डॉ. सुरंगमा यादव
मंजिलों से परे
न
जाने किसकी प्रतीक्षा में
मुख
म्लान हो चला है
जिसे
कभी टकसाल में ढले
नए
सिक्के की तरह
निर्मल-
निष्कलुष कहा जाता था
स्वागत में लगे बंदनवार की तरह
मुरझाने लगा है मन
धीरे -धीरे
झड़ने लगी हैं पंखुड़ियाँ
किसी
अपने की, जो सचमुच अपना हो
प्रतीक्षा में राह तकते-तकते
वह
खुद राह बन गई है
एक
ऐसी राह,जो छायादार है
सुगम
है, सुरक्षित है
हर आने
वाला उससे होकर गुजरता है
अपनी
मंजिल तक पहुँचता है
‘सुगम
राह’ कहकर आगे बढ़ जाता है
और वह
राह, वहीं के वहीं
खड़ी
रह जाती है
मंज़िलों से परे ।
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सुन्दर भाव लिए
ReplyDeleteबेहतरीन कविता...👏👏
ReplyDeleteआप के द्वारा रचित सुन्दर और सुगम राह पर चलकर मन को एक्यूप्रेशर जैसा आभास हुआ और मन की सारी थकन जाती रही...🙏👏👏
गहन भाव लिए बहुत सुंदर कविता। बधाई आदरणीया 💐
ReplyDeleteगहन भाव लिए बहुत सुंदर कविता। बधाई आदरणीया 💐
ReplyDelete- सुशीला शील स्वयंसिद्धा
Reply
सुन्दर कविता, हार्दिक शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर भाव की रचना। बधाई । सुदर्शन रत्नाकर
ReplyDeleteसुन्दर उपमानों से सज्जित मार्मिक कविता.. हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteसुन्दर उपमानों से सज्जित मार्मिक कविता.. हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteसुंदर बहुत सुंदर कविता है- रीता प्रसाद
ReplyDeleteरास्ते मंज़िल तक जाते जरूर हैं लेकिन पाते नहीं। मंज़िलें केवल यात्रियों के नसीब में होता है। अच्छी कविता-शुभकामनाएँ।।
ReplyDeleteसुंदर कविता 👍 सोनिया रिखी
ReplyDeleteभावपूर्ण रचना
ReplyDeleteआप सभी के प्रति हृदयतल से आभार व्यक्त करती हूँ।
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