एडजस्टमेंट
लिली मित्रा
नीले सलवार-कमीज़ पर हरी बिंदी!!
कोई तुक बनता है क्या?
सूरज की रोशनी में घुटन
और
धुंध में जीवन का उजास
अटपटी सी सोच लगती है... ना?
एक पिंजरे में कैद पंछी आसमान को देख
जब पंख फड़कता होगा तो
ऐसा ही कुछ मन में कल्पना करता होगा…
उस पंछी के लिए 'एडजस्टमेंट' बस इतना
सा आशय रखता हो...शायद।
पर हर औरत ये कहती सुनाई देती है-
थोड़ा सा एडजस्ट करो...हो जाएगा।
एडजस्टमेंट औरत के शब्दकोश का एक जरूरी शब्द क्यों है?
और यही एक आवश्यक शब्द जब विद्रोह का बिगुल बजाता है
तो उसकी ध्वनि में अट्टहास का सुर नहीं
किसी जलतरंग की तरंग का लहरिया सुर होता है
जो पहले उसकी रगों में
फिर उसके परिवेश, तदनंतर संपूर्ण ब्रह्मांड
में फैल जाता है।
वह जुट जाती है इस शब्द के कई पर्याय बनाने में,
इस शब्द की नई व्याकरण गढ़ने में।
पर्याय का हर शब्द नए सन्दर्भानुकूल अर्थ-परिधान में
उपस्थित होता है
वो इस 'एडजस्टमेंट' का पिंजरा तोड़ता नहीं है-
पिंजरे की फांक से पूरा असमान खुद में
घसीट लेता है...
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फरीदाबाद, हरियाणा।
(मृदुला गर्ग जी की कहानी 'हरी बिंदी' पढ़ने
के बाद उपजी कविता)
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रचना को स्थान देने के लिए हार्दिक आभार सर 🙏
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता।
ReplyDeleteहार्दिक बधाई आपको
सादर
धन्यवाद रश्मि जी🙏
Deleteसुंदर कविता रची है लिली जी, आपको बधाई।
ReplyDeleteधन्यवाद प्रीति जी☺️🙏
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता...हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteलगभग सभी स्त्रियों का यही सच है. बेहद भावपूर्ण रचना. बधाई लिली जी.
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