पथ के साथी

Wednesday, November 19, 2025

1476

डॉ. सुरंगमा यादव

मंजिलों से परे

 

 न जाने किसकी प्रतीक्षा में

 मुख म्लान हो चला है

 जिसे कभी टकसाल में ढले

 नए सिक्के की तरह

 निर्मल- निष्कलुष कहा जाता था

 स्वागत में लगे बंदनवार की तरह

 मुरझाने लगा है मन

 धीरे -धीरे झड़ने लगी हैं पंखुड़ियाँ

 किसी अपने की, जो सचमुच अपना हो

 प्रतीक्षा में राह तकते-तकते

 वह खुद राह बन गई है

 एक ऐसी राह,जो छायादार है

 सुगम है, सुरक्षित है

 हर आने वाला उससे होकर गुजरता है

 अपनी मंजिल तक पहुँचता है

 ‘सुगम राह’ कहकर आगे बढ़ जाता है

 और वह राह, वहीं के वहीं

 खड़ी रह जाती है

 मंज़िलों से परे ।

-0-

17 comments:

  1. सुन्दर भाव लिए

    ReplyDelete
  2. बेहतरीन कविता...👏👏
    आप के द्वारा रचित सुन्दर और सुगम राह पर चलकर मन को एक्यूप्रेशर जैसा आभास हुआ और मन की सारी थकन जाती रही...🙏👏👏

    ReplyDelete
  3. गहन भाव लिए बहुत सुंदर कविता। बधाई आदरणीया 💐

    ReplyDelete
  4. गहन भाव लिए बहुत सुंदर कविता। बधाई आदरणीया 💐
    - सुशीला शील स्वयंसिद्धा

    Reply

    ReplyDelete
  5. सुन्दर कविता, हार्दिक शुभकामनाएँ।

    ReplyDelete
  6. बहुत सुंदर भाव की रचना। बधाई । सुदर्शन रत्नाकर

    ReplyDelete
  7. सुन्दर उपमानों से सज्जित मार्मिक कविता.. हार्दिक बधाई।

    ReplyDelete
  8. सुंदर बहुत सुंदर कविता है- रीता प्रसाद

    ReplyDelete
  9. रास्ते मंज़िल तक जाते जरूर हैं लेकिन पाते नहीं। मंज़िलें केवल यात्रियों के नसीब में होता है। अच्छी कविता-शुभकामनाएँ।।

    ReplyDelete
  10. सुंदर कविता 👍 सोनिया रिखी

    ReplyDelete
  11. भावपूर्ण रचना

    ReplyDelete
  12. आप सभी के प्रति हृदयतल से आभार व्यक्त करती हूँ।

    ReplyDelete
  13. बहुत उम्दा कविता...हार्दिक बधाई।

    ReplyDelete
  14. नवीन भाव बिन्दु लिए सुन्दर अभिव्यक्ति !

    ReplyDelete
  15. प्रतीक्षा में राह पर खड़े-खड़े स्वयं राह बन जाना कैसा होता होगा, अनुपम भाव!

    ReplyDelete