनापति होगा। आपने 'क्यों भाई सूरदास जी !'कहा.आप राजा हो सकते हैं।आदमी की पहचान उसकी भाषा से होती है और भाषा संस्कार से बनती है। जिसके जैसे संस्कार होंगे, वैसी ही उसकी भाषा होगी ।

जब कोई आदमी भाषा बोलता है तो साथ में उसके संस्कार भी बोलते हैं। यही कारण है कि भाषा शिक्षक का दायित्व बहुत गुरुतर और चुनौतीपूर्ण है। परम्परागत रूप में शिक्षक की भूमिका इन तीन कौशलों - बोलना, पढ़ना और लिखना तक सीमित कर दी गई है। केवल यांत्रिक कौशल किसी जीती जागती भाषा का उदाहरण नहीं हो सकते हैं। सोचना और महसूस करना दो ऐसे कारक हैं जिनसे भाषा सही आकार पाती है। इनके बिना भाषा गूँगी एवं बहरी है, इनके बिना भाषा संस्कार नहीं बन सकती, इनके बिना भाषा युगों-युगों का लम्बा सफर नहीं तय कर सकती; इनके बिना कोई भाषा किसी देश या समाज की धड़कन नहीं बन सकती। केवल सम्प्रेषण ही भाषा नहीं है। दर्द और मुस्कान के बिना कोई भाषा जीवन्त नहीं हो सकती। सोचना भी केवल सोचने तक सीमित नहीं । सोचने में कल्पना का रंग न हो तो क्या सोचना। कल्पना में भाव का रस न हो तो किसी भी भाषा का भाषा होना बेकार। भाव ,कल्पना और चिन्तन भाषा को उसकी आत्मा प्रदान करते हैं।

2

भाषा-शिक्षक खुद ही पूरे समय बोलता रहे,यह शिक्षण की सबसे बडी क़मजोरी है। प्रायः यह देखने में आता है कि बहुत से बच्चों को वर्ष में एक बार भी भाषा की कक्षा में बोलने का अवसर नहीं मिल पाता है। बिना बोले भाषा का परिष्कार एवं संस्कार कैसे हो सकता है? बच्चों के आसपास का संसार बहुत बड़ा एवं व्यापक है। दिन भर बहुत कुछ बोलने वाले वाले बच्चों को कक्षा में मौन धारण करके बैठना पड़ता है। यह किसी यातना से कम नहीं। बच्चों के भी अपने कच्चे-पक्के विचार हैं । उन्हें अभिव्यक्त करने का अवसर मिलना चाहिए। अभिव्यक्ति का यह अवसर ही भाषा को माँजता और सँवारता है। 'खामोश पढ़ाई जारी है' की स्थिति भाषा के लिए शुभ संकेत नहीं है। हमें इस प्रवृत्ति में बदलाव लाना पडेग़ा। दुनिया के अधिकतर झगड़े भाषा के गलत प्रयोग,गलत हाव-भाव के कारण पैदा होते हैं। बिगड़े सम्बन्ध भाषा के सही प्रयोग से सुलझ भी जाते हैं। बहुत से 90 प्रतिशत अंक पाने वाले बच्चे भी कमजोर अभिव्यक्ति के चलते अपनी बात सही ढंग से नहीं कह पाते। अतः आज के परिप्रेक्ष्य में यह आवश्यक है कि बच्चें को बोलने का भरपूर मौका दिया जाए ; तभी अभिव्यक्तिकौशल में निखार आएगा।
छोटी कक्षाओं से ही इस दिशा में बल दिया जाना चाहिए। संवाद, समूह-गान एकालाप, कविता पाठ, कहानी कथन, दिनचर्या-वर्णन के द्वारा बच्चों की झिझक दूर की जा सकती है।
पाठ्य-पुस्तकें केवल दिशा निर्देश के लिए होती हैं .उन्हें समग्र नही मान लेना चाहिए। अतिरिक्त अध्ययन के द्वारा भाषा की शक्ति बढाई जा सकती। बच्चों को निरन्तर नया पढ़ने के लिए प्रेरित करना जरूरी है। यह तभी संभव है, जब शिक्षक भी निरन्तर नया पढ़ने की ललक लिए हुए हों।

भाषा के शुद्ध रूप का बच्चों को ज्ञान होना चाहिए। इसके लिए निरन्तर अभ्यास जरूरी है। अशुद्ध शब्दों का अभ्यास नहीं कराना चाहिए। कुछ शिक्षक अशुद्ध शब्दों को लिखवाकर फिर उनका शुद्ध रूप लिखवाकर अभ्यास कराते हैं। ऐसा करना उचित नहीं है। बच्चों को दोनों प्रकार के शब्दों का बराबर अभ्यास हो जाएगा। वे सही और गलत दोनों का समान अभ्यास करने के कारण शुद्ध प्रयोग करने में सक्षम नहीं हो पाएँगे। संशोधित किये गए सही शब्दों की सूची अलग से बनवानी चाहिए.इससे यह पता चल सकेगा कि कौन छात्र किन -किन शब्दों की वर्तनी गलत लिखता रहा है। निर्धारित अन्तराल के बाद वर्तनी की अशुद्धियों में क्या कमी आई है। श्रुतलेख के माध्यम से अशुद्धियों में आई कमी का आकलन किया जा सकता है।

संक्षेप में कहा जा सकता है कि सभी कौशलों का निरन्तर अभ्यास भाषा को प्रभावशाली बनाने की भूमिका निभा सकता है।
o रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
प्राचार्य, केन्द्रीय विद्यालय

आयुध उपस्कर निर्माणी, हजरतपुर
जि0 फिरोजाबाद ( उ0प्र0)283103














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नहीं मिला


ज्ञानेन्द्र ‘साज़’

ढूँढा किए जिसे वो उमर भर नहीं मिला
चलता रहा मगर तो सफर पर नहीं मिला ।
जब से उधार ले गया वह हमसे माँगकर
चक्कर पे चक्कर काटे पर घर पर नहीं मिला ।
छत पर किसी से बात में मशगूल था इतना
कितना पुकारा नीचे उतर कर नहीं मिला ।
वह मिलना चाहता था अपने समाज से
दहशतज़दा था इस कदर डरकर नहीं मिला ।
महफ़िल में उसकी हम गए फिर भी वो ऐंठ में
बैठा ही रहा हमसे वो उठकर नहीं मिला ।
कैसा अजीब दौर है ऐ दोस्त क्या कहूँ
दिल भी मिलाया था मगर दिलबर नहीं मिला ।
होली हो, ईद हो मगर ये देखिए कमाल
जो भी मिला गले से , वह खुलकर नहीं मिला ।
हुआ जवान तो हिस्से की बात को लेकर
बचपन के जैसा ,भाई भी हँसकर नहीं मिला।
मन्दिर में,मस्ज़िदों में,गिरजों में कहीं भी
ढूँढा तो बहुत था कहीं ईश्वर नहीं मिला ।
कुण्ठित है मगर जी रहे हैं फिर भी शान से
हमको किसी के धड़ के ऊपर सर नहीं मिला ।
रहज़न मिले,लुटेरे मिलें नक़बज़न मिले
ऐ साज़ मेरे देश को रहबर नहीं मिला ।

Saturday, June 9, 2007

मरुस्थल के वासी



श्याम सुन्दर अग्रवाल





गरीबों की एक बस्ती में लोगों को संबोधित करते हुए मंत्रीजी ने कहा, “इस साल देश में भयानक सूखा पड़ा है। देशवासियों को भूख से बचाने के लिए जरूरी है कि हम सप्ताह में कम से कम एक बार उपवास रखें।”
मंत्री के सुझाव से लोगों ने तालियों से स्वागत किया।
“हम सब तो हफते में दो दिन भी भूखे रहने के लिए तैयार हैं। भीड़ में सबसे आगे खड़े व्यक्ति ने कहा।
मंत्रीजी उसकी बात सुनकर बहुत प्रभावित हुए और बोले, “जिस देश में आप जैसे भक्त लोग हों, वह देश कभी भी भूखा नहीं मर सकता।
मंत्रीजी चलने लगे जैसे बस्ती के लोगों के चेहरे प्रश्नचिह्न बन गए हों।
उन्होंने बड़ी उत्सुकता के साथ कहा, ‘अगर आपको कोई शंका हो तो दूर कर लो।’
थोड़ी झिझक के बाद एक बुजुर्ग बोला, ‘साब! हमें बाकी पाँच दिन का राशन कहाँ से मिलेगा ?’
*******

रिश्ता


डा श्याम सुन्दर 'दीप्ति'


"मोगा से रास्ते की सवारी कोई न हो, एक बार फिर देख लो।" कहकर रामसिंह ने सीटी बजाई और बस अपने रास्ते पड़ गई।
बस में बैठे निहालसिंह ने अपना गाँव नजदीक आते देख, सीट छोड़ी और ड्राइवर के पास जाकर धीमे से बोला, "डरैवर साब जी, जरा नहर के पुल पर थोड़ा-सा ब्रेक पर पाँव रखना।"
"क्या बात है? कंडक्टर की बात नहीं सुनी थी?" ड्राइवर ने खीझकर कहा।
"अरे भई, जरा जल्दी थी। भाई बनकर ही सही। देख तू भी जट और मैं भी जट। बस जरा-सा रोक देना।" निहालसिंह ने गुजारिश की।
ड्राइवर ने निहालसिंह को देखा और फिर उसने भी धीमे से कहा, "मैं कोई जट-जुट नहीं, मैं तो मजबी हूँ।"
निहाले ने जरा रुककर कहा,"तो क्या हुआ? सिख भाई हैं हम, वीर [भाई] बनकर रोक दे।"
ड्राइवर इस बार जरा-सा मुसकाया और बोला, "मैं सिक्ख भी नहीं हूँ, सच पूछे तो।"
"तुम तो यूँ ही मीन-मेख में पड़ गए हो। आदमी ही आदमी की दवा होता है। इससे बड़ा भी कुछ है।"
जब निहाले ने इतना कह तो ड्राइवर ने खूब गौर से उसको देखा और ब्रेक लगा दी।
"क्या हुआ?" कंडक्टर चिल्लाया, "मैंने पहले नहीं कहा था? किसलिए रोक दी?"
"कोई नहीं, कोई नहीं। एक नया रिश्ता निकल आया था।" ड्राइवर ने कहा और निहालसिंह तब तक नीचे उतर गया था।
*******

Sunday, June 3, 2007

अधर पर मुस्कान

अधर पर मुस्कान दिल में डर लिये

लोग ऐसे ही मिले पत्थर लिये।

आँधियाँ बरसात या कि बर्फ़ हो

सो गये फुटपाथ पर ही घर लिये।

धमकियों से क्यों डराते हो हमें

घूमते हम सर हथेली पर लिये।

मिल सका कुछ को नहीं दो बूँद जल

और कुछ प्यासे रहे सागर लिये ।

हार पहनाकर जिन्हें हम खुश हुए

वे खड़े हैं सामने पत्थर लिये ।


..............

कितनी बड़ी धरती

कितनी बड़ी धरती ,

बड़ा आकाश है !

बाँट दूँ वह सब ,

जो मेरे पास है

बहुत दिया जग ने

मैंने दिया कम ।

कैसे चुकाऊँ कर्ज़

इसी का है ग़म ।

अपने या पराए कौन ,

यह आभास है ।

…………

रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

19मार्च 07

Tuesday, May 1, 2007

बहुत बोल चुके

बहुत बोल चुके

रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

बहुत बोल चुके अब न बोलो
अपने मन की गाँठ न खोलो ।

गाँठ खोलकर अब तक तुमने
जितना भी था सभी गँवाया ।
मेरे यार ज़रा बतलादो
बदले में तुमने क्या पाया ?

बहुत तोल चुके अब न तोलो।

जिनको अब तक तुमने तोला
उन सबको पाया है पोला ।
वार किया उसने ही छुपकर
जिसको तुमने समझे भोला ।।

अब सबके मन अमृत न घोलो ।

अमृत घोला जिसके मन में
उसका मन विष-बेल हो गया ।
धोखा देकर खिल-खिल हँसना
उन लोगों का खेल हो गया ।।

बहुत बोल चुके अब न बोलो
अपने मन की गाँठ न खोलो ।
…………………………