कृष्णा वर्मा
तुम मिले, तुम्हें देखकर लगा
ज्यों छले गए हो किसी से
बहुत गिले हैं तुम्हें ज़िंदगी से
तुम्हारी उदासियों की बर्फ़ पिघलाने को
तुम्हें बढ़कर गले लगाया
अपनत्व की झप्पी दी कि दे सकूँ
ज़रा- सी राहत तुम्हारी बेज़ारियों को
तुम्हारे टूटे हौसले को दे सकूँ ज़रा भर टेक
तुम जब भी मिले सच को छिपाने को
एक ख़ुशनुमा चेहरा ओढ़कर मिले
न तुमने कभी बताया
न मैंनें कभी पूछा, न जताया
धीरे-धीरे तुम्हें टेक रास आने लगी
और तुम अश्वस्त होने लगे
बदलियों- सी छटने लगीं तुम्हारी
उदासियाँ
तुम्हारे चेहरे पर इतमीनान और
चलने- फिरने में विश्वास झलकने लगा
तुम्हारा सँवरना बताने लगा था कि
अब तुम करने लगे हो ख़ुद से प्यार
तुम्हारा सकारात्मक परिवर्तन अब
मिलाने लगा था औरों के हाथों से हाथ
यकायक तुम्हारे कदमों ने
इस तरह तेज़ की रफ़्तार कि
कोई अवसर चूक न जाए हाथ से
और तुम टेक को वहीं छोड़कर
नई चोट के लिए
शामिल हो गए अंधी दौड़ में।
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यही होता है सभी के साथ ... अच्छी कविता
ReplyDeleteअंतिम पंक्तियाँ बहुत कुछ कह जाती हैं --- पुरानी टेक को छोड़ कर नई चोट खाने के लिए इंसान अंधी दौड़ में शामिल हो जाता है ! गहरी घात या बात जो इंसान के स्वभाव को दर्शा रही है ।
ReplyDelete... नई चोट के लिए शामिल हो गए अंधी दौड़ में... अंतिम पंक्तियों में कविता का मर्म, कविता की व्यंजना समाहित है.. गंभीर भावभिव्यजक कविता।
ReplyDeleteकविता बेहद संवेदनशील और मनोवैज्ञानिक धरातल पर लिखी गई है। बहुत मार्मिक और सच्चाई भरी रचना।बधाई
ReplyDeleteकोई अवसर चूक न जाए हाथ से
ReplyDeleteऔर तुम टेक को वहीं छोड़कर
नई चोट के लिए
शामिल हो गए अंधी दौड़ में।
ये अंधी दौड़ कहाँ ले जाएगी,कुछ पता नहीं,फिर भी हम उसका हिस्सा बन रहे हैं।सुंदर सृजन।
आश्वस्त होकर पुनः छले जाने को तैयार....बहुत सुंदर सृजन- रीता प्रसाद
ReplyDeleteबहुत सुंदर भाव व्यंजना। पुरानी को छोड़ नई की चाह की अंधी दौड़ में टूटन ही मिलती है। बहुत सुंदर। सुदर्शन रत्नाकर
ReplyDeleteअज्ञात नाम से टिप्पणी करने वाले साथी टिप्पणी के अन्त में अपना नाम अवश्य लिखें.
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