1-स्मृतियों के घेरे में / कृष्णा
वर्मा
जब-तब घिरे स्मृतियों का कोहरा
सन्नाटों में धड़कता मौन
पलटने लगता है अतीत के पन्ने
किसने कब क्यूँ कहाँ और कैसे को
कुरेदता मन
झाँकने लगता है बीती की तहों में
किसके छल ने डसा और
किसके व्यंग्य ने भेदी आत्मा
किसने उकेरने चाहे
मेरे तलवों की ज़मीं पर अपने नक़्शे
कौन मेरे पाँव की ज़मीं खिसकाकर
बनाने के प्रयत्न में था अपना महल
किसने चलाए मेरे वक़्त पर
तिरछे बाण और
किसने बँधाया मेरी अस्थिरता को धीर
किसके हाथों का स्पर्श दे गया
कांधे को आश्वासन
किसकी हथेली की उष्मा दे गई
अपनापे की गरमाहट मेरी ठंडी हथेली को
किसने निभाया दिली रिश्ता और
किसने औपचारिकता
कौन था जिसने ज़ख़्मों को भरा
और किसने उन्हें कुरेदा
किसने दी भर-भर के पीड़ा और किसने हरी
आंकलन करता समीक्षा में उलझा
पगला मन भूल जाता है
कुहासे को छाँटना
अतीत की डबडबाहट में भीगी पलकें
बार-बार लग जाती है
गुलाबी डोरों के गले
कतरा-कतरा सोज़
उड़ेलकर कोरों के काँधों पर
छाँटना चाहती हैं तुषारावृत को
पर यादों का समंदर है कि सूखता ही नहीं
हठी स्मृतियाँ इंतिहा मजबूती से
थामे जो रहती हैं मन की अँगुली।
-0-
2-फ़ेहरिस्त -प्रीति अग्रवाल
एहसानों की फ़ेहरिस्त
बड़ी हो रही है,
माथे पे चिंता
घनी हो रही है।
अभावों में डूब
तिनके ढूँढती हूँ जब,
हौली सी आवाज़
कानों में गूँजती है तब,
मेरा खुदा सकुचाया सा
मुझसे कहे-
क्या करूँ , ये सारे,
करम हैं तेरे।
पर रुक, कुछ फ़रिश्ते
भी संग कर रहा हूँ,
हिफ़ाज़त के सारे
प्रबन्ध कर रहा हूँ।
तुझे पंखों पे बैठा,
ले जाएँगे उस पार,
लगी, तो लगी रहने दे
अभावों की कतार!!
किस सोच में खड़ी
क्या कोई असमंजस,
इक फ़रिश्ते ने पूछा
काम से रुककर।
अभाव जितने,
उनसे दुगुने फ़रिश्ते,
कर्ज़ कैसे अदा हो
ये दुविधा बड़ी है !
मुस्कुराया और सुझाया,
है यह भी तो सम्भव,
तू फ़रिश्ता थी हमारी
जन्मों जन्म तक!!
एहसान तेरे
चुकाए जा रहे हैं,
कर्ज़ न कि तुझ पर
चढ़ाये जा रहे हैं ।
ऐसा तो पहले
सोचा ही नहीं था,
खुश हुई मैं,
और मेरा खुदा भी खुश था!!!
-0-
एहसानों की फ़ेहरिस्त
बड़ी हो रही है,
माथे पे चिंता
घनी हो रही है।
अभावों में डूब
तिनके ढूँढती हूँ जब,
हौली सी आवाज़
कानों में गूँजती है तब,
मेरा खुदा सकुचाया सा
मुझसे कहे-
क्या करूँ , ये सारे,
करम हैं तेरे।
पर रुक, कुछ फ़रिश्ते
भी संग कर रहा हूँ,
हिफ़ाज़त के सारे
प्रबन्ध कर रहा हूँ।
तुझे पंखों पे बैठा,
ले जाएँगे उस पार,
लगी, तो लगी रहने दे
अभावों की कतार!!
किस सोच में खड़ी
क्या कोई असमंजस,
इक फ़रिश्ते ने पूछा
काम से रुककर।
अभाव जितने,
उनसे दुगुने फ़रिश्ते,
कर्ज़ कैसे अदा हो
ये दुविधा बड़ी है !
मुस्कुराया और सुझाया,
है यह भी तो सम्भव,
तू फ़रिश्ता थी हमारी
जन्मों जन्म तक!!
एहसान तेरे
चुकाए जा रहे हैं,
कर्ज़ न कि तुझ पर
चढ़ाये जा रहे हैं ।
ऐसा तो पहले
सोचा ही नहीं था,
खुश हुई मैं,
और मेरा खुदा भी खुश था!!!
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3-दोहा /मंजूषा मन
दूर बसे परदेस तुम, मिलने की
क्या आस।
माँगूँ निशदिन ये दुआ, आ जाओ अब
पास।।
-0-
बेहद सुंदर रचना कृष्णजी, स्मृतियाँ वाकई हटी होती हैं, भुलाये नहीं भूलती!
ReplyDeleteभीगी पलके बार बार लग जाती हैं गुलाबी डोरों के गले....बहुत खूब!!
बहुत सुंदर दोहा मंजूषा जी,जा तन लागे,वा तन जाने!
आप दोनों को बधाई!
कृष्णा जी बहुत सुन्दर भावों से पूर्ण कविता है सत्य है स्मृतियों के घने कुहासे को छांटना बहुत मुश्किल होता है इसी उलझी सी उलझन में जीवन निकल जाता है |प्रीती जी आपके द्वारा सुन्दर सृजन के लिए और मंजूषा मन जी को उनके द्वारा रचित दोहे के लिए, तीनों रचियताओं को बधाई |
ReplyDeleteयादों का समन्दर है कि सूखता ही नहीं।कृष्णा जी सच में ये यादें पीछा ही नहीं छोड़तीं । भावपूर्ण कविता। प्रीतिजी मंजूषा जी बहुत सुंदर सृजन। आप तीनों को हार्दिक बधाई ।
ReplyDeleteकृष्णा जी एवं प्रीति जी बहुत सुन्दर रचनाएँ हैं आपकी।बहुत-बहुत बधाई ।मिलन की व्याकुलता से युक्त मंजूषा जी का सुन्दर दोहा।
ReplyDeleteप्रीति जी की कविता और मंजूषा जी का दोहा दोनों बहुत सुंदर...आप दोनों को हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteआ.कृष्णा जी एवं प्रीति जी,बहुत ख़ूबसूरत रचनाएँ हैं! मंजूषा जी का दोहा भी बहुत प्यारा ! आप सभी को हृदय-तल से बधाई !
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteसविता जी,सुदर्शन जी,सुरंगमा जी,कृष्णा जी,ज्योत्स्ना जी एवंओंकार जी,आप सभी के प्रोत्साहन के लिए बहुत बहुत आभार!
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